Tuesday, 9 October 2018

*** आज फिर मुस्कुराने चली हूँ ***

उदासियों के अंधेरे  को मिटाने
उम्मीद का दीपक जलाने चली हूँ.. ,
स्नेह  से दर्द का मोल चुकाकर ,
आज फिर  मुस्कुराने चली  हूँ...
बात - बेबात रूठे जो रिश्ते ,
उन अपनों को मनाने चली  हूँ...
बिना देखरेख हो गए खण्डहर ,
बिगड़ी बातें अब बनाने चली  हूँ...
हार न जाये चाँद अमावस  से ,
आस का सूरज उगाने चली  हूँ....
निगल जाये न कहीं मौत का दानव ,
जिंदगी को सार्थक बनाने चली हूँ....
हकीकत बयान न कर दे आँखें ,
इसलिये तो खिलखिलाने चली हूँ...
खुशियों के साये में गम को छुपाकर ,
किस्मत को  आजमाने चली हूँ....
जिंदादिली से जीना सिखाकर ,
मौत को भी  चिढ़ाने  चली हूँ....
आज फिर मुस्कुराने चली हूँ...☺️☺️

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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