क्या पाया सताकर लोगों को ,
सुख - चैन सब खो गया ।
भर ली तिजोरी धन से
पर मन तो रीता रह गया ।
छल कर जीत ली दुनिया
दिलों को जीत न पाया ।
महल हो गई कुटिया
मन भर क्या रह पाया ।
अपना ईमान बेचकर
ऐशो आराम खरीद लिया ।
स्वाभिमान को मारकर
मान - सम्मान कमा पाया ।
जीवन ऐसे जिया तो
मानव जन्म अधूरा लगता है।
साथ नहीं कुछ जायेगा
देह कुविचारों का घूरा लगता है
झूठ , बेईमानी , अहंकार भरा यह
श्मशान घाट की ठंडी राख का चूरा लगता है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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