Monday, 10 September 2018

तीज और हमसफ़र ( लघुकथा )

  रीमा तीज पर्व पर अपने मायके आई हुई थी । दीदी , भाभी और माँ के  साथ यह त्यौहार अनूठा लगता है । नई साड़ी की मैचिंग चूड़ियाँ , आभूषण , बिंदी ढूँढने में दो दिन कैसे गुजर गये , पता ही नहीं चला । फिर भी दो चार बार पतिदेव जी से बातें तो हो ही जाती थी खासकर नाश्ते  और खाने के समय क्योंकि इस पल राज को उसकी याद तो आनी ही थी....  ये पल आपसी छेड़छाड़ के साथ  बड़े  रोमानी हुआ करते  थे । अभी दो वर्ष ही तो हुए थे उनकी शादी को ...अभी भी जेठानियाँ और ननदें लव बर्ड्स कहती थीं उन दोनों को...उनकी जोड़ी थी भी बड़ी प्यारी ।
        आज तीज का व्रत था...राज के फोन का इंतजार करते सुबह से शाम हो आई पर .....उन्हें कहाँ सुध है मेरी , एक तो उनकी लम्बी उम्र के लिए मैं भूखी - प्यासी बैठी हूँ पर ये नहीं कि जनाब एक फोन कर लें । मैं ही करूँ तो बात करेंगे ...रात तक रीमा का फूल सा खूबसूरत चेहरा कुम्हला गया था । भूख की अपेक्षा पति की उपेक्षा उसे पीड़ा पहुँचा रही थी , उदासी उसके चेहरे को मलीन बना रही थी ।  रात को आठ बजे माँ ने  उसे आवाज लगाई- रीमा , बेटा चलो तैयार हो जाओ...पूजा की सब तैयारी हो गई है । बेमन से तैयार होकर जब रीमा ड्राइंग रूम में आई तो सब उसे ही देखने लगे थे....रीमा को ऐसा लगा मानो उसकी  चोरी पकड़ी गई हो...कहीं मेरे चेहरे ने मन का हाल तो नहीं कह दिया..उसकी आँखें डबडबा आई थी...तभी....भैया के पीछे से एक चेहरा झाँका.. राज का ...हाथों में उपहार लिए राज पूरी तरह उसके सामने आ गए थे पर रीमा को वह सब एक स्वप्न की तरह लग रहा था । अपनी स्वप्निल दुनिया से जब वह यथार्थ में लौटी तो उसके सब्र का बाँध  टूट  गया और वह जोर से रो पड़ी ...सबने उसे उसके पति राज के साथ अकेले छोड़ दिया और वह अपने प्रियतम  के आगोश में   खो गई थी  ... उसके उलाहने , हृदय की पीड़ा  आँखों से  बह निकली थी  , होंठ चुप थे पर आँसुओं ने  बिना कुछ कहे ही उसके दिल का सब हाल  कह दिया था । बिना पूजन के ही उसे अपने व्रत का  मनवांछित फल  मिल गया था ।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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