Monday, 10 April 2017

बेहिसाब जिंदगी

अपनों को रुलाते हैं,
गैरों  को  मनाते  हैं  ।
स्वार्थपूर्ति की खातिर,
नापतौल कर संबंध बनाते हैं।
लाभ-हानि का हिसाब
हो गई है जिंदगी ।
कभी खुली ,कभी बन्द किताब
हो गई है जिंदगी।।

झूठ,चोरी,सीनाजोरी है,
हर हिसाब में हेराफेरी है।
सच की राह में कई मोड़ हैं,
बस,आगे निकलने की होड़ है।
कम दामों पर बिकती माल-असबाब
हो गई है जिंदगी ।
कुछ अनकहे सवालों का जवाब
हो गई है जिंदगी।।

पराये भी शामिल हैं,अपने भी,
यथार्थ के चिथड़ों से झाँकते सपने भी।
ढोते रहे सदा अरमानों की लाश,
ख़ाक छानते हुए भी जिंदगी की आस।
सुलझा रहे इसे, बेहिसाब
हो गई है जिंदगी।
अधखुली आंखों की एक ख्वाब
हो गई है जिंदगी।।

सुख दुख की परछाई है,
धूप छाँव सी आई है।
मजबूरियों का फ़साना है,
जीने का यही एक बहाना है।
इसकी रौ में बहे जा रहे ,बेपरवाह
हो गई है जिंदगी।
जुए में लगाये जीत-हार की एक दाँव
हो गई है जिंदगी।।
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Written by-Dr. Diksha chaube,Durg,C.G.

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