Sunday, 27 August 2017

मृग - मरीचिका ( कहानी )


    " रेत में चिलचिलाती धूप को पानी समझकर प्यासा
पथिक उसकी ओर दौड़ पड़ता है ...इसी तरह कई बार
मुझे जीवन की मरिचिकाओं ने दौड़ाया और भटकाया
है ...हर मोड़ पर यही लगा कि मुझे अपनी मंजिल मिल गई है पर यह महज धोखा था , एक छलावा..."।
     आँसुओं से भीगे ये शब्द  रचना के अंतर्मन की व्यथा
कह रहे थे । सचमुच उसका जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है , पता नहीं ईश्वर उसकी और कितनी परीक्षा लेगा । रचना मेरी कॉलेज की दोस्त है...खूबसूरत , धैर्यवान और  स्नेहमयी ...सभी उसे पसंद करते थे । प्रवीण तो
उस पर अपनी जान छिड़कता था और उसे अपनी जीवनसंगिनी भी बनाना चाहता था । रचना  बहुत
खुश थी ।घर में भी रचना की पसन्द को स्वीकृति मिल
गई थी । रचना  भाई - बहनों में सबसे बड़ी थी , उसकी
दो छोटी बहनें और एक भाई था ,तीनों पढ़ाई कर रहे थे। एम. ए. अंतिम करते - करते प्रवीण और रचना ने
अपने भावी जीवन की योजना तैयार कर ली थी और
अपने कार्यक्षेत्र में लगन से जुट गए थे ।
          शायद नियति को रचना का यह सुखद भविष्य
मंजूर नहीं था....अचानक एक दुर्घटना में उसके पिताजी
की मृत्यु हो गई और यहीं से शुरू हुई उसके संघर्षों की
कहानी .....क्योंकि पिता के बाद एक वही थी जो सबको सम्भाल सकती थी... माँ बेचारी तो गाँव की सीधी - सादी महिला थी फिर भी उन्होंने पूरी कोशिश की बच्चों को समझाने , दिलासा देने की...
पर  पिता की जगह तो उसे ही लेनी थी क्योंकि वही घर
में सबसे बड़ी थी और शिक्षित भी । अनुकम्पा नियुक्ति
के तहत पिताजी के स्कूल में ही वह शिक्षिका नियुक्त
हो गई ।
        कितनी जल्दी सब कुछ बदल गया  - पंख के आने से परवाज़ बदल जाते हैं , परिस्थितियां बदल जाने से अंदाज बदल जाते हैं ... उमंगों , शोखियों की जगह अब
गम्भीरता ने ले लिया  ...परिवार की जिम्मेदारी के एहसास ने उसके व्यक्तित्व को पूरा ही बदल दिया .बेरहम वक्त  ने उसे कल्पनाओं  की कोमल  बिछौने से उठाकर यथार्थ के ठोस धरातल पर ला पटका  था । प्रवीण ने इस बुरे हालात में उसे सांत्वना
दी ..उसका साथ निभाना चाहा पर स्वाभिमानी रचना ने
उसे अपने भविष्य पर ध्यान देने का निवेदन किया ।
         अब रचना के जीवन का उद्देश्य अपने  छोटे भाई-
बहनों की पढ़ाई और उनका भविष्य सँवारना था जिसमें
वह पूरी ततपरता से जुट गई । अपने बारे में सोचने की उसे फुर्सत ही कहाँ थी ...दो वर्षों में प्रवीण की भी नौकरी लग गई , अब वह शादी  की  जल्दी करने लगा...पर रचना ! वह अपनी जिम्मेदारियों से  मुक्त नहीं
हुई थी उसने कहा - "प्रवीण , अभी तो मुझे बहुत लंबा
सफर तय करना है.... तुम आखिरी  कब  तक  मेरा
इंतजार करोगे....तुम कहीं और शादी कर लो....मैं अपने
स्वार्थ के लिए माँ और छोटे भाई - बहनों को मझधार में
असहाय   कैसे छोड़ दूँ ।"
        शायद प्रवीण के प्यार में भी इतना धैर्य  और साहस नहीं था कि उसके साथ उसकी जिम्मेदारियों
को अपना सके....टूटे  मन से उसे  दूर जाते देख रचना
अपने - आपको सम्भाल नहीं  पाई और फूट - फूट कर
रोने लगी ...माँ उसका दुःख समझती थी पर वह आखिर क्या करती !
        समय - चक्र चलता रहा... रचना सुन्दर थी , नौकरी कर रही थी... उसकी शादी के लिए कई  प्रस्ताव
आये पर उसने सबको ठुकरा दिया क्योंकि कोई भी
शख्स ऐसा न था जो उसके साथ उसकी  जिम्मेदारियों
को  भी अपनाने की  हिम्मत करता इसलिए उसने विवाह न करने की ठान ली ।
       लोगों की बातें  सुनते , समाज से लड़ते उसने अपने
दायित्व का निर्वहन किया  ....उसके खून - पसीने से सींचे हुए पौधे बड़े हुए और फूलने - फलने लगे । भाई-
बहन आत्मनिर्भर हो गए और  बहनों की अच्छी जगह
शादी हो गई ...वे अपने परिवार में खुशहाल हैं ।
       अब रचना अपने - आपको बहुत ही निश्चिंत महसूस कर रही थी ...एक अलग तरह की खुशी का
एहसास कर रही थी वह ; भले ही इस खुशी को पाने
के  लिए उसे बहुत कुछ  खोना पड़ा ।
        मैंने सोचा चलो अब तो रचना खुश रहेगी ....भाई
- बहन दीदी के त्याग को  दिल से महसूस करते थे इसलिए रचना से पूछे बिना वे कोई कार्य न करते । आशीष ने तो जिद ही पकड़ ली कि दीदी अब नौकरी
छोड़कर घर में आराम करे पर रचना ने बड़े ही प्यार
से उसे समझा दिया कि काम अब उसके जीवन का
हिस्सा बन गया है , हाँ  अब वह ट्यूशन नहीं लिया
करेगी ।
        बड़े ही धूमधाम से उसने आशीष की शादी की...
खुशियाँ कुछ दिन ही मेहमान की तरह आई और चली
गई ...रचना के त्याग और परिश्रम का मोल पराये घर
से आई रीमा  कैसे पहचानती  । हालांकि आशीष ने
उसे दीदी के बारे में सब कुछ बताया था पर सुनने और
महसूस करने में फर्क होता  है। रीमा दीदी के संघर्षों को
सुनकर कैसे महसूस करती  ..उसे लगता कि उसका पति उससे अधिक महत्व अपनी दीदी को देता है ...कोई भी काम हो दीदी से पूछ लो... कुछ लेना हो
दीदी....वह हर बात में दीदी से अपनी तुलना करने लगी...बड़ा अजीब है मानव का यह स्वभाव  , एक बार
हमारा मन किसी को गलत   मान  ले तो बस फिर उस
व्यक्ति के अवगुण ही हमें दिखते हैं  उसकी सारी
अच्छाइयाँ दब जाती हैं । उसी तरह रीमा को आज
घर में दीदी की प्रधानता अखर रही थी । इस घर को
बनाने के  लिये उन्होंने क्या - क्या त्याग किया है , उसके
बारे में उसने कभी नहीं सोचा....बेचारा आशीष ! वह
रीमा को समझा - समझा कर थक गया था... घर में
अशांति होने लगी आखिरकार रचना को एक बार फिर
भाई की खुशी के लिए अपना ही घर त्यागना पड़ा...
अपने ही द्वारा बसाये गए चमन को  उजड़ते हुए वह
कैसे देख  सकती थी...।
         अब वह अपने स्कूल के पास ही एक किराये के
मकान में माँ के साथ रहती है ; वहीं से उसने मुझे यह
पत्र लिखा है ....बिल्कुल सच कहती है रचना...मृग-
मरीचिका बन गया है उसका जीवन ...खुशियों की
तलाश में भटकती रचना ...आखिर कब खत्म होगा
उसका यह भटकाव....शायद उसके द्वारा   लिया हुआ
यह आखिरी निर्णय उसे सच्ची खुशियाँ प्रदान कर सके-
वृद्धों की संस्था "आश्रय " में अपनी सेवा देने का ।
       मेरा मन उसके प्रति शुभेच्छाओं से भर गया  ....
रचना , तुम कभी हार न  मानना... कभी न कभी तुम्हारा यह भटकाव खत्म तो होगा ही , तुम्हें  अपनी
मंजिल कभी तो मिलेगी । मरीचिका  का जीवन क्षणिक
होता है ...धूप - छाँव का खेल ....तुम्हारे सेवाभाव और
त्याग की  बदली तुम्हारे जीवन की दुखों भरी मरिचिकाओं को नष्ट कर दे और स्नेह जल बरसाए , यही मेरी दुआ है ।

☺️☺️☺️डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
         

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