Monday, 16 July 2018

अविस्मरणीय पल ( संस्मरण )

अविस्मरणीय  पल
वैसे  तो जीवन के कई पल अविस्मरणीय हैं फिर भी उनमें से सर्वश्रेष्ठ चुनने कहा जाये तो मुझे सन 1997 की बात याद आती है जब बीमारी की वजह से माँ का आकस्मिक निधन हो गया था । पच्चीस वर्ष की उम्र में माँ को खोना अपूरणीय क्षति होती है किंतु मेरे परिवार के सदस्यों ने मेरे जीवन में आई इस कमी को भरने की भरपूर कोशिश की । जिस प्रकार शिलाखण्ड के टूटने पर  बने खाली स्थान को भरने के लिए चारों तरफ से अथाह जलराशि  दौड़ पड़ती है उसी प्रकार सभी तरफ से मुझ पर स्नेह की वर्षा हुई । सास ने अपनी ममता का आँचल मुझ पर तान दिया तो ससुर जी ने भी  खूब प्यार दिया । तीजा पर लेने आये मेरे पापा से उन्होंने कहा कि दीक्षा अब तीजा यहाँ अपनी माँ के साथ मनायेगी , उस समय मेरे भाइयों की शादी नहीं हुई थी घर पर कोई महिला नहीं थी । पतिदेव ने मुझे अपनी  बाहों में भरकर कहा-- माँ से मायका होता है , तुम्हारी माँ नहीं रही तो आज से यही तुम्हारा मायका है । मैं तुम्हें उनकी कमी कभी महसूस करने नहीं दूँगा ...उन्होंने अपना वादा निभाया..जब - जब मुझे भावनात्मक  सहारे की आवश्यकता हुई  वे मेरे सम्बल बने  । बड़े भाई ने हमेशा अभिभावक की भूमिका निभाई... बरगद की छाँव की तरह हम दोनों छोटे भाई - बहन को उन्होंने अपने स्नेह की छाया में रखा । मामा और मामी ने भी  भरपूर प्यार दिया  । माँ बनते समय ही एक बेटी को  माँ की सबसे अधिक  जरूरत होती है , उस वक्त मेरी सास , ननद व जेठानी ने मुझे जो प्यार ,सहयोग  दिया , मेरी  देखभाल की वो मेरे लिए बहुमूल्य क्षण हैं । अपनों के प्यार के साथ हम हर कठिन परिस्थिति से बाहर निकल सकते हैं , मैंने यही सीखा । वे मेरे जीवन के अविस्मरणीय पल हैं जो मुझे भुलाये नहीं भूलते , न ही मैं इन्हें भूलना चाहती हूँ क्योंकि ये पल मुझे नित नई ऊर्जा प्रदान करते हैं ...जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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