Saturday, 28 July 2018

चोरी और सीनाजोरी

रिश्वतखोर आर. टी. ओ. साहब की पत्नी अक्सर अपने ऐश्वर्य , वैभव का बखान करते रहती है । उनके पति रिश्वत लेते हैं , इस बात की कोई शर्मिंदगी नहीं..इसे कहते हैं चोरी और सीनाजोरी ।
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लगातार दूसरी बार सरपंच के पद पर निर्वाचित उमाबाई ने अपने बेटे को सीमेंट  , छड़ की दुकान खुलवा दी है... गाँव की सड़क , पंचायत भवन इत्यादि सरकारी निर्माण कार्यों का ठेका भी दिलवा दिया । छोटा सा घर बंगला बन गया है , बड़ी गाड़ी भी खरीद ली है... और बड़े शान से कहती है मैंने गाँव का विकास कर दिया...इसे कहते हैं चोरी और सीनाजोरी ।
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दिन भर के थके  मान्दे  मंगलू ने आखिरी सवारी को उसके मंजिल तक पहुँचा कर अपना किराया माँगा... दबंग सवारी ने पैसे तो दिए नहीं उल्टे दो हाथ जड़ दिये.. साले रिक्शा चलाने वाले...मुझसे पैसे माँगता है..औकात देखी है अपनी...इसे कहते हैं चोरी और सीनाजोरी ।
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नेताजी सभाओं में नारी मुक्ति पर खूब भाषण देते हैं ...उनके कल्याण की बड़ी बड़ी बातें करते हैं , पर घर की औरतों को खुलकर बोलने की भी आजादी नहीं देते
...इसे कहते हैं चोरी और सीनाजोरी ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 23 July 2018

बदलाव ( लघुकथा )

उन्हें  हड़ताल करते  पच्चीस दिन हो गए थे...पिछले माह तो तनख्वाह मिली  नहीं थी ...इस बार मिलने का सवाल ही नहीं था ...वैसे भी कमाओ खाओ वाली स्थिति रहती है... कोई जमापूंजी तो है नहीं कि उससे काम चलाते । पत्नी , बच्चों का बेहाल चेहरा उन्हें कमजोर कर रहा था ...बेबसी तोड़ रही थी उनकी हिम्मत । सभी जानते थे अभी नहीं तो कभी नहीं...इस बार वेतन नहीं बढ़ा तो फिर कभी नहीं बढ़ेगा । बढ़ती महंगाई में वेतन बढ़ाने की आवश्यकता हर कोई समझ रहा था पर प्रबंधन नहीं । वे जानते थे भूख जल्दी ही यह हड़ताल तोड़ देगी इसलिए उनके बिना शर्त वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे ।
        पुरुषों की टूटती हिम्मत देखकर सावित्री आगे आई थी... सबसे पहले उसने अपना मंगलसूत्र निकालकर रख दिया और कहा - आप लोग हिम्मत मत हारिये ...हम व्यवस्था करेंगे खाने पीने की...  फिर और भी महिलाएं आगे आई ...बारी बारी अपने जेवर गिरवी रखकर..सड़कों पर घूमकर मदद माँगेगे... लोग जरूर साथ देंगे क्योंकि हम गलत नहीं है... अपने परिवार के पालन - पोषण के लिए बढ़ती महंगाई के साथ वेतन बढ़ाने की माँग करना कोई गलत काम नहीं है  । नारी शक्ति के सहयोग ने एक नई जान फूँक दी थी आंदोलन में... कल तक कमजोर पड़ रहा आंदोलन और मुखर हो उठा था...परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई थी... और प्रबंधन के विचार भी । उन्होंने बदलाव को महसूस कर लिया था और उनकी वेतनवृद्धि की माँग मान ली  थी ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 16 July 2018

अविस्मरणीय पल ( संस्मरण )

अविस्मरणीय  पल
वैसे  तो जीवन के कई पल अविस्मरणीय हैं फिर भी उनमें से सर्वश्रेष्ठ चुनने कहा जाये तो मुझे सन 1997 की बात याद आती है जब बीमारी की वजह से माँ का आकस्मिक निधन हो गया था । पच्चीस वर्ष की उम्र में माँ को खोना अपूरणीय क्षति होती है किंतु मेरे परिवार के सदस्यों ने मेरे जीवन में आई इस कमी को भरने की भरपूर कोशिश की । जिस प्रकार शिलाखण्ड के टूटने पर  बने खाली स्थान को भरने के लिए चारों तरफ से अथाह जलराशि  दौड़ पड़ती है उसी प्रकार सभी तरफ से मुझ पर स्नेह की वर्षा हुई । सास ने अपनी ममता का आँचल मुझ पर तान दिया तो ससुर जी ने भी  खूब प्यार दिया । तीजा पर लेने आये मेरे पापा से उन्होंने कहा कि दीक्षा अब तीजा यहाँ अपनी माँ के साथ मनायेगी , उस समय मेरे भाइयों की शादी नहीं हुई थी घर पर कोई महिला नहीं थी । पतिदेव ने मुझे अपनी  बाहों में भरकर कहा-- माँ से मायका होता है , तुम्हारी माँ नहीं रही तो आज से यही तुम्हारा मायका है । मैं तुम्हें उनकी कमी कभी महसूस करने नहीं दूँगा ...उन्होंने अपना वादा निभाया..जब - जब मुझे भावनात्मक  सहारे की आवश्यकता हुई  वे मेरे सम्बल बने  । बड़े भाई ने हमेशा अभिभावक की भूमिका निभाई... बरगद की छाँव की तरह हम दोनों छोटे भाई - बहन को उन्होंने अपने स्नेह की छाया में रखा । मामा और मामी ने भी  भरपूर प्यार दिया  । माँ बनते समय ही एक बेटी को  माँ की सबसे अधिक  जरूरत होती है , उस वक्त मेरी सास , ननद व जेठानी ने मुझे जो प्यार ,सहयोग  दिया , मेरी  देखभाल की वो मेरे लिए बहुमूल्य क्षण हैं । अपनों के प्यार के साथ हम हर कठिन परिस्थिति से बाहर निकल सकते हैं , मैंने यही सीखा । वे मेरे जीवन के अविस्मरणीय पल हैं जो मुझे भुलाये नहीं भूलते , न ही मैं इन्हें भूलना चाहती हूँ क्योंकि ये पल मुझे नित नई ऊर्जा प्रदान करते हैं ...जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 13 July 2018

सफर ( कहानी )

वो  उन्नीस घण्टे ट्रेन का सफर उनके जीवन में एक नई रोशनी लेकर आया था...उनके छीजते रिश्तों  को एक नया मोड़ दे गया था वह सफर..उनकी बेरंग होती जिंदगी फिर से खुशनुमा रंगों से सराबोर हो गई थी । रश्मि और शशांक अपने वैवाहिक जीवन के तेरहवें वर्ष में प्रवेश कर रहे थे । काम की व्यस्तता कहें या अपने कैरियर के प्रति अति जागरूकता... वजह कुछ भी हो पर वे दोनों एक दूसरे से दूर हो रहे थे । बेटे यश की जरूरतें उन्हें जोड़े रखती थीं पर उसकी दादी की सजग देखभाल ने पति - पत्नी दोनों को  कुछ बेपरवाह सा बना दिया था । माँ चाहती थी कि दोनों यश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझें...दादी से कितना भी प्यार हो पर  वह मम्मी - पापा की जगह नहीं ले सकती  पर वे अपनी नौकरी में ऐसे लगे हुए थे कि बढ़ते बच्चे की भावनाओं से उदासीन हो रहे थे और एक - दूसरे के लिए भी समय नहीं निकाल पा रहे थे । उनके जीवन के खूबसूरत पल यूँ ही जाया हो रहे थे और उन्हें इसका एहसास भी नहीं हो रहा था ।  उस दिन जब यश ने शिकायत की न जाने कितने वर्षों से हम कहीं पिकनिक पर नहीं गए  तो वे  सन्न रह गये थे...सच ही तो कह रहा था यश...उन्हें याद ही नहीं रहा कि वे कब साथ घूमने निकले थे । पर इस बार माँ ने उन्हें साथ भेजने का रास्ता ढूंढ निकाला था...गाँव की एक जमीन उन दोनों के नाम थी जिसे बेचने के लिए दोनों को साथ जाना जरूरी था...बड़ी मुश्किल से दोनों का प्लान बना और वे इस सफर पर निकले थे । यश को दादी ने अपने साथ ही रख लिया था । कुछ समय  वे अपने - अपने फोन पर लगे रहे....पर आखिर कब तक ... फिर वे बातें करने
लगे  ...अपने काम की ...सहकर्मियों की...फिर बीते पलों की .... वर्षों बाद उन्हे फुर्सत मिली थी  अपनी स्मृतियों को खंगालने की....वो खूबसूरत पल , रूमानी लम्हे जो परिस्थितियों की गर्द में छुप गये थे ...इस सुहाने सफर ने उन्हें  उभार दिया था । शशांक याद कर रहा था हनीमून के लिए जब वे पचमढ़ी गये थे तो रश्मि चल - चल कर थक जाती थी और उसके पैरों पर क्रीम मलते हुए शशांक  शरारती  हो उठता था...उन बातों को याद कर रश्मि के गाल संकोच से आज भी लाल हो रहे थे । रश्मि ने अपने फोन में यश के बचपन की कुछ बेहद खूबसूरत तस्वीरें  खीँच  रखी थी...वे दोनों मंत्रमुग्ध हो उन्हें देखते रहे...इतनी देर तक दूर - दूर बैठे वे इसी बहाने करीब आ गये थे...कब रश्मि ने अपना सिर शशांक के कंधे पर रख दिया था पता  ही नहीं चला । अतीत की स्मृतियों की मधुरता में उनका वर्तमान  भीग गया था... आते और जाते हुए  उन्होंने ढेर सारी बातें की....साथ बिताए पलों की , अपने ख्वाबों की , दिल में पल रहे हजारों हसरतों की...उन कल्पनाओं की जिन्हें साकार करने का निश्चय किया था कभी...कैसे भूल गए वे दोनों....पता नहीं कब उनके रास्ते अलग हो गए और वे हम से मैं बन गये । उन  दोनों  ने जीवन की राह में साथ चलने का निर्णय लिया था  , दोनों की मंजिल एक थी फिर  वे  पता नहीं कब भटक गए ...बारिश  की रिमझिम फुहार  पत्तों - पत्तों को नहला जाती है और समस्त प्रकृति एक नए कलेवर में सजी नजर आती है वैसे ही उनकी जिंदगी को एक नया कलेवर मिल गया था , यादों की फुहार में भीगकर मानो वे दोनों भी तरोताजा हो गए थे और बीती बातों को भूलकर  एक नई ऊर्जा व उत्साह से जीवन की दूसरी पारी खेलने को तैयार हो गए थे ।  उनका गन्तव्य आ गया था...उन्होंने अपने गाँव  से रायपुर तक का नहीं अपितु भूले - बिसरे अतीत की यादों से वर्तमान तक  का सफर तय किया था ...एक - दूसरे के हाथों को मजबूती से थामे वे बढ़ने लगे...उनके चेहरों पर  यात्रा की थकान नहीं , एक मधुर मुस्कान थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 11 July 2018

रिश्ते

रिश्ते...जरूरतों की खुराक पर पलते ,
सामंजस्य और प्रेम की धरा पर टिकते ।
परिचय को प्रगाढ़ता में बदलते ,
रक्त सम्बन्धों को कसौटी पर कसते ।
रिश्ते...कभी स्वार्थ की तुला पर तुलते ,
कभी निःस्वार्थ  सेवा समर्पण  करते ।
कभी कोई इनके नाम पर छलते ,
कभी  अनजान मददगारों से रिश्ते जुड़ते ।
रिश्ते...सुख - दुःख में साथी बनते ,
स्नेह , आशीष की बारिश में  भिगोते  ।
विपत्तियों  की धूप से बचाते ,
उम्मीदों की रोशनी में नहलाते ।
रिश्ते...गर्मी की उमस में राहतों के झोंके ,
मरुभूमि में  बारिशों की ख्वाहिशें  ।
तूफानों में मजबूत छत  से भरोसे ,
बीमारी में दवा - दुआओं के सदके  ।
रिश्ते...खुदा की अनमोल नेमतें ,
मन में सीप की मोती से पलते ।
त्यौहारों की इनसे है रौनकें ,
इन धरोहरों को प्यार से सहेजें ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़