मुझे लिखने में देर हो गई पर इस घटना से एक सीख मिलती है इसलिए इसका जिक्र कर रही हूँ । आज से दो वर्ष पूर्व की घटना है । हम लोग सपरिवार दुर्ग से बिलासपुर जा रहे थे , जिस ट्रेन से हमें जाना था वह लगभग दो घण्टे लेट हो गई और उसके बाद आने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी । पतिदेव टीटीई से बात कर रहे थे , बच्चे भी उन्हीं के साथ थे , सीट कन्फर्म होने पर उन्होंने मुझे फोन किया कि मैं जहाँ पर खड़ी थी वहीं से ट्रेन में चढ़ जाऊँ क्योंकि वे मुझसे काफी दूरी पर थे और ट्रेन छूटने लगी थी । पति और बच्चों को ट्रेन में चढ़ते देखकर मैं हड़बड़ा गई कि कहीं छूट न जाऊँ ...मेरे .एक हाथ में बैग और दूसरे हाथ में मोबाइल..जल्दबाजी में मोबाइल पकड़े हुए ट्रेन के डिब्बे का हैंडल पकड़ा...परन्तु मेरे चढ़ते ही ट्रेन छूट पड़ी..झटके के कारण मेरा हाथ छूटने ही वाला था कि अप्रत्याशित रूप से डिब्बे में खड़े किसी व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे ऊपर खींच लिया...मैं कुछ पल के लिए चेतना शून्य की स्थिति में आ गई थी क्योंकि मुझे महसूस हुआ था कि अब तो मैं गई...लगा जैसे मौत से साक्षात्कार हो गया हो । अगले स्टेशन में पति और बच्चे मिल गए और सीट भी .. एक बड़ा हादसा टल गया था पर उसका डर मुझे अब भी सताता है और मैंने चलती ट्रेन में कभी भी नहीं चढ़ने की कसम खा ली है । आनन - फानन में ट्रेन बदलने का निर्णय लेने के लिए पतिदेव से मेरी नाराजगी बनी रही और बिलासपुर पहुँचने तक मैंने उनसे बात नहीं की । आप सभी से अनुरोध है कि किसी भी परिस्थिति में अपनी जान को खतरे में न डालें ...जीवन बहुमूल्य है अपने लिए भी... अपनों के लिए भी ।
डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Friday, 26 October 2018
अप्रत्याशित घटना ( संस्मरण )
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