Sunday, 3 December 2017

अधूरी खोज ( कहानी )

          यह कहानी उन पुरानी कहानियों की तरह नहीं
है जिसमें लड़की के जन्म पर मातम छा जाता है । यह
आज की कहानी है इसमें एक लड़की का जन्म एक
सुशिक्षित , सुसंस्कृत और कुलीन खानदान में हुआ..
उसके जन्म पर ढोल भी बजे , पटाखे छूटे और मिठाइयां भी बांटी गई । समझदार माता - पिता ने
वंश - परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए बेटे की जरूरत
ही नहीं समझी और अपनी एकमात्र बेटी किशोरी को
अपने जीने का सहारा व जीवन का उद्देश्य बना लिया।
            किशोरी ने कभी जाना ही नहीं लड़के और
लड़की के भेद को....कभी  माता - पिता ने टोका जो
नहीं कि यह काम लड़कों का है ऐसा न करो...वैसा न
करो , यहाँ न जाओ ... वहाँ  मत रुको ...माता - पिता
का स्नेह , प्रेरणा और सुविधाएँ मिलीं...शिक्षा , खेल , कला हर क्षेत्र में पारंगत होती गई ।
           स्कूल में अपनी सहेलियों की गतिविधियां देखकर किशोरी उन पर हँसती , उनकी झिझकने ,
सिमटने और अपने - आपको तुच्छ समझने की भावना
का वह विरोध करती । उनसे कहती - " अरे ! लड़की
होना कोई गुनाह नहीं है ,तुम तो ऐसे डरकर रहती हो
जैसे तुमने लड़की होकर कोई गलती की है क्योंकि उसने तो कभी देखा ही नहीं था ...अपनी सहेलियों रमा,
विमला व जया के घर जाकर कि उनके घर में उनकी क्या दशा है । माता - पिता और भाई की बन्दिशों के
बीच उनका बचपन गुजरा है....लड़के और लड़की में
बहुत फर्क होता है ,   भाई तो वंश को आगे बढाते हैं
इसलिए उन्हें अच्छे खाने की  जरूरत  है , उन्हें बाहर घूमने की स्वतंत्रता है लेकिन तुम लड़की हो , अपनी सीमा में रहो...उन्हें तो घुट्टी में घोलकर लड़की के मर्यादित होने के नियम और सलीके पिलाये गए हैं , उन्होंने बचपन से ही यह जान लिया कि  उन्हें पराये घर
जाना है , पति  परमेश्वर  होता है चाहे वह अपनी पत्नी
के साथ कैसा भी बर्ताव  करे ....उसे प्यार से रखे या
मारपीट करे... लड़कियों को सहनशील  होना चाहिए
इत्यादि ..इत्यादि.... किशोरी तो इन सब  बातों से अनजान थी।
        उसके पालकों ने उसे यह सब नहीं बताया था बल्कि देश की वीरांगनाओं रानी दुर्गावती , लक्ष्मीबाई
और इंदिरा गाँधी के बलिदान  व साहस की कहानियाँ
सुनाई थी , उसे जीवन में कुछ बनने और समाज में , देश में अपनी पहचान बनाने की शिक्षा दी थी ।
             किशोरी को स्वछंद आसमान मिला था उड़ने को...वह वन- बेल की तरह  बढ़ती गई...अपनी लगन ,
मेहनत और माता - पिता के स्नेहिल मार्गदर्शन की छाया
तले वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ती गई पर उसकी
सहेलियाँ अधिक दूर तक उसका साथ न दे पाई..वे भी
उत्सुक थीं आगे बढ़ने को ....पर उनका पारिवारिक माहौल  अलग था...उन्हें दो टूक जवाब मिला -" क्या
करोगी आगे पढ़कर ? लड़कियों को ज्यादा पढ़ने की
क्या जरूरत  है...चिट्ठी लिखने - पढ़ने लायक पढ़ ली,
काफी हो गया....तुमको कौन सी नौकरी करनी है...बस अब तो तुम्हारी शादी करनी है ।"
            और जल्दी ही उनकी शादी हो गई... रमा की
शादी में गई थी किशोरी ...." कितनी जल्दी तुम्हारी शादी कर रहे हैं " उसने विस्मय से आँखें फैलाते हुए कहा था । विदाई के समय रमा की  माँ ने जो कहा ,सुनकर उसे बड़ा अजीब लगा था -  "बेटी मायके से लड़की की डोली उठती है और ससुराल से उसकी अर्थी ,अब उसी घर को अपना समझना ।" रमा की शादी के बाद किशोरी उससे नहीं मिल पाई...अब वह कॉलेज में पहुँच गई थी... व्यस्तताएं बढ़ गई थी , परिचय का दायरा बढ़ गया था ।
      एक साल बाद जब उसे जया के द्वारा रमा की मौत
की खबर मिली तो वह हतप्रभ सी रह गई ...हे भगवान!
यह सब कैसे हो गया  । उत्तर में जया ने जो कुछ बताया
सुनकर उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई... रमा
को दहेज के लिए ससुराल में  प्रताड़ित किया जाता था
पर वह सब कुछ चुपचाप सहती रही और एक दिन उन्होंने रमा को जलाकर मार डाला.... विदाई के समय
दी हुई माँ की सीख वह नहीं भूली थी शायद । ओह!
यह कैसी परम्पराएं हैं जो लड़की को अन्याय के प्रति लड़ना छोड़कर उससे दबना सिखाती हैं । आज किशोरी ने एक  निर्णय लिया था ....बहुत बड़ा निर्णय
वह किसी ऐसे व्यक्ति से शादी नहीं करेगी जो दहेज लेकर उससे शादी करेगा । जो उसकी शिक्षा , गुणों और
संस्कार को देखकर उसे अपनाये , उसी को वह अपना
जीवन - साथी बनायेगी ।
         पढ़ाई पूरी करने के बाद वह आत्म निर्भर बनने के लिए प्रयास करने लगी...इसी बीच परिवार और समाज के लोग शादी के लिए हाय- तौबा मचाने लगे ।उसने जीवनसाथी के बारे में अपना निर्णय सबको सुना
दिया ।
        माता - पिता भी उसके विचारों से सहमत थे पर वे
क्या करें ..उसकी पसन्द का जीवन साथी ढूंढना आसान तो नहीं था क्योंकि समाज एक व्यक्ति या एक परिवार से नहीं बनता ,यहाँ कई प्रकार के लोग रहते हैं । कई लोग यह  सोचकर कि इकलौती लड़की है , माता - पिता की सम्पत्ति की वारिस...पर किशोरी ऐसे लोगो को
मना कर देती । अब  माता - पिता को भी चिंता होने लगी ....किशोरी पच्चीस की अवस्था पार कर रही थी..
उन्होंने बेटी को समझाना चाहा , पर वह गुस्से से बोल उठी - ,क्या कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो जीवन साथी का सही अर्थ समझ सके...जीवनसाथी का अर्थ तो जीवन भर एक - दूसरे के सुख - दुख में  बराबर का भागीदार बनना होता है न पापा ...पर यहाँ तो ऐसा कुछ
भी नहीं है । मुझे अपनाने के लिए कोई व्यक्ति आपसे रुपये या दहेज ले , इसका मतलब मैं उससे बहुत तुच्छ
हूँ या वह व्यक्ति अपने - आपको मुझे बेचना चाहता है
ऐसे व्यक्ति को मैं अपना प्यार और सम्मान कैसे दे पाऊँगी , आप ही बताइए ।
             पर किशोरी की खोज पूरी नहीं हुई...शायद
उसे कुछ और इंतजार करना पड़ेगा । इक्कीसवीं  सदी
की ओर बढ़ते हुए मानव के पास आदर्शों , भावनाओं
के लिए वक्त ही कहाँ है , वर्तमान युग में पद , प्रतिष्ठा
और पैसा ही तो व्यक्ति की सही पहचान है इसलिए सभी इसे पाने के लिए दौड़ रहे हैं ।
            किशोरी के दिलो - दिमाग में कशमकश - सी
चल रही है... अपने  आदर्शों , विचारों से समझौता करके विवाह करने को वह जरूरी नहीं समझती पर...
उससे अपने माता - पिता की चिंता , उनका अपमान
सहा नहीं जाता । उन्होंने उसे इतनी अच्छी शिक्षा , संस्कार दिए...उसके सुखद भविष्य को देखने के लिए
उनकी आँखें भी तरस रहीं हैं.. क्या उनकी खुशी के
लिए उसे समझौता करना ही पड़ेगा ? " ओह ! नहीं..."
उसका दिल चीख पड़ता है पर ठीक उसी वक्त दिमाग
भी समझाईश देने लगता है - देखो , कहीं तुम्हारे निर्णय
से तुम्हारे पालकों का सिर लोगों के सामने न झुक जाएं , उन्हें  यह न सुनना पड़े कि उच्च शिक्षा और छूट
देकर उन्होंने गलत किया...पढ़ - लिखकर बेटी खुदगर्ज
बन गई ।
        हाँ , शायद तुम ठीक कहते हो.... वह बड़बड़ाने
लगी...न चाहते हुए भी किशोरी ने उन पुरानी मान्यताओं के आगे घुटने टेक दिए , पर वह निराश नहीं
हैं... उसे इंतजार है उस दिन का...जब उसकी तरह और
भी लोग होंगे जो व्यक्ति का मूल्यांकन उसके गुणों से
करेंगे , रुपये - पैसे से नहीं । हाँ  , वह शुरुआत करेगी..
एक नई परम्परा की..अपने बेटे को वह एक अच्छा
इंसान बनाएगी ताकि उसकी तरह किसी और किशोरी
की खोज अधूरी न रह जाये ।

                स्वरचित -- डॉ.  दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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