Thursday, 20 April 2017

अदृश्य शक्ति ( कहानी )


डॉ. दीक्षा चौबे द्वारा रचित कहानी   -
                  अदृश्य शक्ति 
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    रुचि पसीने से तर -बतर हो रही थी ।पता नहीं ट्रेन कब आयेगी.... अक्सर ऐसा ही होता है जब उसे कहीं जाना होता है । उसने अपने छोटे भाई रजत की कितनी मिन्नतें की थी,अपने साथ चलने के लिये.... लेकिन वह अपनी क्लास छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं हुआ । आज ही होना था उसके एम. बी.ए. के ग्रुप डिस्कशन को...पापा  टूर पर हैं... मम्मी को छुट्टी नहीं मिली और रजत भी साथ नहीं आया....रुचि परेशान हो गई ।
             अक्सर यही हाल  होता था उसका, जब कहीं भी अकेले जाना होता था। बैंक,मार्केट या कॉलेज कहीं भी जाना हो, अकेले होने पर वह बहुत असहज महसूस करती...।  घबराहट के कारण हाथ-पैर कांपने लगते , पसीने से भीग जाती  और  मुँह से आवाज ही नहीं निकलती । किसी का साथ रहने रहने पर वह आसानी से सारे काम कर लेती....पर साथ पाने के लिए उसे न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते । रजत को खुश रखने में उसका आधा जेबखर्च चला जाता...सहेलियों की भी
कितनी मिन्नतें करनी पड़ती...उनकी बकवास सुनने ,
उनका इंतजार करने में कितना समय गंवाना
पड़ता ।
          वह स्वयं भी अपनी इस आदत से परेशान थी, किन्तु उसका यह डर बेवजह भी नहीं था । बचपन सेवहऐसी नहीं थी...बेफिक्र तितलियों की तरह अलमस्त इधर-उधर उड़ती रहती थी । मम्मी कोई भी काम कहती,तुरन्तअपनी साइकिल उठाकर चल पड़ती। लगभग बारह- तेरह बरस की रही होगी जब एक बार मम्मी ने उसे सरिता आंटी के घर कुछ सामान पहुंचाने भेजा था । आंटी घर पर नहीं थी...अंकल ने सामान लेते वक्त अपना स्नेह जताते हुए जो हरकत की,उससे पीड़ा से भर गई थीवह । चील के पंजे में फँसी बेबस चिडिया सी हालत हो गई थी उसकी । उनकी आँखों मे वासना का गंदा रूप देख बड़ी मुश्किल से अपने -आपको छुड़ाया था उसने ।भाग कर घर आने के बाद भी वह दृश्य उसकी आँखों से ओझल होने का नाम ही नहीं लेता था ......।
            
          मम्मी को उसने कुछ नहीं बताया पर भीतर ही भीतर घुटने लगी । उसने अपने - आपको संकुचित कर
लिया और अंतर्मुखी होती चली गई । अकेलेपन से उसे
घबराहट होने लगी । मम्मी - पापा को उसका  यह बदलाव युवावस्था का सहज प्रभाव लगा और उन्होंने
रुचि को मानसिक सम्बल देने का प्रयास भी किया ...
तभी तो रुचि की पढ़ाई पर इसका असर नहीं हुआ
और वह अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होती चली
गई ।
         एम. बी.ए. में दाखिले के बाद उसके परिचय
का दायरा बढ़ा लेकिन वह  डर बना रहा । अपने दोस्तों,
घर - परिवार के बीच वह खुलकर हँसती , बातचीत
करती , लेकिन लड़कों के समक्ष बिल्कुल ही गम्भीर ,
चुप हो जाती । उसका आत्मविश्वास डगमगा जाता....
उसके मन में पुरुष जाति के प्रति जो अविश्वास उत्पन्न
हो गया था , उसकी तरक्की में बाधक बनने लगा था,
क्योंकि उनका  सामना तो उसे हर मोड़ पर करना था ।
                  उसकी रेखा मासी , जो एकमनोचिकित्सक
थी , उन्होंने रुचि की इस ग्रन्थि पर गौर किया और इस
सम्बन्ध में खुलकर सब कुछ बताने को कहा.....रुचि
ने पहली बार अपनी उस पीड़ा का जिक्र किया जो
तालाब में डूबे किसी भारी पत्थर की तरह उसके सीने
में दफ़्न थी । रेखा मासी ने बहुत ही संयत होकर उसे
सुना और प्यार से समझाया , उसका हौसला बढ़ाया ।
अपने पास आने वाले कई मरीजों के बारे में बताया जो
उससे कई गुना अधिक तकलीफों से गुजरे थे और उनसे
निजात भी पाई थी । इस तरह उन्होंने रुचि की उस
मनोग्रंथि  की शल्य चिकित्सा कर दी थी । स्वयं रुचि
ने अपने-आप में सुधार महसूस किया और उसका आत्मविश्वास  बढ़ा ।
                  एक अच्छी कम्पनी में जॉब लगते ही पापा
मम्मी की पसंद सुयश से रुचि की शादी हो गई । समय-चक्र के साथ उसकी गृहस्थी की गाड़ी भी सुचारू रूप
चलने लगी । उसके दो प्यारे बच्चे भी हैं जो अब स्कूल
जाने लगे हैं ।
           जब से ऑफिस को नया प्रोजेक्ट मिला है ,काम
बढ़ने की वजह से रुचि को आजकल घर पहुँचने में देर हो जाती है । उस दिन तो हद हो गई । अपना कामखत्म
करके रुचि ने जैसे ही घड़ी पर नजर डाली , उसके तो होश उड़ गए , रात के 9 बज रहे थे ।         

      रुचि भागकर  गाड़ी स्टैण्ड पर पहुँची तो घबरा गई ....उसकी गाड़ी का पिछला टायर पंचर था...अब
सुयश को फोन करके नहीं बुला सकती थी क्योंकि वे
दो दिन के लिए बाहर गए हुए थे ....इतनी रात को किसी और की मदद लेकर उन्हें परेशान करना
उसे उचित नहीं लगा ।
         वैसे उसका घर ऑफिस से बहुत दूर नहीं था । पर
रात की नीरवता और अकेलापन उसे भयभीत कर रहा था । वह सूनी सड़क पर तेज - तेज कदम बढ़ाए जा रही थी । कड़ाके की ठंड होने के कारण लोग कम थे पर गाड़ियाँ आ - जा रही थी ।
           मन में न जाने कैसे - कैसे ख्याल आ रहे थे ...
डर के मारे उसकी  टाँगें कांप रही थीं । उसे अपने अकेले आने के निर्णय पर पछतावा हो रहा था ..... ऑफिस में किसी को घर छोड़ने को कह देना था ,
इस तरह बहादुरी दिखाने की क्या जरूरत थी ।
उसे टी. वी. , अखबारों की वही खबरें याद आ रही थी जिसमें सूने में अकेली महिलाके साथ अनाचार या
कत्ल हो गया था ।.. परेशानी में दिमाग नकारात्मक  बातें ही क्यों सोचता है ? उसने अपने आपको  ढाढ़स बंधाने का प्रयास किया । मम्मी की बातें याद करने लगी....बुरे वक्त में ईश्वर हमारी मदद करता है।
....सूनी सड़क , किनारों पर खड़े खम्भे और उस पर
हाँफती भागती सी वह ....। अब उसे ऐसा लगने लगा था कि उसके पैर रुक गए हों और ये खम्भे दौड़ रहे हों । डर के कारण उसे अपना दम घुटता महसूस हुआ।
...वह तेज चलना चाहती थी , लेकिन पैरों पर मानों किसी ने पत्थर बाँध दिये हों । तभी..अचानक एक रोशनी चमकी और उसकी आँखें चुँधिया गई । उसे लगा कोई चमत्कार हुआ है । कोई अदृश्य शक्ति प्रकट हुई और उसके अंदर समा गई । उसने अपने आपको सहज महसूस किया....लगा कि कोई उसके साथ चल रहा है और वह अकेली नहीं है । आस्था और विश्वास की रोशनी ने हौसला बढ़ाया और रुचि ने राहत की सांस लेते हुए  घर की ओर रुख किया । अब उसका डर उड़न - छू हो गया था । वह घर कब पहुँच गई ,  पता ही नहीं चला ।
             घर पहुँच कर उसने  उस अदृश्य शक्ति का
शुक्रिया अदा करने के लिये अपने दोनों हाथ ऊपर
उठाये कि.... फिर से वही रोशनी कौंध गई । कुछ
क्षण वह स्तब्ध सी खड़ी रही , फिर खिलखिलाकर
हँस पड़ी । .....उसके हैंडबैग पर लगा बड़ा सा काँच
चमककर अब भी रोशनी फेंक रहा था । अपनी
नासमझी पर हँसी जरूर आई परन्तु यह भी समझ
में आ गया कि अदृश्य शक्ति मन के भीतर ही कहीं
छुपी रहती है । हाँ , उसे उभारने के लिये किसी बहाने
की आवश्यकता जरूर होती है , डूबते को तिनके के
सहारे की तरह ।
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     स्वरचित -                   डॉ. दीक्षा चौबे ,
                                      HIG /33 ,आदित्यनगर ,
                                      दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Saturday, 15 April 2017

उमंग

कूक उठी कोयल ,बागों में छाई तरुणाई ।
फूलों की मुस्कान देख,भौरों में मदहोशी छाई।।
झंकृत हो उठे हृदवीना के तार,शोख नजरों ने बात चलाई।
चंचल मन आखिर बोल उठा,  आप आये तो बहार आई।।
Written by-Dr. Diksha Chaube

Friday, 14 April 2017

मै धरती पर बोझ नहीं

नदी देती है जल,
वृक्ष देते है फल,
मै देती हूँ अपना सर्वस्व,
प्रकृति की तरह सबको
अपनाने में करती
कोई संकोच नहीं।
नारी हूँ मै,ऊर्जा का
एक अजस्त्र स्त्रोत,
मै धरती पर बोझ नहीं।
कर्म-क्षेत्र में डटी रही,
जीवन के हर मोड़ पर
निभाती आई अपना दायित्व
बेटी,बहन,पत्नी,मां बनकर
मै पोषिका,मै पालिका
फिर भी मेरी भ्रूण -हत्या
पर कोई रोक नहीं।।
नारी हूँ मै ऊर्जा का
एक अजस्त्र स्त्रोत,
मै धरती पर बोझ नहीं।।
ममतामयी,करुणामयी
जो धरा मिली,उस पर बही
जिस साँचे में ढाला ढल गई
जब-जब घर से निकाला,निकल गई
अपनाया वह जीवन जो मुझे मिला
मेरी अच्छाईयों का ये है सिला
कब तक सहूँ अन्याय ,रहूँ चुप
क्या मेरी कोई सोच नहीं।।
नारी हूँ मैं, ऊर्जा का
एक अजस्त्र स्त्रोत
मै धरती पर बोझ नहीं।।
मुझे दाँव पर लगाया
शक की आग में जलाया
मुसीबत आने पर तुमने
मुझे ढाल भी बनाया
मैंने बचाया दुनिया का अस्तित्व
फिर भी मेरा कोई मोल नहीं।।
नारी हूँ मैं ऊर्जा का
एक अजस्त्र स्त्रोत
मै धरती पर बोझ नहीं।।

Written by-Dr. Diksha Chaube,Durg,C.G.

Monday, 10 April 2017

बेहिसाब जिंदगी

अपनों को रुलाते हैं,
गैरों  को  मनाते  हैं  ।
स्वार्थपूर्ति की खातिर,
नापतौल कर संबंध बनाते हैं।
लाभ-हानि का हिसाब
हो गई है जिंदगी ।
कभी खुली ,कभी बन्द किताब
हो गई है जिंदगी।।

झूठ,चोरी,सीनाजोरी है,
हर हिसाब में हेराफेरी है।
सच की राह में कई मोड़ हैं,
बस,आगे निकलने की होड़ है।
कम दामों पर बिकती माल-असबाब
हो गई है जिंदगी ।
कुछ अनकहे सवालों का जवाब
हो गई है जिंदगी।।

पराये भी शामिल हैं,अपने भी,
यथार्थ के चिथड़ों से झाँकते सपने भी।
ढोते रहे सदा अरमानों की लाश,
ख़ाक छानते हुए भी जिंदगी की आस।
सुलझा रहे इसे, बेहिसाब
हो गई है जिंदगी।
अधखुली आंखों की एक ख्वाब
हो गई है जिंदगी।।

सुख दुख की परछाई है,
धूप छाँव सी आई है।
मजबूरियों का फ़साना है,
जीने का यही एक बहाना है।
इसकी रौ में बहे जा रहे ,बेपरवाह
हो गई है जिंदगी।
जुए में लगाये जीत-हार की एक दाँव
हो गई है जिंदगी।।
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Written by-Dr. Diksha chaube,Durg,C.G.