Monday, 28 August 2017

अंतिम परिणति # ओ वूमनिया ( कहानी )

    नदी की शांत जलधार में अपने दोनों पैर डाले वह
बड़े सुकून से स्निग्ध चाँदनी के सौंदर्य को निहार रही
थी कि अचानक लगा उसे कोई गहराई में खींच रहा है
और  वह अथाह जलराशि में आकंठ डूबी हाथ - पैर
मार रही है । उसे तैरना नहीं आता पर वह अपने - आपको बचाने का भरसक प्रयास कर रही है....अब
उसका दम घुटने लगा था और वह निढाल हो रही थी.
...उसने मौत के आगे हथियार डाल दिया और आत्म
समर्पण कर दिया था.....गहरी , लम्बी...लम्बी साँसें भरती हुई रश्मि बदहवास सी उठ पड़ी थी... उसके कपड़े पसीने से तर - बतर थे । यह कैसा स्वप्न था...उसका अंग - प्रत्यंग दर्द से टीस रहा था । कहते
हैं स्वप्न  मन की दबी , सुप्त भावनाओं की ही अभिव्यक्ति होती है । वैवाहिक जीवन के चौथे वर्ष में
प्रवेश करने के साथ उसके पति राकेश की ज्यादतियाँ
बढ़ने लगी थीं । डांट - फटकार , गाली - गलौज से बढ़कर अब वह उस पर हाथ भी उठाने लगा था । छोटी
छोटी बातों में बाल पकड़ कर खींचना , थप्पड़ मार देना
तो आम बात थी । पति के दुर्व्यवहार  के कारण उसने
अपने मायके से भी दूरी बना ली थी । वह तो इस नर्क
में फँस ही चुकी थी , माँ - पिताजी को बताकर उन्हें और दुखी नहीं करना चाहती थी । वैसे ही उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी..वहाँ जाकर उन पर बोझ नहीं बनना चाहती थी ...यहाँ कम से कम पति
का आश्रय तो है ; बस यही वजह उसे  अपनी तकलीफ
भरी जिंदगी से समझौता करने को  मजबूर कर देती ।
     आखिर क्या कमी है उसमें ? शायद यही उसका
दोष है कि वह राकेश से कहीं अधिक पढ़ी - लिखी और
सुन्दर है । शायद उसका बेहतर होना ही राकेश को हीनता का एहसास कराता है और वह अपनी मर्दानगी
दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देता । उसकी सुंदरता उसकी दुश्मन हो गई है जिसके कारण
वह उसे घर से बाहर नहीं निकलने देता , यहाँ तक कि
अपने दोस्तों के सामने भी उसे जलील करने से नहीं
चूकता । राकेश की नौकरी , सम्पत्ति ने पिताजी को
दिग्भ्रमित कर दिया.. अपने से कहीं बेहतर परिवार
रश्मि को मिला है सोचकर ही वे बेहद प्रफुल्लित थे । मन में एक प्रकार का मलाल भी था कि वे अपने घर
में अपनी लाडली बेटी को जो सुख - सुविधाएं न दे पाए
वो उसे शादी के बाद नसीब हों । वह हमेशा खुशहाल
रहे , किसी प्रकार की आर्थिक तंगी का उसे मुँह न देखना पड़े पर वे क्या जानते थे सिक्कों की  चमक के पीछे
कितने अंधेरे हैं । सम्पत्ति सदैव सुख नहीं देती , कभी - कभी यह दुर्व्यसनों की धात्री बन जाती है । अहंकार और नशे की लत ने राकेश की सोचने - समझने की
शक्ति भी  छीन ली थी और उसने  रश्मि का जीना दूभर
कर दिया था ।
  अब रश्मि दो वर्ष के पुत्र अवि की माँ बन चुकी थी ।
पति की हिंसा सहकर भी वह चुपचाप अपने दायित्व निभाये जा रही थी । पर अपने मन  के बेलगाम घोड़े को
कैसे बाँधे जो रह - रहकर ऐसे डरावने सपने उसे दिखाते रहता । कभी वह रेगिस्तान में दौड़ते - दौड़ते
बेदम होकर रेत के टीलों में दब जाती... कभी किसी
भयावह घने जंगल में बेतहाशा इधर से उधर भागती रहती और अचानक कोई भयानक जानवर उसे चीरने -
फाड़ने को सामने आ जाता । ये दुःस्वप्न उसे बेहद डराते
थे और वह रोज ही अपने मन के बनाये साजिशों से लड़ती ।
      पर  उस रात....उसने देखा नशे में धुत राकेश उस पर लात - घूँसे बरसा रहा है , तभी उसका लाडला अवि
उसे बचाने बीच में आ जाता है । वह रोते - रोते पापा से
कहने लगता है - मेरी माँ  को मत मारो पापा , उसे छोड़
दो और राकेश...उसे उठाकर पटक देता है... अवि के सिर से खून बहने लगता है...वह निश्चेष्ट  पड़ा है...बेटे की ओर दौड़ती रश्मि  को भी सिर पर पति की मार लगती  है और वह गिर पड़ती है ...रश्मि अपने - आपको और बेटे को रक्तरंजित देखती है...उसकी साँसे
धौंकनी की तरह चलने लगती है और वह बरबस चिल्ला
पड़ती है-नहीं....नींद में ही राकेश के हाथ - पैर चलने
लगते हैं - साली ...न खुद ठीक से सोती और न दूसरों को सोने देती....थोड़ी देर बाद फिर से उसकी नाक बजने लगी ।
     उसके बाद रश्मि सो नहीं पाई.....होठों के पास कुछ
तरलता महसूस हुई...शायद खून बह रहा था... बगल में
सोये हुए बेटे की ओर देखा...नन्हीं सी जान मुस्कुराते हुए गहरी निद्रा में सोया हुआ था । आज के डरावने स्वप्न ने उसे सचमुच जगा दिया था और उसे किसी भयावह भविष्य से आगाह कर रहा था... उसने दृढ़
निश्चय कर लिया था , न उसे समाज का डर था और न
ही किसी और बात का... वह   सधे हुए कदमों से अवि को गोद में  लेकर  निकल पड़ी थी एक नई राह तलाशने । सुबह राकेश पूरे घर में दहाड़ रहा था - रश्मि ! कहाँ मर गई...मेरी चाय कहाँ है? पर वहाँ उसकी सुनने वाला कोई नहीं था ...उसने देखा  , पिंजरे  का दरवाजा खुला हुआ था....  उसकी पाली हुई चिड़िया  उड़ चुकी थी

    ☺️☺️☺️स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग ,              
                                    छत्तीसगढ़

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