Wednesday, 7 June 2023

कुण्डलिया

चित्र आधारित सृजन
तिथि - 27/07/2020
विधा - कुण्डलिया

बैठी है नव यौवना  , बीच नदी की धार  ।
लिए कलश जल साथ में    , खूब किया शृंगार ।
खूब किया शृंगार , केश में गजरा सोहे ।
 ग्रीवा कुंदन हार  , नैन का कजरा मोहे ।
 करे पिया का ध्यान , मानिनी लगती रूठी ।
नहीं समय का भान , नदी में वामा बैठी ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

Sunday, 2 January 2022

सजल

सजल


अंतस में स्नेह-दीप बालें नए साल में ।

खुशियों भरे गीत गा लें नए साल में ।।


अंतिम प्रहर है गहरी रातें मुश्किलों की ।

स्वर्ण किरण रवि मुख पर डालें नए साल में ।।


धरती के कण-कण में छुपी हुई खुशहाली ।

सच्ची खुशी संतोष पा लें नए साल में ।।


दुख पीड़ा की गठरी को शीश नहीं बाँधें ।

इत्र सुधियों की महका लें नए साल में ।।


नागफनी के बीज न बोना मन-मधुवन में ।

सद्भावों के फूल खिला लें नए साल में ।।


भूलें सारी कड़वी बातें द्वेष-दंभ तज दें ।

 हृदय को गंगा जल बना लें नए साल में ।।


डॉ. दीक्षा चौबे



Saturday, 10 October 2020

दोहे

चार दिनों की जिंदगी , मत कर तू अभिमान ।
महल काम आए  नहीं , छोड़ चला इंसान ।।

जाना है सबको यहाँ , अहंकार को त्याग ।
बहुत दिनों सोया रहा , बीती उम्र अब जाग ।।

अहंकार ने ले लिया  , सही - गलत का ज्ञान ।
समझे  छोटा वह सदा  , खुद को व्यापक मान ।।
डॉ. दीक्षा चौबे

Friday, 21 August 2020

एक दिन ( कहानी )

दिव्या आज सुबह उठी तो सूर्य नारायण अपने दायित्व निभाने आसमान में तैनात हो गए थे और दिव्या को उसके आलस पर चिढ़ा रहे थे । सुबह की भागदौड़ और अधिक मुश्किल हो जाती है यदि उठने में देर हो जाए । वो तो शुक्र है कि उसने रात में ही आधी तैयारी कर ली थी । नाश्ते के लिए आलू की सब्जी पहले ही बना कर रख दी थी , फटाफट आलू के पराठे सेंकती गई और देती गई ।

     आज जितनी बार वह अपने किशोर बेटे शिशिर के कमरे में गई वह फोन पकड़े ही दिखा ।" फिर तू मोबाइल लेकर बैठ गया...जब देखो तब फोन में पता नहीं क्या देखता रहता है । कुुुछ  दिनों  के बाद परीक्षा  है....मम्मी शिशिर को डांट रही थी और उसके कानों पर जूूं नहीं रेंग रही थी , वह फोन पर ही लगा रहा । कुछ देर बाद  दिव्या उधर गई तो शिशिर को फिर फोन के कारण डांट पड़ी । हे भगवान ! मैंने इसे मोबाइल लेकर। क्यों दिया , अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है ...तू नहीं
सुधरा तो मोबाइल छीन लूँगी तुझसे। मम्मी ने फोन लेकर टेबल पर रख दिया ,  नहीं  पढूँगा जा गुस्से में कॉपी , किताबें पटक रहा था शिशिर । पन्द्रह - सोलह वर्ष की यह वय
ही ऐसी होती है ....उन्हें लगता है वे जो कर रहे हैं वही
सही है और बाकी गलत । बहुत जल्दी गुुस्सा आ जाता है और चिड़चिड़े  भी हो जाते हैं ।  उन्हें कोई  कारण नहीं सुनना
जिसकी वजह से उनका कोई काम रुके , किसी की सलाह भी नहीं लेनी । माता - पिता तो उनकी नजर में बुद्धू ही रहते हैं ।
            तब - तब ऐसा वाकया होता रहता है जब - जब
उनकी बात नहीं सुनी जाती । माँ - बेटे में कुछ पल अबोला रहता है , फिर पता नहीं कब उनमें सुलह भी
हो जाती है । बेटा माँ को लाड़ करते रहता है और माँ
उसकी फेवरिट डिश पका कर खिलाती रहती है ।
       पर इस बार विवाद कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था
क्योंकि बोर्ड की परीक्षा होने के कारण माँ  परेशान थी
मोबाइल बेटे की कमजोरी बन गई थी । जब भी उसे
मना करते वह कहता पढ़ाई का काम कर रहा हूँ । गूगल
पर कुछ सर्च कर रहा हूँ । न फोन छीनते बन रहा था और न उसे देने का मन कर रहा था । बस अधिक रोक टोक बुरी लग गई और बेटे ने बदतमीजी से बात की । माँ आहत हुई ....उसके आँसू तो जैसे पलकों में ही सवार रहते हैं ....कुछ हुआ नहीं और टपकना शुरू । आज बेटा स्कूल जाते वक्त आवाज देता रहा  ,उसे छोड़ने नहीं गई... नही तो उसके बाहर छोड़ने आये बिना कोई घर से जा नही सकता ।
    शिशिर भी खूब बड़बड़ाता रहा , ऐसी माँ होनी ही
नहीं चाहिए , दिन भर टोकते ही रहती है । फोन पकड़ना मतलब गेम खेलना ही होता है क्या ? मेरी फीलिंग्स कुछ समझती ही नहीं । हुँह.... मैं अपना काम खुद ही कर लूँगा , समझती क्या है मुझे ।
          शाम को  दिव्या के किसी कलीग ने उसके पति तुषार को फोन किया कि स्कूल से लौटते वक्त दिव्या का एक्सीडेंट हो गया है और उसे भिलाई के सेक्टर 9 हॉस्पिटल में एडमिट कराए  हैं तो पल भर के लिए वह कमजोर हो गयेे , फिर
जल्दी से सब सामान पैक कर  वहाँ पहुँचे तो दिव्या के
पैर में प्लास्टर चढ़ा हुआ था । शिशिर को उसकी दीदी  स्नेहा ने एक्सीडेंट के बारे में बताया तो कुछ देर के लिये उसे लगा जैसे उसी के कारण यह सब हुआ ।  फिर उसने  एक लंबी  .साँस भरी और सोचा.. चलो यार !कुछ दिन मम्मी हॉस्पिटल में रहेगी तो उनकी बक - बक से मुक्ति तो मिलेगी । चैन से रहूँगा अकेले । उसने जैसे अपने - आप से कहा था । मैगी का बड़ा पैकेट ले आया था वह ।  माइक्रोवेेेव   में  पकाने रखकर  फोन लेकर बैठ गया । पर आज न मैगी खाने में मजा था और न फोन खेलने में , मम्मी के मना करते रहने पर छुप कर या उन्हें खिजा कर जो मजा आता था । ट्यूशन जाते वक्त न चाहते हुए भी मुँह से निकल गया था - मम्मी, मै जा रहा हूँ । लगा ...अभी मम्मी बाहर आयेगी और ढेर सारी हिदायतें देंगी गाड़ी चलाने को लेकर ....गाड़ी धीरे चलाना ....मोड़ पर हॉर्न  बजाना ....ओवरब्रिज में सावधान रहना । मैं मम्मी से कहता - रोज वही - वही बात कहती हो मम्मी , आप 

रिकॉर्ड क्यों नहीं कर लेती ..बस रिकॉर्डर ऑन कर दिया करो , आपका काम हो जाएगा  । 

       आज न जाने क्यों वही बातें फिर से सुनने को दिल चाह रहा है । कहाँ तो मम्मी को धमकी देता मैं अपने सब काम खुद कर लूँगा पर अब कुछ भी नहीं हो रहा मुझसे । पापा  थोड़ी देर के लिये अस्पताल से  घर आये थे तब बुआ और स्नेहा मम्मी के पास थे। रात को पापा फिर चले गए थे । मेरी परीक्षा पास होने के कारण मुझसे कुछ नहीं कहा जा रहा था । दूसरे दिन अलार्म लगा कर सोया था ताकि समय पर स्कूल जा सकूँ । मम्मी एक जोड़ी यूनिफार्म हमेशा तैयार रखती थी इसलिये दिक्कत नहीं हुई पर मुझे उठाते वक्त वह खूब लाड़ करती थीं... स्नेहा से कहीं अधिक । मेरा सिर सहलाती ,नाक खींचती , मेरे गालों पे प्यार करती ...आज कुछ कमी सी महसूस हुई थी । टिफिन के लिये भी मेरे बड़े नखरे होते ....नहीं आज पराठा नहीं सैंडविच , कभी साबूदाने की खिचड़ी , कभी कटलेट...वह बनावटी गुस्सा दिखाते हुए सब बना देती । मोजे मुश्किल से मिले , बैठे - बैठे मम्मी से बॉटल , जूते  मोजे माँगने की आदत जो पड़ी हुई थी । आज मैगी नहीं खाया गया , न ही कैंटीन में कुछ खाने की इच्छा हुई...तब बहुत होती थी जब मम्मी वहाँ कुछ भी न खाने की ताकीद करती ।शायद किसी काम को नहीं करने की ताकीद ही उसे करने को उकसाती है ।किसी ने ठीक ही कहा है किसी का महत्व उनके न रहने पर ही मालूम होता है ।

      अभी तो एक ही दिन हुए थे मम्मी के बिना  ...और
मुझे उनकी बेहद कमी खल रही थी ...हर बात में ...दिन
भर । जब वह होती थी तब भी और जब नहीं होती थी तब भी...उनकी जो बातें पकाऊ लगतीं थीं आज मेरे कान
वो सब सुनने को तरस रहे थे । लगता था जैसे एक भरम में जी रहा था कि मैं अब बड़ा हो गया हूँ और
मुझे मम्मी की जरूरत नहीं है लेकिन अब समझ में आ
रहा है ...शायद कुछ बातों के लिये मैं कभी बड़ा नहीं
  होऊंगा और बड़े होने के बाद भी मम्मी के बिना जीवन अधूरा ही लगेगा । शाम की ट्यूशन छोड़कर अप्रत्याशित सा मैं मम्मी को देखने हॉस्पिटल पहुँच गया था ...वह लेटी हुई थी ..मुझे देखकर  चमक उठी  थीं उनकी आँखें ...और मैं रोते हुए उनके गले लग गया था , अपने मन में खड़े किये कई विद्रोहों की दीवारों को तोड़कर ....आज ममता के आगोश में वे सब कुतर्क ध्वस्त हो रहे थे  । मम्मी के एक दिन के अलगाव और आँसुओं ने  मेरी अकड़  को धो दिया था  ......मेरा दिमाग सही ठिकाने लग गया था ।

☺️☺️

Saturday, 1 August 2020

ग़ज़ल

भीड़ में भी तन्हा हो जाता है आदमी ,
 चलते- चलते राह खो जाता है आदमी ।

हँसकर सह जाता है दूसरों के दिए जख्म ,
अपनों के वार से रो जाता है आदमी ।

आलीशान महलों में नखरे हैं  नींद के ,
 थका हुआ सड़क पर सो जाता है आदमी ।

कीचड़ से अपना दामन बचाते रहे हैं ,
दौलत से भी दाग धो जाता है आदमी ।

काया देख धोखा नहीं खाना तुम ' दीक्षा '
इंसान से  शैतान हो जाता है आदमी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़





उषा / मुद्रा छंद ( चतुक्षरावृत्ति )

उषा / मुद्रा छंद
चतुक्षरावृत्ति  1221
1 जपूँ नाम । सुबह शाम ।।
नहीं काम । बिना राम ।।

2. सही राह । मिले चाह ।।
   सहे आह । हुआ वाह ।।

3. प्राण बोध । नहीं क्रोध ।।
    करें रोध । नहीं शोध ।।

4. हुई भूल । हृदय शूल ।।
     कटी रात । बनी बात ।।

5.  बजे गीत । यही रीत ।।
     हुई प्रीत । बने मीत ।।

6.   बड़े लोग । बढ़े रोग ।।
     निकल प्राण । मिले त्राण ।।

7. बढ़ी शान । घटी आन ।
     छली लोग । बड़े रोग ।।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

सोरठा ( राखी )

विधा - सोरठा
विषय - राखी

राखी है त्यौहार , भ्रात -बहन के नेह का ।
वसुधा के संस्कार , पूनम चाँद निहारता ।।

रहें हमेशा साथ , शाखें बंधी पेड़ से ।
रक्षाबंधन हाथ , भ्रात बहन को जोड़ता ।।

बहना दिया दुलार , रक्षा बंधन बाँध कर ।
खुशियाँ मिले अपार , मन में मिठास घोल कर ।।

आँगन रहे बहार , राखी पावन दिवस पर ।
रिमझिम पड़ी फुहार , मौसम भी हर्षित हुआ ।।

बहे नैन से नीर , छलके  प्यार भाई का ।
बहना प्यारा वीर , भीगी आँखों देखती ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़