Sunday, 26 February 2017

एहसास

बनकर खुशबू ,फूलों में महकती हूँ ,
चिड़ियों की तरह,हर शाख पे चहकती हूँ।
आसमान की बुलंदियों में न ढूँढना मुझे,
बारिश की बूँद हूँ ,मिट्टी में ही निखरती हूँ।
मंदिर में,न मस्जिद में है मेरा ठिकाना ,
श्रम का मोती हूँ ,पसीने में मिलती हूँ ।
आलिशान इमारतों में क्यों ढूंढ़ रहे मुझको,
बेबसी की बेटी हूँ ,झोपड़ी में पलती हूँ ।
सिर पर न चढ़ाना मुझे दिल में बसा लेना,
नूर की बूँद हूँ ,बस आँखों से ढलती हूँ।।
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   Written by- डॉ. दीक्षा चौबे

Friday, 24 February 2017

अंतहीन सफ़र

उसने कहा ,मुझे सुनो,
वह नकार दी गई ।
उसने कहा,मुझे जाने दो,
बंदिशें और बढ़ा दी गई ।
उसने कहा,मुझे उड़ने दो,
उसके पर कतर दिए गये ।
उसने कहा मुझे जीने दो,
वह मिटा दी गई।
उसने कहा मुझे आज़ाद करो,
वह संस्कारों से बांध दी गई।
उसने कहा मुझे खड़े होने दो,
वह सलीब पर लटका दी गई।
उसने कहा मुझे निकलने दो,
दहलीज पर लक्ष्मण -रेखा खींच दी गई।
उसने अब कहना या पूछना छोड़ दिया,
निकल पड़ी एक अंतहीन सफर पर,
करने चली अपने मन की।
ढूंढने निकली अपना अस्तित्व,
चल दी जिधर ले गये कदम,
राहों में मिली बाधाएँ  कई ।
मुश्किल था बन्दिशों को तोड़ पाना,
पर उससे भी मुश्किल था,
अपने- आप से लड़ना,
अपने -आप को पाना।।
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Written by-  डॉ. दीक्षा चौबे,दुर्ग

पहचान

इस कदर स्वार्थी हो गया इंसान,
खो दी है उसने अपनी पहचान,
भ्रष्टाचार,घूसखोरी बन गई शान,
कहाँ गई वह मानवता की आन,
भूखे की रोटी छीन करते कल्याण,
ऐसे ही लोग अब कहलाने लगे महान।।

Thursday, 23 February 2017

शिकवे

वक्त के बदलने का गम क्यों करते हो,
इस दुनिया में  हमने इंसान बदलते देखा है।
बेगानों से अब शिकायत कैसी,
मुसीबत में अपनों को अंजान बनते देखा है।
आबाद रहने की चाह नहीं मन में,
कई बसे घरों को श्मशान बनते देखा है।
पतझड़ से शिकवा क्या करें हम,
बहारों भरे गुलिस्तां को वीरान होते देखा है।
उनसे क्या उम्मीद रखें हम,
अपनी ही तबाही पर जिन्हें हैरान होते देखा है।
जाने कब क्या हो किसे खबर,
कभी मौत तो कभी जन्म पर परेशान होते देखा है।
न्याय पाने की उम्मीद क्यों करें,
चंद टुकड़ों की खातिर ईमान बेचते देखा है।।
लाचारों से सहारा क्या मांगें,
दर्द में भी न पिघलें ,लोगों को ऐसा चट्टान बनते देखा है।
वक्त के बदलने का गम क्यों करते हो,
इस दुनिया में हमने इंसान बदलते देखा है।।
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Written by-डॉ. दीक्षा चौबे

Tuesday, 21 February 2017

रे मन

रे मन !मत हो तू उदास ।
क्या हुआ?गर मिली न मंजिल,
आगे बढ़ना हुआ मुश्किल ,
राहें तो है तेरे पास ।।
रे मन! मत हो तू उदास।।
धरती में पड़ी दरारें ,
सूखे जल-स्त्रोत सारे,
पर क्यों तू हिम्मत हारे,
सावन की तो है आस ।।
रे मन ! मत हो तू उदास ।।

बहुत भटका तू अँधेरे में,
फँसा अवसादों के घेरे में,
सूरज  कल निकलेगा ही,
तम को हर लेगा उजास।।
रे मन ! मत हो तू उदास।।

तूफानों का मंजर है,
घेरे में लेता बवंडर है,
नाव फंसी है भँवर में,
पार उतरेगा,रख विश्वास ।।
रे मन ! मत हो तू उदास।।

दुनिया के शब्द भयंकर हैं,
दिल में चुभोते नश्तर हैं,
अपने ही घोंपते खंजर हैं,
दरिया में ढूंढ तू मिठास ।।
रे मन ! मत हो तू उदास ।।

राह भले हों पथरीले ,
काँटों में ही फूल खिले ,
निरन्तर चलता चल ,
सुख-दुख आएंगे साथ ।।
रे मन ! मत हो तू उदास ।।

गिरना है, सम्भलना है,
तुमको कहीं न रुकना है ,
चुनौतियां स्वीकार करे ,
इन्सान है तू वो खास ।।
रे मन ! मत हो तू उदास ।।
     डॉ. दीक्षा चौबे