उसने कहा ,मुझे सुनो,
वह नकार दी गई ।
उसने कहा,मुझे जाने दो,
बंदिशें और बढ़ा दी गई ।
उसने कहा,मुझे उड़ने दो,
उसके पर कतर दिए गये ।
उसने कहा मुझे जीने दो,
वह मिटा दी गई।
उसने कहा मुझे आज़ाद करो,
वह संस्कारों से बांध दी गई।
उसने कहा मुझे खड़े होने दो,
वह सलीब पर लटका दी गई।
उसने कहा मुझे निकलने दो,
दहलीज पर लक्ष्मण -रेखा खींच दी गई।
उसने अब कहना या पूछना छोड़ दिया,
निकल पड़ी एक अंतहीन सफर पर,
करने चली अपने मन की।
ढूंढने निकली अपना अस्तित्व,
चल दी जिधर ले गये कदम,
राहों में मिली बाधाएँ कई ।
मुश्किल था बन्दिशों को तोड़ पाना,
पर उससे भी मुश्किल था,
अपने- आप से लड़ना,
अपने -आप को पाना।।
-----०-----
Written by- डॉ. दीक्षा चौबे,दुर्ग
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Friday, 24 February 2017
अंतहीन सफ़र
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