Saturday, 30 December 2017

खुल गई आँखें ( लघु कथा )

   अमीर माता - पिता का एकलौता बेटा सुभाष सुख - सुविधाओं में पला - बढ़ा था....उसे किसी बात की तकलीफ नहीं थी न ही कोई चिंता । वह बेफिक्री से जीवन बिताए जा रहा था , पर अब उसके पिता चाहते थे
कि वह अपने व्यापार की ओर ध्यान दे । उन्होंने सुभाष से इस बारे में बात की....उसने इंकार तो नहीं किया परन्तु कोई रुचि भी नहीं दिखाई ।
         सुभाष की  मित्र - मंडली भी बहुत बड़ी थी ....होती भी क्यों नहीं ...बड़े बाप का इकलौता बेटा उन पर रूपये खर्च करने में कोई कमी नहीं करता था । कुछ समय पश्चात एक दिन पिता जी बड़े उदास बैठे थे...कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि व्यापार में उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ा है और कर्ज चुकाने के लिए अपनी कुछ जमीन उन्हें बेचनी पड़ेगी । सुनकर हतप्रभ रह गया था सुभाष ....कभी किसी बात के लिए अभी तक समझौता नहीं किया था, विलासिता की आदत लगी हुई थी.....जिन दोस्तों पर बेतहाशा खर्च किया था वे किसी न किसी बहाने खिसक लिए । अब उसे सही - गलत की  पहचान हो गई थी , उसके कुछ दोस्त मुसीबत की घड़ी में उसके साथ खड़े थे ।सुभाष अब दुनिया को एक दूसरी नजर से देख रहा था । उसने अपनी आदतों में
भी बदलाव कर लिया था.....फालतू खर्च करना बंद कर दिया था तथा माता - पिता की परवाह करने लगा था । एक दिन खाना खाते हुए उसने पिता को बताया कि उसने
एक जगह नौकरी की बात की है , क्या वह वहाँ काम कर सकता है ? उसके व्यवहार में इतना अधिक बदलाव देख माँ की आँखों से आँसू बहने लगे और पिता ने उसे अपने गले से लगा लिया था । नहीं बेटे , तुम्हें कहीं भी नौकरी करने जाने की कोई जरूरत नहीं है । हमारा व्यवसाय बहुत बढ़िया चल रहा है...कहीं कोई नुकसान नहीं हुआ वो तो तुम्हें जीवन का दूसरा  पहलू दिखाने के लिए मैंने यह नाटक किया था....मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए । विपरीत परिस्थितियों में हमें अच्छे - बुरे की पहचान होती है , अपने आप पर विश्वास बढ़ता है और सच्चे मित्र की पहचान होती है ....सच कहूँ तो कठिनाइयाँ गुरू की तरह जीने की सही राह दिखाती हैं। हाँ पिताजी , आपने मेरी आँखें खोल दी ....कहते हुए सुभाष अपने पिता के गले लग गया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

No comments:

Post a Comment