चलते- चलते राह खो जाता है आदमी ।
हँसकर सह जाता है दूसरों के दिए जख्म ,
अपनों के वार से रो जाता है आदमी ।
आलीशान महलों में नखरे हैं नींद के ,
थका हुआ सड़क पर सो जाता है आदमी ।
कीचड़ से अपना दामन बचाते रहे हैं ,
दौलत से भी दाग धो जाता है आदमी ।
काया देख धोखा नहीं खाना तुम ' दीक्षा '
इंसान से शैतान हो जाता है आदमी ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़
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