वक्त के बदलने का गम क्यों करते हो,
इस दुनिया में हमने इंसान बदलते देखा है।
बेगानों से अब शिकायत कैसी,
मुसीबत में अपनों को अंजान बनते देखा है।
आबाद रहने की चाह नहीं मन में,
कई बसे घरों को श्मशान बनते देखा है।
पतझड़ से शिकवा क्या करें हम,
बहारों भरे गुलिस्तां को वीरान होते देखा है।
उनसे क्या उम्मीद रखें हम,
अपनी ही तबाही पर जिन्हें हैरान होते देखा है।
जाने कब क्या हो किसे खबर,
कभी मौत तो कभी जन्म पर परेशान होते देखा है।
न्याय पाने की उम्मीद क्यों करें,
चंद टुकड़ों की खातिर ईमान बेचते देखा है।।
लाचारों से सहारा क्या मांगें,
दर्द में भी न पिघलें ,लोगों को ऐसा चट्टान बनते देखा है।
वक्त के बदलने का गम क्यों करते हो,
इस दुनिया में हमने इंसान बदलते देखा है।।
--------०-------
Written by-डॉ. दीक्षा चौबे
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Thursday, 23 February 2017
शिकवे
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