Saturday, 24 November 2018

आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है

याद है तुम्हे वो दिन जब हम मिले थे ,
दिलों में प्रीत के सुरभित गुल खिले थे...
पतझड़ का  ज्यों हुआ अंत था ,
जीवन में फिर आया वसन्त था...
महका - महका सा  लगे पवन ,
बहका - बहका  मदमस्त यौवन...
चारों तरफ यूँ  बहार  छाई थी ,
ख्वाहिशें मिलन की प्यार ले आई थी ...
पाया था तुम्हारा खूबसूरत साथ  ,
आँचल भर लाया खुशियों की सौगात...
उमंगों की बदली मन में छाई थी ,
खुशियों की रिमझिम बरसात ले आई थी....
खिली हर कली तितली हँसी थी ,
भँवरों की जान फूलों पर अटकी थी...
अंधेरी रातों में चाँदनी मुस्काई थी ,
जिंदगी जीने की एक नई वजह पाई थी...
क्यों भूल गए तुम वो वादे मोहब्बत के ,
धूमिल  क्यों  हो गए वो अफ़साने चाहत के...
दुनिया के रस्मो - रिवाजों ने
दिलों में दूरियाँ पैदा कर दी हैं...
पतझड़ ने गिरा दिये सारे पत्ते  ,
सुर्ख लाल फूलों ने शाखें ढक दी हैं...
वसन्त के  आगमन को ,
आज गुलमोहर ने फिर अर्जी दी है...
बहारों  की ऋतु ने ही नहीं ,
एहसासों ने भी दिलों पर दस्तक दी है...

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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