समाचार - पत्र में एक दुःखद समाचार पढ़ा
कक्षा नवमी की एक छात्रा ने परीक्षा हॉल में ही फाँसी
लगाकर आत्महत्या कर ली...वजह थी परीक्षा में वह
गाइड लेकर आई थी , पकड़े जाने पर शिक्षकों द्वारा
उसे डाँटा गया और उसके पिताजी से भी शिकायत की
गई.... छात्रा यह अपमान सहन न कर सकी और उसने
यह कदम उठाया , जाहिर है वह घर जाकर अपने माता - पिता का सामना नहीं करना चाहती थी । शिक्षको ने
यह भी बताया कि वह होशियार छात्रा थी और उस स्कूल में विज्ञान के शिक्षक नहीं थे । शायद फेल होने के
डर से वह गाइड लेकर आ गई थी ...। यह घटना हमें
कुछ सोचने पर मजबूर तो करती है ....कहीं हम युवा
मन को ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं या उन्हें अपनी बात समझा नहीं पा रहे हैं । वह बच्ची पढ़ाई में अच्छी थी तो उसे कुछ इस तरह से समझाना था कि उसे सबके
सामने अपमानित न होना पड़ता या परीक्षा के बाद अकेले में उसे समझा सकते थे । इस अवस्था में बच्चों
के मन में इतना आक्रोश रहता है कि वे सही - गलत
सोचने की स्थिति में भी नहीं रहते और अपने आपको
खत्म करने पर आमादा हो जाते हैं । कुछ ही दिन पहले
भिलाई की कक्षा दसवीं की छात्रा ने इसलिये आत्महत्या कर ली थी कि रात को उसे माँ ने व्हाट्सअप
चलाने से मना किया था और पढ़ने के लिए कहा था ।
यह सब देखकर पालक भी सदमें में हैं कि बच्चे से क्या कहें , किस तरह उनके साथ व्यवहार करें , उन्हें कैसे समझाएं कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत ।
सभी इस बात को जानते हैं कि माता - पिता के डाँट के
बिना सफलता सम्भव नहीं , वे उन्हें अनुशासन नहीं सिखायेंगे तो कौन सिखायेगा । माता , पिता और गुरु ही
तो बच्चे को सही राह दिखाते हैं ,पर बच्चे यदि इन्हीं की
बातों का बुरा मानने लगे तो क्या होगा? वर्तमान में
ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं इसलिये बच्चों को इस उम्र में
बहुत ही समझदारी से टेकल करना होगा । क्रोध सोचने - समझने की शक्ति को क्षीण कर देता है ...यदि इस वक्त सम्भाला न जाये तो वह कुछ भी कर जाता है। यह क्षणिक आवेश यह भी सोचने का मौका नहीं देता कि जीने की राहें और भी हैं ...एक ही जगह पर रुक जाना जीवन नहीं है... यह भी कि समय वह मलहम है जो हर घाव भर देता है । किस प्रकार बच्चों को यह समझायें कि इस अनमोल जीवन को इन छोटी
छोटी असफलताओं के लिए खत्म न करें । निराशारूपी
अंधेरे को छँटने दें...अगली सुबह एक नई उम्मीद
लेकर आयेगी । अभिभावकों के लिये यह एक चुनौती
है कि वे अपने बच्चों को इसके लिए कैसे तैयार करें ।
उन्हें चाहिये कि बच्चों को जीवन - मूल्यों की शिक्षा दें,
हार - जीत , सफलता - असफलता दोनों को खुशी - खुशी स्वीकार करने के लिये तैयार करें। नम्बरों की
दौड़ का हिस्सा न बनें , दूसरे से तुलना करके उन्हें हीन
भावना का एहसास न कराएं । सबसे बड़ी बात ,परिस्थितियों का सामना करने की सीख दें । संघर्ष करने के लिए तैयार करें क्योंकि यह समय चुनौतियों का है ...कितनी बार अपने आप से ही लड़ना
पड़ता है, स्वयं को अपनी ताकत का एहसास दिलाना
पड़ता है तब कहीं सफलता मिलती है... नहीं भी मिली
तो कुछ तो होगा ही। असफलता के लिए भी बच्चों को
मानसिक तौर पर तैयार करना होगा चाहे वह कोई भी
क्षेत्र हो पढ़ाई , कैरियर या प्रेम । युवा मन को समझने
का प्रयास करना होगा अभिभावकों को ताकि ऐसी
घटनाओं का दुहराव न हो ।
प्रस्तुति - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Sunday, 24 September 2017
युवा मन को समझने की जरूरत
Sunday, 10 September 2017
जीवन की राहें
जीवन की राहे ,
अकथ , अकल्पनीय ,
मिले कई साथी ...रहबर,
कोई साथ ..कोई विरुद्ध ,
पथ ...कभी सरल ,कभी रुद्ध ,
गिराने वाले भी , उठाने वाले भी ,
दुख देकर मुस्कुराने वाले भी ,
कमियाँ ढूंढ कर नीचा दिखाते,
कुछ पीठ थपथपाने वाले भी ,
दोस्त मिले , दुश्मन भी ,
काँटे मिले तो सुमन भी ,
किसी ने राहों में रोड़े अटकाये ,
किसी ने कदम से कदम मिलाये ,
ठोकर जो लगी तो सहारा दिया ,
डूबती उम्मीदों को बढ़कर थाम लिया ,
कुछ गुमनाम प्रशंसक ,
कुछ बदनाम आलोचक..,
सबने अपने हाथ बंटाए ,
कोई हुए अपने , कोई पराये ,
राही को तो चलते रहना है ,
अंधेरों में न भटकना है ,
साथ देने परवाने आये ,न आये
शमा को तो जलते रहना है ।
रात को ढलना है ,
सूरज को निशदिन निकलना है।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ 🌞🌞
Tuesday, 5 September 2017
कर्तव्यबोध ***(कहानी )
आज दीदी के फोन ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया
था ..ऐसी कौन सी बात हो गई कि दीदी मुझे फोन पर
बताना नहीं चाह रही हैं बल्कि घर आने को कह रही हैं ।
वह परेशान तो लग रही थीं ...हम दोनों बहनों में कोई दो वर्षों का ही अंतर होगा पर हम सहेली की तरह ही रहते थे । साथ सोना , उठना , पढ़ना , कहीं जाना हो तो
साथ - साथ । नहीं जाना है तो दोनों ही नहीं जाते , कई
बार किसी विवाह आयोजन में भेजने के लिए माँ हमें
बहुत मनातीं ।जिम्मेदारियों के बोझ तले लड़कपन कहाँ छुप जाता है पता ही नहीं चलता । शादी के बाद दीदी का व्यक्तित्व पूरा ही बदल गया , पहले की चंचल , हंसोड़ दीदी का स्थान धीर , गम्भीर ,समझदार रमा ने
ले लिया था । इसकी जिम्मेदार वह नहीं , जीवन के वे
उतार - चढ़ाव हैं जिन्होंने उन्हें बदल दिया ।
उनका कोई भी कार्य सरलतापूर्वक पूर्ण नहीं हुआ। बचपन में बार - बार बीमार पड़ती रही ...जीवन
से काफी संघर्ष किया । पीएच. डी. करते - करते अपने
निर्देशक से कुछ कहासुनी हो गई और उन्होंने दीदी की
रिसर्च पूरी होने में न जाने कितनी बाधाएं खड़ी कर दी..
पर ये दीदी की जीवटता ही थी कि उन्होंने काम पूरा
करके ही दम लिया ,उनकी जगह कोई और होता तो वह
काम पूरा ही नहीं कर पाता । बाधा - दौड़ के खिलाड़ी
के लिए बाधाओं से भरी हुई राह भी आसान हो जाती
है वैसी ही दीदी के लिये कठिनाइयों का सामना करना
आसान हो गया था ।कॉलेज में व्याख्याता हो जाने के बाद उनके विवाह में उतनी अड़चन नहीं आई क्योंकि
उनके ही कॉलेज के सहायक प्राध्यापक अनिरुद्ध त्रिपाठी ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था जिसे दीदी के साथ माँ - पिताजी ने भी सहर्ष स्वीकार
कर लिया था । अपनी बेटी नजर के सामने रहे , माता -
पिता को और क्या चाहिये । दीदी भी बहुत खुश थीं
क्योंकि लड़कियों के विवाह के बाद सबसे बड़ी समस्या
नौकरी बरकरार रखने की आती है ...पति कहीं बाहर हो तो नौकरी छोड़ो या नौकरी करनी हो तो पति से दूर
रहो । खुशियाँ उनके आँगन की रौनक बन गई थी पर
हमारे आँगन में सूनापन छा गया था । हम दोनों बहनें
माता - पिता के जीवन का आधार थीं , दीदी जब भी घर
आतीं तो ऐसा लगता मानो मरुस्थल में फूल खिल गये हों ...मैं तो पल भर के लिए भी उन्हें नही छोड़ती थी ।
दो वर्षों के बाद दीदी एक प्यारे से बेटे की माँ
बन गई थी ....पर कुछ समस्या होने के कारण उन्हें महीनों बेड रेस्ट करना पड़ा ...मातृत्व के दायित्व ने
दीदी को बहुत गम्भीर बना दिया था । बेटे के बड़े होने
के बाद एक दिन दीदी और जीजाजी रोज की तरह कॉलेज जा रहे थे कि उनकी मोटरसाइकिल एक बैलगाड़ी से टकरा गई.... मेरी गाड़ी मेरे इशारों पर चलती है कह कर अपनी ड्राइविंग पर नाज करने वाले
जीजाजी उसी के कारण इस दुनिया से चले गये ।दुर्घटना में उन्हें बहुत चोटें आई थी... लगभग दस दिन
आई. सी. यू. में जीवन से संघर्ष करते हुए आखिर उन्होंने हार मान ली । दीदी को इस सदमे ने आहत कर
दिया ....अभी उनका बेटा नीरज एक वर्ष का भी नहीं
हुआ था , जीजाजी कितनी बड़ी जिम्मेदारी के साथ उन्हें अकेला छोड़ गये थे । दुःखो के महासागर में डूब
गई थी दीदी.... हमें समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह उन्हें दिलासा दिया जाये ....उनके दर्द को बाँटना
किसी के लिए सम्भव न था ...घर के हर कोने में जीजाजी की यादें समायी हुई थी... उन दोनों के देखे
हुए सपने फूलों की खुशबू की तरह कमरों में बिखरे पड़े
थे ...माँ - पिताजी को लगा कि यदि दीदी हमारे साथ रहने लगे तो शायद बीते दिनों की बातों को वह भुला
सकें लेकिन वह तो उन्हें भुलाना ही नहीं चाहती थीं बल्कि उन्हें ही अपनी पूंजी मानकर उन्हीं के सहारे जीना चाहती थीं ।कम से कम नीरज तो था उनके पास
जिसकी परवरिश की जिम्मेदारी में वह व्यस्त हो सकीं।
वक्त गुजरने के साथ दीदी और गम्भीर और खामोश
होती गईं... माँ - पिताजी वृद्ध हो चले थे , उन्हें दीदी के
एकाकी जीवन की चिंता थी किन्तु उनकी गहरी खामोशी देखकर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उनसे
पुनर्विवाह की बात करते । एक बार चाची जी ने उनके सामने विवाह की बात छेड़कर अपनी आफत ही
बुला ली...दीदी बहुत क्रोधित हुईं ...खूब चिल्लाई उन पर...फिर फूट - फूट कर रो पड़ी ...फिर किसी ने यह
राग नहीं छेड़ा । उन्होंने नीरज के पालन - पोषण को
ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया । इसी
बीच मेरी भी शादी हो गई और मै अपनी घर - गृहस्थी
में रम गई ।
कालचक्र चलता रहा.. वह कहाँ रुकता है किसी
के लिए चाहे कोई उससे सन्तुष्ट हो या न हो । पर यह अपना कर्म करते रहने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करता रहता है... परिस्थिति अपने अनुकूल हो या प्रतिकूल उसे तो चलते ही रहना है । यह तो अच्छा है कि जिम्मेदारियां मनुष्य को व्यस्त रखती हैं वरना हम अपने दुखों के बारे में सोचते ही रहते और जी नहीं पाते।
कुछ वर्षों बाद माँ बीमारी के कारण हमें छोड़कर चली
गई ...उनके जाने के बाद पिताजी अकेलेपन का दंश
झेलते रहे , पर दीदी के साथ बने रहे । दीदी ने बहुत ही
धैर्य के साथ नीरज को पाला ...कितना संघर्ष कर रही
थी वे अपने - आप से..किन तकलीफों से गुजर रही थीं,
उनसे मैं अनजान नहीं थी । पिताजी के भी चले जाने के
बाद वह बिल्कुल अकेली रह गई , पर मैं क्या करती जैसे विभिन्न ग्रहों की एक निश्चित धुरी , परिधि और
भ्रमण का पथ होता है उसी तरह पत्नी और माँ बनने
के बाद प्रत्येक स्त्री को एक निश्चित केंद्रबिंदु , पथ और
परिधि ( सीमायें ) मिल जाती हैं जिसमें उसे बंध जाना
होता है । सम्बन्धों का यह आकर्षण गुरुत्वाकर्षण बल
से क्या कम होगा ? मैं भी इस बन्धन में बंधकर उनके
लिए समय नहीं निकाल पाई ।
अब तो नीरज इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है..... दीदी की परेशानी का क्या कारण होगा ...तभी
अचानक दरवाजे की घण्टी बजी और मैं अतीत की
यादों से बाहर आई । मेरे पति ही थे...उनसे दीदी के
फोन के बारे में बात कर मैं जाने की तैयारी करने लगी।
सफर के दौरान भी अनेक विचार मन को उद्वेलित करते रहे....कहीं नीरज को तो कुछ नहीं हो
गया...क्या दीदी की तबीयत खराब हो गई इत्यादि
अनेक सम्भावनाओ से जूझती मैं दीदी के घर पहुँची।
वह घर पर अकेली थी....नीरज कहीं बाहर था । बालों
की सफेदी और चेहरे पर अवसाद की लकीरें उन्हें उम्र
से अधिक कमजोर दिखा रही थी...दुःखों और संघर्षों
ने वैसे भी उनकी सहजता और सरलता को समय से
पहले ही गम्भीरता और परिपक्वता की चादर से ढक
दिया था ।
मेरी कुशलक्षेम पूछने के बाद दीदी ने कहा - " प्रिया , तुम सफर के कारण थक गई होगी... थोड़ा
आराम कर लो , फिर बातें करेंगे ।" किन्तु मेरे मन में तो
अनेक आशंकाएं बादलों की तरह उमड़ - घुमड़ रही थीं
इसलिये उनकी बात अनसुनी कर उन्हें सवालिया निगाहों से एकटक देखने लगी । मुझे अपनी ओर देखती
पाकर पहले तो उनकी आंखे नम हो आईं और अंततः
बरस पड़ीं ...शायद उनके सब्र का बाँध टूट गया था जिसे उन्होंने बहुत प्रयास करके रोक रखा था । मैंने
उन्हें रोने दिया.... बहुत दिनों से उन्होंने सारे दुःख , व्यथा अपने एकाकी मन के प्राँगण में जमा कर रखा
था , आज वे आँसुओ से धुल जाएं तो शायद वे हल्कापन महसूस कर सकें ।
कुछ संयत होने के बाद उन्होंने अपने मन की
सारी बातें मुझसे कह दी ...बात नीरज की ही थी ...
पितृहीन होने के कारण मिले अधिक लाड़ - प्यार और
कुछ संगति के असर ने उसे उद्दण्ड बना दिया था । देर
रात तक बाहर घूमना , समय - बेसमय पैसों की माँग
और माँ से बहस करना उसके लिए आम बात हो गई
थी । दीदी बोलते - बोलते रोने लगी थी....प्रिया... मैंने
जीवन में बहुत कुछ सहा , जमाने भर की बातें , ताने
सुनती रही लेकिन कभी हार नहीं मानी ...बस अपने
रास्ते चलती रही लेकिन अब मुझमें हिम्मत नहीं रही...
इतनी भी नहीं कि अपनों की बातें सुन सकूँ । मैंने
हमेशा यही चाहा कि वह पढ़ - लिखकर अपने पैरों पर
खड़ा हो जाये ,उसका भविष्य सुरक्षित हो...अपनी तरफ से पूरी कोशिश की....उसे कोई अभाव महसूस न
हो...लेकिन पता नहीं कहाँ कमी रह गई...आज वह
मुझसे पूछता है कि मैंने उसके लिए क्या किया ....न जाने किन लोगों की सोहबत में पड़कर मुझे, अपनी
पढ़ाई , अपने जीवन का उद्देश्य भूल गया है... डरती हूँ कहीं गलत रास्ते में चला गया तो उसे हमेशा के लिए खो न बैठूँ । ऐसा क्या करूँ कि वह सुधर जाये .. अपने भविष्य को गम्भीरता से ले ...।
दीदी की बातें सुनकर मेरी आँखे भर आईं और मन दुःखी हो गया लेकिन उससे भी अधिक गुस्सा आया उस नीरज पर ...जिसे पाकर दीदी अपने सारे दुःख - दर्द भूल गई थी....जिसके लिये उन्होंने अपने जीवन के दूसरे विकल्पों के बारे में सोचा तक नहीं उसने माँ के प्रति अपना दायित्व तो समझा नहीं उल्टे उसके दर्द का बोझ बढ़ा दिया ।
मैंने नीरज से बात करने का फैसला कर लिया था
इसलिए देर रात तक उसके लौटने का इंतजार करती रही । वह काफी देर से घर आया और आते ही अपने
कमरे में जाने लगा । मैंने ही उसे आवाज लगाई - सुनो नीरज ! " अरे मौसी , आप ....आप कब आई । वह मुझे देखकर चौक गया..
आज दोपहर में आई , " नीरज मैं दीदी को अपने साथ ले जाने आई हूँ ..बिना कोई भूमिका बाँधे मैंने अपनी बात कह दी थी । "
क्यो ? अचानक उसके मुँह से फूट पड़ा था...ओ दो - चार दि...नों के लिए घूमने जाना चाहती हैं... इट्स ओके. उसने कंधे उचकाते हुए कहा था ।
दो - चार दिन के लिए नहीं बेटे....अब मैं उन्हें हमेशा के लिए अपने साथ ले जाना चाहती हूँ...तुम तो
अब बड़े और काफी समझदार हो गए हो...अपने पैरों पर खड़े होने वाले हो ...अब तुम्हें उनकी क्या जरूरत है ? " यह आप क्या कह रही हैं मौसी ? "
मैं ठीक कह रही हूँ नीरज...जिस माँ ने तुम्हें जन्म
दिया ...अपनी ममता और प्यार से सींचकर तुम्हें बड़ा किया ...तुम्हारे अलावा कुछ भी नहीं सोचा... तुम्हें उन्होंने अपने जीने का मकसद बना लिया....उनसे तुम
पूछते हो कि तुमने मेरे लिए क्या किया । उन्होंने अपने जीवन में बहुत तकलीफ पाई है नीरज....मैं सोचती थी कि तुम इस बात को महसूस करोगे और उन्हें हमेशा खुश रखने का प्रयास करोगे....क्योंकि दुनिया के बाकी
लोग उनका दर्द महसूस नहीं कर सकते लेकिन तुम उनके हर दर्द में साझेदार रहे हो... पेड़ में लिपटी लता की तरह तुमने उनके मन के हर पहलू को देखा है,
जाना है...जीजाजी के जाने के बाद आने वाले सुख - दुख के सिर्फ तुम दोनों साझेदार रहे हो ...पर कब से तुमने उन्हें अपना दुश्मन मान लिया नीरज...तुम तो उनका साया हो...तुमने अपने आपको उनसे अलग कैसे मान लिया ।
तुम जिन दोस्तों से अपनी तुलना करते हो वे ममता का मोल क्या जानेंगे जिन्होंने अपनी माँ के हाथों एक निवाला भी नहीं खाया । उनके माँ - बाप ने सिर्फ सुविधाएं देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली...उनके साथ रहकर तुम यह भूल गए कि तुम्हें दीदी ने माँ और पिता दोनों बनकर पाला है ....न जाने कितने
जतन करती रही कि तुम्हे किसी बात की कमी न रहे , कितनी मुश्किलें आई पर कभी खुद से तुम्हें जुदा नहीं किया । सिर्फ तुम्हारी खुशी के लिये जीती आई है वो...
अब समय आया है कि तुम्हारी तरक्की और खुशहाली देखकर वह भी खुश होती....माली को अपने लगाये हुए पौधे की छाया मिले न मिले पर वह उसके फलने - फूलने की ही कामना करता है...उसी प्रकार तुम्हारी माँ
सिर्फ तुम्हारी खुशी देखकर ही जी लेगी , बस तुम सही राह पर चलो और खुश रहो , उसे और कुछ नहीं चाहिये । मैं इससे आगे कुछ न कह पाई और अपने कमरे में चली गई ।
दूसरे दिन सोकर उठी तो सूरज की किरणें पूरे घर में
उजाला फैला चुकी थीं.. नीरज दीदी की गोद में लेट कर हमेशा की तरह अपनी माँ से लाड़ जता रहा था...शायद
माँ - बेटे के बीच के गिले - शिकवे दूर हो गए थे । पश्चाताप के आंसुओं ने दिलों में जमी गर्द धो डाली थी... नीरज को कर्तव्यबोध हो गया था.. रिश्तों की मजबूती के लिए यह जरूरी था... मैंने आगे बढ़कर नीरज को गले लगा लिया था और दीदी की ओर देखकर राहत की सांस ली...अब इस पेड़ को कोई तूफान नहीं गिरा सकता क्योंकि उसने मिट्टी में जड़ें जमा ली हैं... दीदी के चेहरे पर मुस्कुराहट और पलकों
में खुशियों की बूंदें झिलमिला उठी थीं ।
स्वरचित ---डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😃😃
Saturday, 2 September 2017
* भारत माता के चरणों में *
भारत - माता के चरणों में,
उपहार चढ़ाने आई हूँ ।
बिछिया , चूड़ी , कंगन सब,
श्रृंगार चढ़ाने आई हूँ ।
ऐसी रस्में छोड़ दो ,
जो स्त्री को कमजोर करे ,
ऐसे बन्धन तोड़ दो ,
यह पुकार लगाने आई हूँ ।।
भारत माता के चरणों में ,
उपहार चढ़ाने आई हूँ ।
माता अपनी शक्ति से ,
मेरे नैनों को निर्जल कर दे ।
देश - प्रेम की ज्योति जला ,
हृदय को पावन ,सरल कर दे ।
स्वीकार कर अर्पण मेरा ,
जीवन- पथ सफल कर दे ।
राष्ट्रहित में मरने को हूँ ,
खड़ी तैयार बताने आई हूँ ।।
भारत माता के चरणों में ,
उपहार चढ़ाने आई हूँ ।।
ममता के आँचल में पलते ,
हर बालक को सबल कर दे ।
सीने में दबी चिंगारी ,
क्रांति ज्वाल प्रबल कर दे ।
डिगे न कभी कर्तव्य - पथ से,
इरादों को अचल , अटल कर दे ।
मातृ - रक्षण को तत्पर हों ,
यह ललकार दिलाने आई हूँ ।।
बिछिया , चूड़ी , कंगन सब ,
श्रृंगार चढ़ाने आई हूँ ।।
देख अन्याय , भेदभाव ,
अब न चुप रहूँगी ।
सहती आई अब तक ,
अब न सहन करूँगी ।
दुष्टों के दमन को ,
दुर्गा, काली रूप धरूँगी ।
आँसुओं को कमजोरी नही ,
अपना हथियार बनाने आई हूँ ।।
भारत माता के चरणों में ,
उपहार चढ़ाने आई हूँ ।।
कुदृष्टि रखने वालों की ,
दृष्टि को निर्मल कर दे ।
अत्याचारी , पापी के ,
कलुषित मन को धवल कर दे ।
भस्म हों सारे असुर ,
ऐसी अग्नि प्रज्ज्वल कर दे ।
अपने अस्तित्व को न मिटने दूँगी ,
यह शपथ उठाने आई हूँ ।।
बिछिया , चूड़ी , कंगन सब ,
श्रृंगार चढ़ाने आई हूँ ।
भारत माता के चरणों में ,
उपहार चढ़ाने आई हूँ ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️
* काम पर जाते बच्चे *
झोपड़ियों में पलते ,
अभावों के संग बढ़ते ।
भाई - बहन सम्भालते ,
बचपन को तरसते ।
दर्द में मुस्कुराते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
कुछ ' उपयोगी ' तलाशती नजरें ,
मन को भटकाती नजरें ।
खाली पेट , भरी दुकानें ,
भूख को सहलाती नजरें ।
घर का बोझ उठाते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
उम्मीद भरी निगाहें ,
अनगिनत हैं चाहें ।
राहों में भटकते ,
सुविधाओं को तरसते ।
घरौंदे बनाते कच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
दुनिया को समझते ,
सही - गलत परखते ।
छोटी उम्र में सूझ का ,
हिसाब लगाते पक्के ।
पर पढ़ने को तरसते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
परिस्थितियों के दलदल में ,
कमल की तरह खिलते ।
रोटी , कपड़े की फिक्र में ,
अरमानों को मसलते ,
संघर्षों की तपिश से मुरझाते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
😢😢 स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
सती ( कहानी )
कल एक विवाह समारोह में शिल्पी से अचानक मुलाकात हो गई । बहुत वर्षों के बाद मायके के किसी
परिचित से मुलाकात की प्रसन्नता ही कुछ और होती
है जो हम दोनों के मिलते ही आस-पास के लोगों पर
जाहिर हो गई थी । शिल्पी मुझे भिलाई में देखकर चकित थी - " दीदी , आप लोग यहाँ कब आ गए , मुझे
पता ही नहीं था ।" बस , इसी माह इनका ट्रांसफर हुआ ...तेरी शादी के बाद पहली बार तुझे देखकर बहुत खुशी हो रही है , और सुना ...कैसा है तेरा ससुराल? मैंने उसे नख - शिख तक सर्वांग निहारते हुए
पूछा । सदैव जीन्स - टॉप में झलनी सी घूमने वाली
शिल्पी सिर पर पल्लू लिये करीने से सुंदर साड़ी पहनी
हुई थी ..साड़ी से मैच करती हुई ज्वेलरी उसके रूप को
और अधिक निखार रही थी । आइये , आपको अपनी
फैमिली से मिलाती हूँ - उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने सास - ससुर , ननद व पति से मेरा परिचय कराया । कुछ पल की मुलाकात में ही यह महसूस हो गया कि
शिल्पी अपने नये परिवार में घुल - मिल गई है और बहुत खुश है ।
शिल्पी थी तो मेरी छोटी बहन निधि की सहेली , परन्तु मुझसे भी उसकी खूब जमती थी । पढ़ाई से लेकर सौंदर्य - समस्या तक प्रत्येक विषय पर वह मुझसे
खुलकर चर्चा करती । निधि कई बातें मुझसे छुपा जाती
परन्तु शिल्पी उसकी सारी पोल मेरे सामने खोल दिया
करती थी । निधि को एक बार परेशान देखकर मैंने शिल्पी को ही बुलाया था । कॉलेज के एक लड़के द्वारा
उसे परेशान करने की बात सुनकर हम उससे मिलने गए
थे और उस लड़के को खूब फटकार लगाकर आये थे ।
उसके बाद उसने फिर निधि को तंग नहीं किया, इसलिये निधि अब मुझसे कहीं अधिक खुलकर बातें करने लगी थी । अपनी छोटी बहन का विश्वास जीतकर
मेरा मन शिल्पी का एहसानमन्द हो गया था ।
मेरी शादी तय हो जाने पर वे दोनों मुझे खूब छेड़ती थीं । मेरे मंगेतर विकास का फोन आने पर दोनों
की इशारेबाजियाँ मन को गुदगुदा जाती थीं ...उनके काउंट डाउन करते - करते वह दिन भी आ गया जब
विवाहोपरांत मैं ससुराल आ गई । समय - चक्र के साथ
हमारा परिवार बढ़ा और मैं अपने नये परिवार में रम गई । शिल्पी से कभी - कभी फोन पर बातें होती थी ।
निधि के द्वारा मालूम हुआ कि शिल्पी की शादी की बात चल रही है परन्तु वह इसके लिए तैयार ही नहीं है ।
वह शादी नहीं करना चाहती थी... युवा मन सुनी - सुनाई बातों से अधिक प्रभावित होता है । पत्रिकाओं ,
टी. वी. सीरियल की पारिवारिक खलनायिकाओं ने उसे
भयभीत कर रखा था । दो - तीन असफल विवाह के
उदाहरण उसने अपने परिवार में देखे थे । वह कहती -
यदि पति चरित्रहीन या शराबी निकल गया तो मेरी तो
पूरी जिंदगी बर्बाद हो जायेगी । मैंने उसे बहुत समझाया
तो वह कहने लगी - " लड़कियों का जीवन तो एक जुआ होता है दीदी , यदि ससुराल व पति अच्छे मिले
तो जिंदगी गुलजार और यदि खराब हुए तो नर्क ...न बाबा न , मैं तो शादी ही नहीं करूँगी । "
" शिल्पी , सभी तेरी तरह सोचते तो परिवार , समाज ही नहीं बनते । कुछ न कुछ कमियाँ , खूबियाँ
तो हर इंसान में होती है । हमें कमियों से समझौता करके चलना पड़ता है । एक घर में पैदा हुए दो भाई - बहनों में मतभेद नहीं होते क्या ? पर वे समझौता करते
हुए परस्पर समन्वय करते हैं न , एक - दूसरे से प्यार भी करते हैं । रिश्तों के ताने - बाने इतने मजबूत होते
हैं कि छोटे - छोटे मतभेद उन्हें प्रभावित नहीं कर पाते ।
तू बेकार की चिंता में उलझी है , इतना अच्छा प्रस्ताव है , शादी कर ले । "
" शादी है ऐसा लड्डू..जो खाये वो पछताये जो न खाए वो ....निधि ने गाना शुरू किया और चिढ़कर शिल्पी उसे मारने दौड़ी ...। आज शिल्पी को इतनी खुश
देखकर मन को तसल्ली हुई और उसके बारे में अधिक
जानने की मेरी उत्कंठा बढ़ती गई ।
थोड़ी सी बारिश धरा की प्यास और अधिक बढ़ा देती है , उसी प्रकार उस छोटी सी मुलाकात ने मेरे मन
को अतृप्त कर दिया था । शीघ्र ही अच्छा सा दिन देखकर मैंने शिल्पी और शिखर को खाने पर बुला लिया । मेरे घर पर शिल्पी को मायके वाली फीलिंग हो रही
थी ,वह बेहद प्रसन्न थी । खाने की मेज पर आते ही वह
चिल्लाई - वाओ दी , आपने तो मेरी मनपसन्द सब्जी
बनाई है ...ग्रेट । शिखर भी उसकी इस हरकत पर मुस्कुराए बिना नहीं रह सका था । खाने के बाद शिखर
और विकास घूमने चले गये ...मैं और शिल्पी बिस्तर पर
लेटकर आराम करने लगे ..तभी मैंने उससे ससुराल व पति के बारे में पूछा ।
शिल्पी चहक उठी थी.. सब बहुत अच्छे हैं दीदी ।
माँ - पिताजी दोनों बहुत प्यार देते हैं मुझे ..किसी भी
काम में मुझे परेशानी होती है तो वे मेरा मार्गदर्शन करते
हैं , लगता ही नहीं कि किसी पराये घर में आई हूँ.. इतना
अपनापन , स्नेह...मैं भी कोशिश करती हूँ कि उन्हें सदैव खुश रखूँ ।
और हाँ वो तुम्हारी ननदें ... जो तुम्हें सपनों में भी
डराया करतीं थीं , उनका क्या हाल है ? मैंने उसे छेड़ते हुए पूछा । ननदों का व्यवहार भी बहुत सहयोगपूर्ण व
स्नेहिल है । सिर्फ मेरे घर में ही नहीं, इस परिवार के अन्य भाइयों यानी कि चाचा , बड़े पापा की बहुओं को
भी उतना ही सम्मान व प्यार मिलता है जितना यहाँ की
बेटियों को । कहीं कोई कटुता , द्वेषभाव या नाराजगी
नहीं है ...परन्तु इन सब के पीछे एक कहानी है , सुनेंगी
आप ?
" हाँ हाँ बिल्कुल ! मैं तो बेताब हूँ उस बात को जानने के लिए जिसने घर में आने वाली एक पराई लड़की को अपना बना लिया । जहाँ हर दूसरे घर में सास - बहू और ननद - भाभी के झगड़ों के किस्से सुनने
मिलते हैं वहाँ तुम्हारा परिवार अपवाद है बल्कि कहे
तो एक आदर्श परिवार है ।
दीदी , वर्षों पहले की बात है ...अपनी कलहकारी
ननदों के अत्याचार से त्रस्त होकर इस परिवार की एक
बहु ने रसोईघर में आत्मदाह कर लिया था । उसके बाद उनका शाप कहिये या दैविक संयोग कि यहाँ कोई
बेटी पैदा ही नहीं हुई । कुछ बेटियों ने जन्म लिया भी तो
अधिक दिन जीवित नहीं रहीं । कई पीढ़ियों बाद घर के
बुजुर्गों ने उन ' सती ' की आराधना करने की राह सुझाई
उसके बाद प्रमुख त्योहारों में उनकी पूजा होने लगी ।उसके बाद ही बेटियों का जन्म हुआ और वे सुरक्षित भी बचीं । तब से " सती " माँ की पूजा नियम से की जाती है । इस विशेष पूजा को रसोई में ही किया जाता
है और बेटियों का प्रवेश निषिद्ध रहता है , न ही वे पूजन
में भाग लेती हैं न इसका प्रसाद खाती हैं । दीदी , मैं
धार्मिक कर्मकांडों में विश्वास नहीं रखती परन्तु इस
आस्था को देखकर मैं नत - मस्तक हो गई हूँ क्योंकि
उनके बलिदान ने इस खानदान में बहुओं को स्नेह व
सम्मान दिलाया ।
शिल्पी की श्रद्धा उसकी आँखों में छलक रही थी और मैं भी भावाभिभूत हो गई थी यह दास्तान सुनकर ।
एक स्त्री के बलिदान ने या कहें कि बेटी के अभाव ने कई लोगों को कन्या रत्न के मान - सम्मान का सबक सिखा दिया ...किन्तु कई परिवारों में आज भी स्त्री का अनादर , उन पर अत्याचार हो रहे हैं ...कन्याभ्रूण को
कोख में ही मार डाला जा रहा है ...काश ! माँ सती उन्हें
भी कुछ सद्बुद्धि दे देतीं ।
******* ***** ******स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़