मालूम है टूटकर गिर जाएँगी ,
फिर भी कलियों को खिलने का
इन्तेजार होता है .......।
मालूम है गिरकर बिखर जायेंगे,
फिर भी काँच को ढलने का
इन्तेजार होता है .…...।
मालूम है वाष्प बन के उड़ जायेंगे
फिर भी बादल को बरसने का
इन्तेजार होता है...... ।
मालूम है शाम को डूब जाना है
फिर भी सूरज को निकलने का
इन्तेजार होता है.…... ।
मालूम है प्रभात आने पर छुप जाना है
फिर भी चाँद को उगने का
इन्तेजार होता है...... ।
मालूम है वक्त को ढल जाना है
फिर भी मुट्ठी में बाँधने का
प्रयास रहता है......।
मालूम है कल को बिछड़ जाना है
फिर भी सनम से मिलने का
इन्तेजार होता है....।
मालूम है पतझड़ को आना है
फिर भी वृक्ष पत्तियों से
गुलजार होता है…....।
मालूम है मिट्टी में मिल जाना है
फिर भी मनुज को इतना
अहंकार होता है.....।
मालूम है एक दिन मौत आनी है
फिर भी जिन्दगी के आने का
इन्तेजार रहता है.....।।
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Saturday, 26 November 2016
फिर भी
Wednesday, 23 November 2016
सयानी बेटी
बेटी मेरी सयानी हो गई ...
दूध की धुली, चुलबुली सी
मिश्री की डली,महकी कली सी ,
वो प्यारी ,नन्ही सी बच्ची
बातों में सबकी नानी हो गई ।
कभी मुस्कुराती,कभी मुँह फुलाती
भाई से अपने को श्रेष्ठ बताती ,
गुड़िया,खिलौने,पकड़ा -पकड़ी ,
बचपन की बातें कहानी हो गई ।
घर को सहेजती,सवारती
मुझे दुनिया की बाते समझाती
सही-गलत का हिसाब लगाती ,
उसकी जवा होती नजरों में ,
अब मेरी कई बातें बचकानी हो गई ।
कहती है माँ -पापा के संग रहूँगी ,
जीवन भर उनकी सेवा करुँगी ,
बेटे होते है कुल का गौरव ,
बेटियां होती हैं पराई ,
ये सब बातें अब पुरानी हो गई ।।
बेटी मेरी अब सयानी हो गई ।
जाड़े की धूप सुहानी हो गई ।।
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ 😄
Tuesday, 22 November 2016
क्यो ?
दुआएं बेअसर हो रही हैं शायद
दे रहा कोई दर्द मेरा अपना ही ।
कह रही है हवा आकर कुछ कानो में
अनसुनी कर रहा कोई भीतर ही ।
सचेत कर रहे हैं भटकते रास्ते
बहकने लगे कदम फिर भी ।
अनजान लोग क्यों मिलने लगे हैं रोज
अपने तो चुराने लगे नज़र भी ।
सूख गये रस सारे ख्वाहिशो के
किये गए बेकदर क्योंकि ।
एहसास चलने लगे साथ -साथ
तन्हा न रहे सफ़र यूँ ही ।
मुकद्दर ने न जाने क्या लिखा है
अब करने लगे फिकर हम भी ।
दिल ने माना जबसे तेरा फ़ैसला
अपने से लगने लगे हैं सितम भी ।
भरने लगे हैं जख्म ए जिगर
वक्त ने लगा दिया मरहम वो ही ।।