झोपड़ियों में पलते ,
अभावों के संग बढ़ते ।
भाई - बहन सम्भालते ,
बचपन को तरसते ।
दर्द में मुस्कुराते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
कुछ ' उपयोगी ' तलाशती नजरें ,
मन को भटकाती नजरें ।
खाली पेट , भरी दुकानें ,
भूख को सहलाती नजरें ।
घर का बोझ उठाते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
उम्मीद भरी निगाहें ,
अनगिनत हैं चाहें ।
राहों में भटकते ,
सुविधाओं को तरसते ।
घरौंदे बनाते कच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
दुनिया को समझते ,
सही - गलत परखते ।
छोटी उम्र में सूझ का ,
हिसाब लगाते पक्के ।
पर पढ़ने को तरसते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
परिस्थितियों के दलदल में ,
कमल की तरह खिलते ।
रोटी , कपड़े की फिक्र में ,
अरमानों को मसलते ,
संघर्षों की तपिश से मुरझाते बच्चे ।।
काम पर जाते बच्चे ।।
😢😢 स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
No comments:
Post a Comment