Thursday, 29 November 2018

उसकी साड़ी ( लघुकथा )

ये औरतें भी ना ! बड़ी अजीब होती हैं... अपने पास कितनी भी अच्छी साड़ियाँ हों , उन्हें दूसरों की साड़ी ही अच्छी लगती है । विभा  भी  उनमें से ही एक थी , आज की पार्टी की कितनी तैयारी की थी उसने...पर स्वधा को देखते ही उसका कॉन्फिडेंस हिल गया..ओह! उसने आज नीली कांजीवरम पहनी थी सुनहरे बॉर्डर वाली...कितनी सुन्दर लग रही थी । बहुत देर दूर से ही घूरती रही उसे , फिर  उससे रहा नहीं गया...उसके पास जाकर पूछ ही लिया ...यह साड़ी कहाँ से  खरीदी तुमने
बेहद खूबसूरत है । पर जवाब में स्वधा ने जो कहा वह अप्रत्याशित था उसके लिये... अरे विभा , तुमने  कितने यूनिक कलर की साड़ी पहनी है आज...मुझे बहुत पसंद है कॉफी कलर...मैं तो कब से बस तुम्हीं को निहार रही हूँ । अच्छा ऐसा क्या...सुनकर गदगद हो गई विभा..लगा उसकी तैयारी सार्थक हो गई और कुछ देर के लिए उसकी खुशी का ठिकाना न रहा...देखा ...वाली गर्वीली आँखों से पति की तरफ देखने लगी ।  उसके पतिदेव सोच रहे थे ...जाने कब तक  बरकरार रहेगी यह खुशी ...शायद अगली खूबसूरत साड़ी दिखने तक ...भगवान जाने कितनी देर...☺️

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 25 November 2018

छुट्टी के मायने ( लघुकथा )

आज संडे है ....रेणु और राजीव  दोनों की छुट्टी  रहती है । आठ बजे सोकर उठे पतिदेव को चाय का कप थमाते हुए रेणु ने याद दिलाया..न्यूजपेपर  बेचना था जी , ढेर सारे हो गए हैं । आज नहीं जाऊंगा यार ...फिर कभी । नाश्ते के बाद सोने का दूसरा दौर और खाने के बाद तीसरी झपकी होने पर ही छुट्टी सार्थक लगती है राजीव को और रेणु... छुट्टी के मायने पुरुषों के लिए आराम और  महिलाओं , चाहे घरेलू हों या कामकाजी उनके लिए ढेर सारे  काम। । सुबह उठकर पूरे सप्ताह के कपड़े धोना , नाश्ता बनाना , सिंक , चिमनी , रसोई , बाथरूम की सफाई करना , फिर खाना बनाना इतने  सारे काम निपटा कर बिस्तर पर लेटी तो कमर दर्द के कारण  आह  निकल पड़ी । बिस्तर पर लेटते ही जैसे मच्छर आसपास घूमने लगते हैं वैसे ही पेंडिंग  काम याद आने लगते हैं.. ओह ! रात  के लिए सब्जी नहीं है..गेहूँ पिसवाना है और सूखे कपडे निकालने हैं.. उसने
कम्बल सिर के ऊपर तान लिया और आँखें बंद कर ली...मच्छरों से बचने के लिए या पेंडिंग कामों से ....।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , छत्तीसगढ़

Saturday, 24 November 2018

आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है

याद है तुम्हे वो दिन जब हम मिले थे ,
दिलों में प्रीत के सुरभित गुल खिले थे...
पतझड़ का  ज्यों हुआ अंत था ,
जीवन में फिर आया वसन्त था...
महका - महका सा  लगे पवन ,
बहका - बहका  मदमस्त यौवन...
चारों तरफ यूँ  बहार  छाई थी ,
ख्वाहिशें मिलन की प्यार ले आई थी ...
पाया था तुम्हारा खूबसूरत साथ  ,
आँचल भर लाया खुशियों की सौगात...
उमंगों की बदली मन में छाई थी ,
खुशियों की रिमझिम बरसात ले आई थी....
खिली हर कली तितली हँसी थी ,
भँवरों की जान फूलों पर अटकी थी...
अंधेरी रातों में चाँदनी मुस्काई थी ,
जिंदगी जीने की एक नई वजह पाई थी...
क्यों भूल गए तुम वो वादे मोहब्बत के ,
धूमिल  क्यों  हो गए वो अफ़साने चाहत के...
दुनिया के रस्मो - रिवाजों ने
दिलों में दूरियाँ पैदा कर दी हैं...
पतझड़ ने गिरा दिये सारे पत्ते  ,
सुर्ख लाल फूलों ने शाखें ढक दी हैं...
वसन्त के  आगमन को ,
आज गुलमोहर ने फिर अर्जी दी है...
बहारों  की ऋतु ने ही नहीं ,
एहसासों ने भी दिलों पर दस्तक दी है...

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 17 November 2018

जीवन ऐसे जिया तो


क्या पाया सताकर  लोगों को ,
सुख - चैन सब खो गया ।
भर ली तिजोरी  धन  से
पर मन  तो रीता  रह गया ।
छल कर जीत ली दुनिया
दिलों को जीत न पाया ।
महल हो गई कुटिया
मन भर क्या रह पाया ।
अपना ईमान बेचकर
ऐशो आराम खरीद लिया ।
स्वाभिमान को मारकर
मान - सम्मान कमा पाया ।
जीवन ऐसे जिया तो
मानव  जन्म अधूरा लगता है।
साथ नहीं कुछ जायेगा
देह  कुविचारों का घूरा लगता है
झूठ , बेईमानी  , अहंकार भरा यह
श्मशान घाट की  ठंडी राख का चूरा लगता है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 13 November 2018

छठ पर्व

प्रतियोगिता 31
छठ पर्व
प्रकृति और मानव के अटूट रिश्तों का पर्व है यह...मनुष्य प्रकृति के उपादानों पर निर्भर है... उसके हर क्रियाकलाप चाँद , सूरज , अम्बर , धरा , पेड़ - पौधे , अग्नि ,पवन , जल  इत्यादि  के आस - पास ही घटित होते हैं । प्रकृति और मनुष्य एक - दूसरे के पूरक हैं और प्रकृति के संरक्षण के द्वारा ही मनुष्य अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकता है । हमारी परम्पराएं हमें प्रकृति से जोड़ती हैं  हमारे संस्कार हमें उनका आदर करना सिखाते हैं । छठ पर्व भी उनमें से एक है जब मनुष्य अपने परिवार की सुख समृद्धि के लिये सूर्य देव की शरण में जाता है । छठ देवी सूर्य की बहन है और पौराणिक कथाओं में सन्तान की सुरक्षा , स्वास्थ्य हेतु उनकी आराधना का विधान है ।
     छठ पर्व  का प्रारंभ शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को होता है जिसे नहाय खाय का दिन कहा जाता है...उपवास करने वाली स्त्रियाँ नदी या तालाब में स्नान कर अपने तन और मन को शुद्ध करती हैं  और दाल चावल का भोजन करती हैं.. पंचमी तिथि को निर्जला व्रत करती हैं जिसे खरना कहा जाता है.. तीसरे दिन षष्ठी को नदी के घाट पर जाकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य देकर अपने पूजन को पूर्णता प्रदान  करती  हैं... चौथे दिन सप्तमी तिथि को उगते सूर्य के पूजन के पश्चात केला , सेब व गन्ने का भोग -  प्रसादी ग्रहण करती हैं । इस पूरे व्रत की विधि में शुद्धता व पवित्रता पर बल दिया जाता है , इसके प्रसाद को बहुत सावधानी से , अपने हाथों से सफाई के साथ तैयार किया जाता है । अपनी संतान की रक्षा , परिवार की सुख समृद्धि  की  मंगल कामना करते हुए महिलाएं छठी देवी की प्रार्थना करती हैं , मंगल गीत गाते हुए व्रत करती हैं और तन मन की पवित्रता के साथ , श्रद्धा पूर्ण वातावरण में पूजन विधि को सम्पन्न करती हैं ।

छठ मैया करना अमर सुहाग..
तोहरे दरस से जागे भाग...
सुख - समृद्धि से भरे अंगना..
बाढे  खेले मोर ललना ....
तोहरे कृपा से मिटे सन्ताप...
जग में सदा रहे पुण्य प्रताप..
सूर्यदेव अर्ध्य करो स्वीकार..
धन्य करो जिंदगी हमार..
दुख - दारिद्र्य मिटा देना...
सबको मनवांछित फल देना...
सदा अपनी शरण रखना..
भूल हमारी क्षमा करना...🙏🙏

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 8 November 2018

हर बार ( लघुकथा )

पिछले कई दिनों से दीपावली की तैयारी में जुटी प्रियल थककर चूर हो गई थी । सफाई है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती और हर बार कुछ न कुछ रह ही जाता है । इस बार प्रियल ने पूरे घर को जगमगाने की तैयारी की थी ...छुट्टियाँ लगने के बाद ही सही तरीके से काम हो पाता है , उसके पहले तो बस छोटे - मोटे काम होते रहते हैं । चलो इसी बहाने फालतू चीजें बाहर निकल जाती हैं और घर  साफ - सुथरा लगता है । दीपावली के दिन सुबह से लक्ष्मी जी के पूजन की तैयारियाँ करते- करते  प्रियल के हाथ -  पैर जवाब देने लगे थे । रात को दिये जलाने के बाद बड़ी हसरत से अपनी नई साड़ी के साथ पहनने के लिए खूब ढूँढ-ढूँढ कर खरीदी गई चूड़ियों और आभूषणों  की ओर देख रही थी पर  थके  हुए शरीर  ने  बिल्कुल साथ न दिया..और  जैसे - तैसे तैयार होकर उसने पूजा की । कोई न कोई कसर रह जाती है हर बार....सारे काम तो हो जाते हैं पर उसका अपना  ही  कुछ छूट जाता है ..न पार्लर जा पाई... न कहीं और... अच्छे से तैयार होने की साध तो पूरी नहीं  कर पाई ...पर  अपने चमकते - दमकते आशियाने को देखकर उसने संतोष भरी  राहत की  साँस ली और  दर्द भरी पिंडलियों में मालिश करने लगी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 4 November 2018

धन तेरस

काव्यमाला 17
विषय  - धन तेरस (फटीचर जेब )

हे धन्वन्तरि...
शुभागमन आपका
पावन दिवस , पावन बेला
शरद मनभावन , मन डोला ।
चहुँ ओर रौनक छाई
खुशियों की बेला आई ।
रंगोली से सजे घर - आँगन
तरंगित आबाल वृद्ध यौवन ।
जगमग दीपों की कतारें
श्रद्धा , स्नेह की पुकारें
वैभव  सुख  की दरकार
समृद्धि आये घर द्वार ।
किसी के पास सब कुछ
किसी की जेब खाली ।
हे ईश्वर ! कर दे ऐसा चमत्कार
किसी की फीकी न हो दिवाली ।
सम्पन्न हों या फटीचर जेब
सबको खुशियाँ भेज ।
सब तेरी ही सन्तान
दे सबको यश , मान सम्मान ।
भूखे पेट न सोये कोई
पाये जीवन का सुख हर कोई ।
है यही प्रार्थना तुझसे
सबके घर धन, सुख बरसे ।।

आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़