Saturday, 1 August 2020

ग़ज़ल

भीड़ में भी तन्हा हो जाता है आदमी ,
 चलते- चलते राह खो जाता है आदमी ।

हँसकर सह जाता है दूसरों के दिए जख्म ,
अपनों के वार से रो जाता है आदमी ।

आलीशान महलों में नखरे हैं  नींद के ,
 थका हुआ सड़क पर सो जाता है आदमी ।

कीचड़ से अपना दामन बचाते रहे हैं ,
दौलत से भी दाग धो जाता है आदमी ।

काया देख धोखा नहीं खाना तुम ' दीक्षा '
इंसान से  शैतान हो जाता है आदमी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़





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