Monday, 28 August 2017

अंतिम परिणति # ओ वूमनिया ( कहानी )

    नदी की शांत जलधार में अपने दोनों पैर डाले वह
बड़े सुकून से स्निग्ध चाँदनी के सौंदर्य को निहार रही
थी कि अचानक लगा उसे कोई गहराई में खींच रहा है
और  वह अथाह जलराशि में आकंठ डूबी हाथ - पैर
मार रही है । उसे तैरना नहीं आता पर वह अपने - आपको बचाने का भरसक प्रयास कर रही है....अब
उसका दम घुटने लगा था और वह निढाल हो रही थी.
...उसने मौत के आगे हथियार डाल दिया और आत्म
समर्पण कर दिया था.....गहरी , लम्बी...लम्बी साँसें भरती हुई रश्मि बदहवास सी उठ पड़ी थी... उसके कपड़े पसीने से तर - बतर थे । यह कैसा स्वप्न था...उसका अंग - प्रत्यंग दर्द से टीस रहा था । कहते
हैं स्वप्न  मन की दबी , सुप्त भावनाओं की ही अभिव्यक्ति होती है । वैवाहिक जीवन के चौथे वर्ष में
प्रवेश करने के साथ उसके पति राकेश की ज्यादतियाँ
बढ़ने लगी थीं । डांट - फटकार , गाली - गलौज से बढ़कर अब वह उस पर हाथ भी उठाने लगा था । छोटी
छोटी बातों में बाल पकड़ कर खींचना , थप्पड़ मार देना
तो आम बात थी । पति के दुर्व्यवहार  के कारण उसने
अपने मायके से भी दूरी बना ली थी । वह तो इस नर्क
में फँस ही चुकी थी , माँ - पिताजी को बताकर उन्हें और दुखी नहीं करना चाहती थी । वैसे ही उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी..वहाँ जाकर उन पर बोझ नहीं बनना चाहती थी ...यहाँ कम से कम पति
का आश्रय तो है ; बस यही वजह उसे  अपनी तकलीफ
भरी जिंदगी से समझौता करने को  मजबूर कर देती ।
     आखिर क्या कमी है उसमें ? शायद यही उसका
दोष है कि वह राकेश से कहीं अधिक पढ़ी - लिखी और
सुन्दर है । शायद उसका बेहतर होना ही राकेश को हीनता का एहसास कराता है और वह अपनी मर्दानगी
दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देता । उसकी सुंदरता उसकी दुश्मन हो गई है जिसके कारण
वह उसे घर से बाहर नहीं निकलने देता , यहाँ तक कि
अपने दोस्तों के सामने भी उसे जलील करने से नहीं
चूकता । राकेश की नौकरी , सम्पत्ति ने पिताजी को
दिग्भ्रमित कर दिया.. अपने से कहीं बेहतर परिवार
रश्मि को मिला है सोचकर ही वे बेहद प्रफुल्लित थे । मन में एक प्रकार का मलाल भी था कि वे अपने घर
में अपनी लाडली बेटी को जो सुख - सुविधाएं न दे पाए
वो उसे शादी के बाद नसीब हों । वह हमेशा खुशहाल
रहे , किसी प्रकार की आर्थिक तंगी का उसे मुँह न देखना पड़े पर वे क्या जानते थे सिक्कों की  चमक के पीछे
कितने अंधेरे हैं । सम्पत्ति सदैव सुख नहीं देती , कभी - कभी यह दुर्व्यसनों की धात्री बन जाती है । अहंकार और नशे की लत ने राकेश की सोचने - समझने की
शक्ति भी  छीन ली थी और उसने  रश्मि का जीना दूभर
कर दिया था ।
  अब रश्मि दो वर्ष के पुत्र अवि की माँ बन चुकी थी ।
पति की हिंसा सहकर भी वह चुपचाप अपने दायित्व निभाये जा रही थी । पर अपने मन  के बेलगाम घोड़े को
कैसे बाँधे जो रह - रहकर ऐसे डरावने सपने उसे दिखाते रहता । कभी वह रेगिस्तान में दौड़ते - दौड़ते
बेदम होकर रेत के टीलों में दब जाती... कभी किसी
भयावह घने जंगल में बेतहाशा इधर से उधर भागती रहती और अचानक कोई भयानक जानवर उसे चीरने -
फाड़ने को सामने आ जाता । ये दुःस्वप्न उसे बेहद डराते
थे और वह रोज ही अपने मन के बनाये साजिशों से लड़ती ।
      पर  उस रात....उसने देखा नशे में धुत राकेश उस पर लात - घूँसे बरसा रहा है , तभी उसका लाडला अवि
उसे बचाने बीच में आ जाता है । वह रोते - रोते पापा से
कहने लगता है - मेरी माँ  को मत मारो पापा , उसे छोड़
दो और राकेश...उसे उठाकर पटक देता है... अवि के सिर से खून बहने लगता है...वह निश्चेष्ट  पड़ा है...बेटे की ओर दौड़ती रश्मि  को भी सिर पर पति की मार लगती  है और वह गिर पड़ती है ...रश्मि अपने - आपको और बेटे को रक्तरंजित देखती है...उसकी साँसे
धौंकनी की तरह चलने लगती है और वह बरबस चिल्ला
पड़ती है-नहीं....नींद में ही राकेश के हाथ - पैर चलने
लगते हैं - साली ...न खुद ठीक से सोती और न दूसरों को सोने देती....थोड़ी देर बाद फिर से उसकी नाक बजने लगी ।
     उसके बाद रश्मि सो नहीं पाई.....होठों के पास कुछ
तरलता महसूस हुई...शायद खून बह रहा था... बगल में
सोये हुए बेटे की ओर देखा...नन्हीं सी जान मुस्कुराते हुए गहरी निद्रा में सोया हुआ था । आज के डरावने स्वप्न ने उसे सचमुच जगा दिया था और उसे किसी भयावह भविष्य से आगाह कर रहा था... उसने दृढ़
निश्चय कर लिया था , न उसे समाज का डर था और न
ही किसी और बात का... वह   सधे हुए कदमों से अवि को गोद में  लेकर  निकल पड़ी थी एक नई राह तलाशने । सुबह राकेश पूरे घर में दहाड़ रहा था - रश्मि ! कहाँ मर गई...मेरी चाय कहाँ है? पर वहाँ उसकी सुनने वाला कोई नहीं था ...उसने देखा  , पिंजरे  का दरवाजा खुला हुआ था....  उसकी पाली हुई चिड़िया  उड़ चुकी थी

    ☺️☺️☺️स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग ,              
                                    छत्तीसगढ़

Sunday, 27 August 2017

मृग - मरीचिका ( कहानी )


    " रेत में चिलचिलाती धूप को पानी समझकर प्यासा
पथिक उसकी ओर दौड़ पड़ता है ...इसी तरह कई बार
मुझे जीवन की मरिचिकाओं ने दौड़ाया और भटकाया
है ...हर मोड़ पर यही लगा कि मुझे अपनी मंजिल मिल गई है पर यह महज धोखा था , एक छलावा..."।
     आँसुओं से भीगे ये शब्द  रचना के अंतर्मन की व्यथा
कह रहे थे । सचमुच उसका जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है , पता नहीं ईश्वर उसकी और कितनी परीक्षा लेगा । रचना मेरी कॉलेज की दोस्त है...खूबसूरत , धैर्यवान और  स्नेहमयी ...सभी उसे पसंद करते थे । प्रवीण तो
उस पर अपनी जान छिड़कता था और उसे अपनी जीवनसंगिनी भी बनाना चाहता था । रचना  बहुत
खुश थी ।घर में भी रचना की पसन्द को स्वीकृति मिल
गई थी । रचना  भाई - बहनों में सबसे बड़ी थी , उसकी
दो छोटी बहनें और एक भाई था ,तीनों पढ़ाई कर रहे थे। एम. ए. अंतिम करते - करते प्रवीण और रचना ने
अपने भावी जीवन की योजना तैयार कर ली थी और
अपने कार्यक्षेत्र में लगन से जुट गए थे ।
          शायद नियति को रचना का यह सुखद भविष्य
मंजूर नहीं था....अचानक एक दुर्घटना में उसके पिताजी
की मृत्यु हो गई और यहीं से शुरू हुई उसके संघर्षों की
कहानी .....क्योंकि पिता के बाद एक वही थी जो सबको सम्भाल सकती थी... माँ बेचारी तो गाँव की सीधी - सादी महिला थी फिर भी उन्होंने पूरी कोशिश की बच्चों को समझाने , दिलासा देने की...
पर  पिता की जगह तो उसे ही लेनी थी क्योंकि वही घर
में सबसे बड़ी थी और शिक्षित भी । अनुकम्पा नियुक्ति
के तहत पिताजी के स्कूल में ही वह शिक्षिका नियुक्त
हो गई ।
        कितनी जल्दी सब कुछ बदल गया  - पंख के आने से परवाज़ बदल जाते हैं , परिस्थितियां बदल जाने से अंदाज बदल जाते हैं ... उमंगों , शोखियों की जगह अब
गम्भीरता ने ले लिया  ...परिवार की जिम्मेदारी के एहसास ने उसके व्यक्तित्व को पूरा ही बदल दिया .बेरहम वक्त  ने उसे कल्पनाओं  की कोमल  बिछौने से उठाकर यथार्थ के ठोस धरातल पर ला पटका  था । प्रवीण ने इस बुरे हालात में उसे सांत्वना
दी ..उसका साथ निभाना चाहा पर स्वाभिमानी रचना ने
उसे अपने भविष्य पर ध्यान देने का निवेदन किया ।
         अब रचना के जीवन का उद्देश्य अपने  छोटे भाई-
बहनों की पढ़ाई और उनका भविष्य सँवारना था जिसमें
वह पूरी ततपरता से जुट गई । अपने बारे में सोचने की उसे फुर्सत ही कहाँ थी ...दो वर्षों में प्रवीण की भी नौकरी लग गई , अब वह शादी  की  जल्दी करने लगा...पर रचना ! वह अपनी जिम्मेदारियों से  मुक्त नहीं
हुई थी उसने कहा - "प्रवीण , अभी तो मुझे बहुत लंबा
सफर तय करना है.... तुम आखिरी  कब  तक  मेरा
इंतजार करोगे....तुम कहीं और शादी कर लो....मैं अपने
स्वार्थ के लिए माँ और छोटे भाई - बहनों को मझधार में
असहाय   कैसे छोड़ दूँ ।"
        शायद प्रवीण के प्यार में भी इतना धैर्य  और साहस नहीं था कि उसके साथ उसकी जिम्मेदारियों
को अपना सके....टूटे  मन से उसे  दूर जाते देख रचना
अपने - आपको सम्भाल नहीं  पाई और फूट - फूट कर
रोने लगी ...माँ उसका दुःख समझती थी पर वह आखिर क्या करती !
        समय - चक्र चलता रहा... रचना सुन्दर थी , नौकरी कर रही थी... उसकी शादी के लिए कई  प्रस्ताव
आये पर उसने सबको ठुकरा दिया क्योंकि कोई भी
शख्स ऐसा न था जो उसके साथ उसकी  जिम्मेदारियों
को  भी अपनाने की  हिम्मत करता इसलिए उसने विवाह न करने की ठान ली ।
       लोगों की बातें  सुनते , समाज से लड़ते उसने अपने
दायित्व का निर्वहन किया  ....उसके खून - पसीने से सींचे हुए पौधे बड़े हुए और फूलने - फलने लगे । भाई-
बहन आत्मनिर्भर हो गए और  बहनों की अच्छी जगह
शादी हो गई ...वे अपने परिवार में खुशहाल हैं ।
       अब रचना अपने - आपको बहुत ही निश्चिंत महसूस कर रही थी ...एक अलग तरह की खुशी का
एहसास कर रही थी वह ; भले ही इस खुशी को पाने
के  लिए उसे बहुत कुछ  खोना पड़ा ।
        मैंने सोचा चलो अब तो रचना खुश रहेगी ....भाई
- बहन दीदी के त्याग को  दिल से महसूस करते थे इसलिए रचना से पूछे बिना वे कोई कार्य न करते । आशीष ने तो जिद ही पकड़ ली कि दीदी अब नौकरी
छोड़कर घर में आराम करे पर रचना ने बड़े ही प्यार
से उसे समझा दिया कि काम अब उसके जीवन का
हिस्सा बन गया है , हाँ  अब वह ट्यूशन नहीं लिया
करेगी ।
        बड़े ही धूमधाम से उसने आशीष की शादी की...
खुशियाँ कुछ दिन ही मेहमान की तरह आई और चली
गई ...रचना के त्याग और परिश्रम का मोल पराये घर
से आई रीमा  कैसे पहचानती  । हालांकि आशीष ने
उसे दीदी के बारे में सब कुछ बताया था पर सुनने और
महसूस करने में फर्क होता  है। रीमा दीदी के संघर्षों को
सुनकर कैसे महसूस करती  ..उसे लगता कि उसका पति उससे अधिक महत्व अपनी दीदी को देता है ...कोई भी काम हो दीदी से पूछ लो... कुछ लेना हो
दीदी....वह हर बात में दीदी से अपनी तुलना करने लगी...बड़ा अजीब है मानव का यह स्वभाव  , एक बार
हमारा मन किसी को गलत   मान  ले तो बस फिर उस
व्यक्ति के अवगुण ही हमें दिखते हैं  उसकी सारी
अच्छाइयाँ दब जाती हैं । उसी तरह रीमा को आज
घर में दीदी की प्रधानता अखर रही थी । इस घर को
बनाने के  लिये उन्होंने क्या - क्या त्याग किया है , उसके
बारे में उसने कभी नहीं सोचा....बेचारा आशीष ! वह
रीमा को समझा - समझा कर थक गया था... घर में
अशांति होने लगी आखिरकार रचना को एक बार फिर
भाई की खुशी के लिए अपना ही घर त्यागना पड़ा...
अपने ही द्वारा बसाये गए चमन को  उजड़ते हुए वह
कैसे देख  सकती थी...।
         अब वह अपने स्कूल के पास ही एक किराये के
मकान में माँ के साथ रहती है ; वहीं से उसने मुझे यह
पत्र लिखा है ....बिल्कुल सच कहती है रचना...मृग-
मरीचिका बन गया है उसका जीवन ...खुशियों की
तलाश में भटकती रचना ...आखिर कब खत्म होगा
उसका यह भटकाव....शायद उसके द्वारा   लिया हुआ
यह आखिरी निर्णय उसे सच्ची खुशियाँ प्रदान कर सके-
वृद्धों की संस्था "आश्रय " में अपनी सेवा देने का ।
       मेरा मन उसके प्रति शुभेच्छाओं से भर गया  ....
रचना , तुम कभी हार न  मानना... कभी न कभी तुम्हारा यह भटकाव खत्म तो होगा ही , तुम्हें  अपनी
मंजिल कभी तो मिलेगी । मरीचिका  का जीवन क्षणिक
होता है ...धूप - छाँव का खेल ....तुम्हारे सेवाभाव और
त्याग की  बदली तुम्हारे जीवन की दुखों भरी मरिचिकाओं को नष्ट कर दे और स्नेह जल बरसाए , यही मेरी दुआ है ।

☺️☺️☺️डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
         

Monday, 21 August 2017

अनोखा बन्धन ( कहानी )

    " सौम्या.... तुम अभी तक तैयार नहीं हुई , तुम्हारे पापा कब से इंतजार कर रहे हैं "- सौम्या को बिस्तर पर
पड़ी देखकर राजी ने उसे आवाज लगाई । पास जाकर उसने जब सौम्या का चेहरा ऊपर उठाया तो  चौंक पड़ी- अरे....यह  क्या ? तुम रो रही हो ..पगली..तुम अपने घर जा रही हो , अपने  पापा - मम्मी के पास...यह तो बहुत खुशी की बात है । होस्टल में कोई
हमेशा के लिए थोड़ी आता है... अपनी पढ़ाई पूरी करके
सभी अपने घर जायेंगे , फिर कल मैं भी तो जा रही हूँ ...चुप हो जाओ प्लीज...।
      "  राजी , तुम मुझे बहुत याद आओगी " - कहकर
सौम्या उससे लिपटकर रो पड़ी ।
  "  मुझे भी तुम्हारी कमी महसूस होगी सौम्या , दो वर्ष
हम लोग  एक कमरे में साथ रहे..ये पल याद तो आएंगे
ही...पर तुम दुखी मत हो , हम लोग एक -दूसरे  से बात
करते रहेंगे और अधिक याद आएगी तो मिल भी लेंगे
क्यों ठीक है ना...अच्छा अब जल्दी से तैयार हो जा , अंकल गेस्ट रूम में बैठे  हैं । "
        बड़ी मुश्किल से राजी ने सौम्या को चुप कराया ।
उसे भी दुख हो रहा था सौम्या से  अलग होते हुए...पर
वह जानती थी कि वह रो पड़ी तो सौम्या को संभालना
मुश्किल हो जायेगा ।
       छात्रावास छोड़कर लौटती हुई सौम्या को लग रहा
था जैसे वह अपना मन राजी के पास ही छोड़कर जा रही है लेकिन वह अपने साथ लेकर भी तो जा रही है
जीवन जी के ढेर सारे खट्टे - मीठे अनुभव और राजी का
प्यार ।
       उसे   होस्टल का पहला दिन याद है  जब वह अपने कमरे में आते ही फूट - फूट कर रो पड़ी थी । पहली बार मम्मी - पापा को छोड़कर बाहर निकली
थी  , हर बात में उनकी याद आती थी । छोटे शहर से
आने के कारण उसके मन में थोड़ी झिझक भी थी ...
ऊपर से होस्टल में सीनियर दीदियों का तानाशाही व्यवहार  और नया - नया माहौल ..इन सबने उसे  दुखी
कर दिया था । वह अपने - आपको अकेली महसूस कर
रही थी इसी बीच उसके कमरे में एक और लड़की आई राजी पिल्लै । वह दक्षिण भारतीय थी ...रहन - सहन , भाषा और विचार में भिन्नता होने के कारण कुछ दिन तो
दोनों दूर - दूर ही रहे पर साथ रहते - रहते ये दूरियाँ कम
होते गई ।
        राजी सौम्या की हमउम्र जरूर थी  पर उसमें अधिक धैर्य और समझदारी थी । सौम्या को शुरू - शुरू
में होस्टल में बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था.. छोटी - छोटी बातों में सीनियर की झिड़की सुनकर उसे लगता
कि वह घर वापस चली जाए..ऐसे क्षणों में राजी उसे
समझाती , ढाढ़स बंधाती ।
      छोटे शहर से आई सौम्या को कुछ दिनों बाद बड़े
शहर की रंगीनियाँ और खुलापन  आकर्षित करने लगा । उसके कई नए दोस्त बन गए , उसके परिचय का दायरा बढ़ने लगा । अब वह दोस्तों के साथ घूमने - फिरने , मूवी देखने चली जाती ...लेकिन इन सबके पीछे  वह अपना असली उद्देश्य भूलने लगी । पढ़ाई के
प्रति उसकी बेरुखी देखकर राजी उसे बहुत समझाती कि इस तरह उसकी लापरवाही ठीक नहीं है पर सौम्या
...उस पर इसका कोई असर नहीं हुआ ।
        घर से आये सारे पैसे वह अपने दोस्तों पर ही खर्च
कर  डालती । सौम्या को लगता कि उसके दोस्त उसे महत्व देते हैं तो उसे भी उनके लिये कुछ करना चाहिए।
राजी उसे उन दोस्तों से सावधान करती थी कि वे सब
मतलबी हैं , वक्त पर काम नहीं आयेंगे , दोस्त भी सोच -
समझकर बनाना चाहिए । राजी की समझाइश सौम्या को अब टोका - टाकी लगने लगी । " तुम अपने काम से मतलब रखो "- कई बार उसने राजी को कटु शब्द भी कह दिये; पर भला राजी अपनी प्रिय सहेली को पतन की ओर जाते कैसे देख सकती थी , वह हर कदम पर उसे सावधान करती रही ।
        परीक्षा की समय - सारणी आने के  बाद जैसे सौम्या नींद से जागी । उसने न तो कोई नोट्स बनाये थे
और न ही नियमित रूप से कक्षा में गई थी । उसकी मित्र - मंडली में कुछ लोगों की स्थिति उसी के जैसे थी और जो सजग थे वे अपने नोट्स परीक्षा के समय उसे
कैसे देते ? उन्होंने भी मदद करने से  इंकार कर दिया ।
        परीक्षा बिल्कुल सिर पर थी और अब अपनी भूल
सुधारने का वक्त भी नहीं था । सौम्या अब तक पढ़ाई में अच्छे अंक लाती रही थी , इस बार कहीं वह फेल हो गई तो मम्मी - पापा को क्या मुँह दिखायेगी । " विपरीत
परिस्थितियों से यदि व्यक्ति संघर्ष  नहीं कर सकता तो वह उससे मुँह छुपाने के लिए अंधेरों का सहारा लेता है " , ऐसा ही कुछ  सौम्या के साथ हुआ । तनाव और परेशानी से बचने के लिए नशे का सहारा लेकर उसने
अपनी मुश्किलें और बढ़ा ली ।
        उसकी जरूरतें बढ़ती देख उसके वे सारे दोस्त उससे किनारा कर  गए जिन्हें वह अपना हमदर्द समझती थी । वह सुधरना चाहती थी पर उसे किसी की
मदद और मानसिक  सहारे की आवश्यकता थी । वह
अपना दुःख - दर्द राजी को बताना चाहती थी परन्तु
शर्मिंदगी के कारण कह नहीं पाई क्योंकि राजी तो हमेशा उसे उन खतरों से सावधान करती रही.. सौम्या ने
ही उस पर ध्यान नहीं दिया बल्कि उसे कई बार खरी - खोटी सुना दी और उस पर रोक - टोक करने का आरोप
लगाया ।
         राजी स्वयं ही उसकी हालत समझ गई । उसने सौम्या का मनोबल बढ़ाया  और आर्थिक , शारीरिक , मानसिक हर प्रकार की मदद देकर नशे की दलदल से
बाहर निकलने में अपना योगदान  दिया । दृढ़ निश्चय बहुत बड़ा हथियार है जिसके द्वारा मनुष्य कठिनतम
परिस्थितियों से भी बाहर निकल आता है ।
        सौम्या   को एक बहुत बड़ा सबक मिल गया था
इसलिये वह स्वयं अपने - आपको सुधारने के लिये
कृत संकल्पित थी ।  अपने दृढ़ विश्वास और राजी के
स्नेह भरे सहयोग के द्वारा उसने अपने - आपको सम्भाल लिया ।
     छात्रावास छोड़ने का सौम्या को उतना दुःख नहीं था
जितना राजी से  अलग होने का था ,राजी ने जो कुछ उसके लिए किया क्या वह उसे कभी भूल पायेगी ? दो
साल पहले जिसे वह जानती भी नहीं थी उसने उसे एक
नई जिंदगी , एक नई दिशा दी ।
    क्या ऐसे भी सम्बन्ध होते हैं जो स्वार्थरहित , जाति - पांति , भेदभाव से परे होते हैं ? कितना प्यारा है यह रिश्ता जो रिश्तों की सीमा में न  कर भी  उससे कहीं अधिक ऊँचा और महत्वपूर्ण है । प्यार और सहयोग से
बना यह बन्धन कितना अनोखा है जिसने दो अनजान दिलों को एक कर  दिया । नहीं , वह कभी नहीं भूल पायेगी इस रिश्ते  को...कभी नहीं टूट सकता यह बन्धन...कभी नहीं ।

   ☺️☺️ स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग  , छत्तीसगढ़

Sunday, 20 August 2017

निर्णय ( कहानी )

      आज एक निर्णय लेकर  शर्मा जी  बहुत ही निश्चिंत
महसूस कर रहे थे । बहुत समय से उनके दिलों - दिमाग
में एक कशमकश सी चल रही थी ...लेकिन पिछले एक
महीने की लंबी बीमारी  ने उनकी उलझनों को दूर कर
दिया था ।
          दो  वर्ष पूर्व प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त शर्माजी
की पत्नी का देहांत कई वर्ष पूर्व हो चुका था । तीनों  बेटे अच्छे पदों पर नियुक्त थे और अपने - अपने परिवार
के साथ खुश थे । एक बेटा उसी शहर में था पर पिता का मकान  उसे छोटा पड़ता था इसलिए  वह अलग रहता था । उसने पिता को अपने साथ रहने  का अनुरोध किया था  पर शर्मा जी...भला कैसे  जा सकते थे अपने
उस  घर को छोड़कर जिसे उन्होंने अपनी खून - पसीने
की कमाई से  बनवाया था ; फिर अतीत की सारी यादों
को यह घर समेटे हुए था..बस ये यादें ही तो उनकी तन्हाई की एकमात्र साथी  थीं । बेटे अपने परिवार  के
साथ कभी - कभी आते तो घर जैसे खुशियों से चहक
उठता , लेकिन उनके जाने के बाद फिर सूना घर  काटने
को दौड़ता । मकान की देखभाल में परेशानी  और सूनेपन की वजह से उन्होंने  घर का आधा हिस्सा किराये पर दे दिया था  ।  श्याम , उसकी पत्नी रेखा और उनका बेटा पिंटू आये तो किरायेदार बनकर थे ...
पर शर्माजी के स्नेह ने उन्हें घर का सदस्य ही बना दिया । पितृविहीन श्याम उनका प्यार पाकर गदगद हो उठा ।
पिंटू भी दिन भर दादा - दादाजी कहते शर्मा जी के पास
ही रहता ।
          श्याम और उसके परिवार के आ जाने के बाद मानों शर्मा जी को नई जिंदगी मिल गई । रिटायरमेंट के
बाद जीवन कुछ रुक  सा गया था , अकेलेपन से उन्हें
घबराहट होने  लगी थी । श्याम से उन्होंने जो अपनापन
पाया , कभी - कभी लगता कि यह सब तो उनके बेटों को करना  था । उम्र के अंतिम पड़ाव में ही तो व्यक्ति को  किसी सहारे की आवश्यकता होती है पर बेटों को
इस बात का  एहसास न था । तीनों एक - दूसरे पर टाल
कर पिता की जिम्मेदारी लेने से बचना चाहते थे ।
        श्याम के परिवार के साथ ही शर्मा जी ने अपने - आपको जोड़ लिया था । दो वर्षों के साथ ने उनके सम्बन्धों को इतना प्रगाढ़ कर दिया था कि लोगों के लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता था कि वे
मकानमालिक - किराएदार हैं । बेटों के तिरस्कार के गम
को  इस मधुर सम्बन्ध  ने बहुत कुछ कम कर दिया था ।
       एक माह की लंबी बीमारी के दौरान उन्हें लगा कि
रिश्तों के मायने ही बदल गए हैं । इस बीमारी ने उन्हें
अपने - पराये की पहचान करा दी । श्याम और रेखा ने
उनकी बहुत सेवा की । शर्मा जी को तो होश भी नहीं था
पर श्याम ने  पता नहीं किस तरह उनकी दवा  और डॉक्टर की फीस का खर्च उठाया होगा वे इसका अनुमान लगा सकते थे क्योंकि उसकी सीमित आय के
बारे में उन्हें सब कुछ पता था । पर आश्चर्य कि पति - पत्नी के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं थी । उनके अपने तो उन्हें देखने तक नहीं आये  । शायद श्याम ने
उनकी बीमारी की खबर उन्हें दी थी , पर वे मात्र सहानुभूति दर्शा कर रह गए  । श्याम ने बेटों की  बेरुखी
का जिक्र भी नहीं किया ताकि उन्हें कोई तकलीफ न
पहुँचे बल्कि उनकी कमियों को ढाँपने की कोशिश की यह कहकर कि वे शहर में नहीं हैं ...बाहर गए हुए हैं ।
      अभी वे अस्पताल से घर आये ही थे कि बेटे मिलने
आने लगे ...शायद अब उन्हें लगने लगा था कि अब पिताजी अधिक दिन नहीं जी पाएंगे इसलिये मकान के
बंटवारे की फिक्र उन्हें खींच लाई थी । शर्मा जी बीमारी से नहीं , बेटों की स्वार्थपरता से हार गए थे । अपने खून
का ऐसा बर्ताव देखकर वे बिल्कुल टूट गए थे । माँ - बाप अपना पूरा जीवन बच्चों को बड़ा करने , उन्हें पढ़ाने , उनका भविष्य संवारने के लिये होम कर देते हैं... अपनी कई ख्वाहिशों का गला घोंटकर बच्चों की
जरूरतों को पूरी करते हैं , पर ये बच्चे उन्हें बोझ समझने लगते हैं ...एक बार भी उनके त्याग के बारे में
नहीं सोचते । माता - पिता के प्रयास के बिना क्या  वे
उस स्थान पर होते जहाँ वे अभी हैं ।अगर उन्हें इस बात
का एहसास होता  तो ये वृद्धाश्रम बनते ही क्यों? जिनके माता - पिता नहीं होते वे ही इस पीड़ा को महसूस करते हैं ...वो अपने बच्चों के सिर पर आशीष
और संस्कारों की छांव ढूंढते हैं.. रात को कहानी सुनाने
के बहाने नैतिक मूल्यों के बीज  बाल मन में रोपने वाले
दादी या दादा की कमी महसूस करते हैं । सही है जिसे
जो चीज आसानी  से मिल जाती है , उसे उसकी कद्र
नहीं होती ...श्याम यह सब देखकर यही सोच रहा था ।
       शर्मा जी को उदास और हताश पाकर एक दिन श्याम ने उन्हें समझाया था -- " चाचाजी , आप निराश न
होइये ...आप शीघ्र अच्छे हो जायेंगे । हमें आपकी  स्नेह- छाया की आवश्यकता है , आपको हमारे लिये जीना होगा ....क्या हम आपके कुछ नहीं हैं ? क्या खून
का रिश्ता ही सबसे बड़ा होता है , प्यार का रिश्ता कुछ
नहीं होता ।"
          श्याम की इन्हीं बातों ने तो  उनमें जीने की आस जगाई थी और उन्हें मौत के भँवर से खींच निकाला था...आज वे बिल्कुल स्वस्थ हो चुके हैं । इन्हीं सब से
प्रेरित होकर आज उन्होंने यह निर्णय लिया था कि प्यार
के धागे से बंधे इस रिश्ते को वे कभी टूटने न देंगे ।बेटों
के प्रति जो उनका दायित्व था वो तो निभा दिया , अब
बारी  दूसरों की है ।जो माता - पिता अपने बच्चों से
तिरस्कृत हो वृद्धाश्रम में रह रहे हैं उनके लिए उन्होंने
अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा दे दिया  और  जिस
सूने आँगन को अपने प्यार  व अपनेपन के द्वारा महकाया उस श्याम  को अपने बाद उस घर में सदा रहने का अधिकार  दिया ....उनका इतना  स्नेह पाकर
श्याम  हतप्रभ था पर खुश भी ।
      शर्मा जी के इस निर्णय के बारे में जब सबको पता
चला तो वे स्तब्ध रह गए । बेटों को  मात्र इस बात का
अफसोस था कि पिता की सम्पत्ति से वे वंचित हो गए लेकिन श्याम....उसे तो पिता के प्यार की ऐसी सम्पति
मिली थी कि हर्षातिरेक से छलकते आँसूओं को वह
रोक नहीं पाया ।
   स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️☺️