इस बार वर्षों बाद गाँव जाना हुआ....दरअसल दादा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं होने के कारण उन्हें देखने की प्रबल इच्छा हुई इसलिए छुट्टी लेकर बच्चों के साथ गाँव आना हुआ....वरना सावन के इस महीने में कभी आना नहीं हुआ । किसी खूबसूरत तस्वीर की तरह लग रहा था गाँव... खेतों से घिरे पच्चीस - तीस छोटे - बड़े मकान ...उत्तर दिशा में एक बड़ा सा तालाब गाँव के सौन्दर्य में वृद्धि कर रहा था....पानी से भरे तालाब के चारों तरफ ऊँचे - ऊँचे ताड के पेड़ ,
बरगद , पीपल , नीम की सुहानी छाँव मन को मुग्ध कर रही थी । तालाब के किनारे महादेव का छोटा सा मन्दिर इस खूबसूरत वातावरण को पावन बना रहा था । वैसे हर मौसम का विशेष प्रभाव होता है परन्तु बारिश का मौसम बहुत खास होता है । प्रकृति के नवीन स्वरूप के साथ मानव मन भी सक्रिय हो उठता है । कृषक अपनी कर्मस्थली में जुट जाते हैं , वणिक व्यवसाय में तथा श्रमिक श्रम - साधना में तल्लीन हो जाते हैं । जब मैं गाँव में थी तभी कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला हरेली त्यौहार पड़ा । इसके बाद ही बाकी सभी त्यौहार आते हैं... यह कर्म की पूजा का त्यौहार है... कृषि के प्रथम चरण की पूर्णता का उत्साह पकवानों की महक की तरह सम्पूर्ण वातावरण में बिखर जाता है । ग्रामीण अंचल में यह विशेष रूप से मनाया जाता है । शहरों में कार्मिकों के अलावा अन्य लोगों में इसके लिए उतना उत्साह नहीं देखा जाता ....बहुत वर्षों बाद इस अवसर पर मैं गाँव आ पाई हूँ । मेरे बच्चों के लिए तो यह प्रथम अवसर था और वे बड़े उत्साह के साथ हर नई चीज को ध्यान से देख रहे थे और उनमें शामिल भी हो रहे थे । सबसे पहले हल , फावड़ा , कुदाली , गैती इत्यादि को अच्छी तरह साफ किया गया , फिर उन्हें गोबर की लिपाई किये हुए पवित्र स्थान पर रखकर अक्षत , पुष्प , धूप अगरबत्ती जलाकर उनकी पूजा की गई । नारियल , मीठे गुलगुले या चीला का भोग लगाया गया और सबको वितरित किया गया । बच्चों ने गेड़ी पर चढ़ने का भी असफल प्रयास किया और दूसरे बच्चों की गेड़ी की मच - मच करती धुन का मजा लिया । अचानक उनकी नजर कुछ घरों की बाहरी दीवार पर बनी आडी तिरछी लकीरों पर पड़ी जिसे गोबर व सिंदूर से बनाया गया था । प्रतीकात्मक मानव आकृतियों सी यह रचना सवनाही कहलाती है । स्थानीय मान्यता के अनुसार अमावस्या की काली रातों को बुरी शक्तियों के जागृत होने की कहानियों से जोड़ा जाता रहा है । विशेषकर हरेली अमावस्या को जादू टोना करने वाली काली शक्तियां प्रबल हो जाती हैं इसलिए उनसे बचने के लिए दीवारों पर सवनाही बनाई जाती है । दूसरे दिन सुबह सोकर उठी तो वहाँ का माहौल बिल्कुल ही बदला हुआ था । कल तक त्यौहार के रंग में रंगा गाँव आज दुःख , शोक में डूबा हुआ था । पन्द्रह वर्ष की एक बच्ची जो दैनिक कार्यक्रम निपटाने मैदान की ओर गई थी.... उसके साथ अनाचार हो गया था । सुनकर मन खिन्न हो गया था , गाँव की स्वच्छ , सोंधी हवा में यह कैसा जहर घुल गया ...यहाँ के भोले - भाले शांत लोगों के बीच ऐसी कलुषित प्रवृति कैसे पनप गई । यहाँ की पावन माटी में बुराई का बीज कैसे अंकुरित हो गया । संस्कृतियों , परम्पराओं की धरा में ये कैसी प्रदूषित आंधी चली है जिसने मानवीय मूल्यों को क्षत विक्षत कर दिया ।जहाँ सिर्फ और सिर्फ सद्भावना व सहृदयता थी वहाँ नशा , दुष्प्रवृत्तियों , पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर रहा है । मन में बस एक ही सवाल बार - बार उठ रहा है... हमारे बुजुर्गों ने भूत- प्रेत
बुरी आत्माओं से बचाने के लिए सवनाही बनाने की परम्परा बनाई थी । उन्हें क्या मालूम था इंसान उनसे कहीं अधिक खतरनाक साबित होंगे ...काश ! इन्हें दूर रखने के लिए भी कोई सवनाही बनाई जा सकती ?
डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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