दस बरस में आज पहली बार दुखनी मौसी मुझे अच्छी लगी थी । मेरे ही नहीं , गाँव के बच्चे , बूढ़े , जवान सभी की जबान पर मौसी की ही चर्चा थी ...
आज हम सबने उनका एक नया रूप जो देखा था ।
दुखनी मौसी मेरी सगी तो क्या , दूर की भी मौसी
नहीं थीं पर सारा गाँव उन्हें मौसी ही कहता था । पति की मौत के बाद वह अकेली हो गई थी और अपने बगीचे में फल व सब्जी उगाकर उन्हें बेचकर अपना
जीवन - यापन करती थी । बच्चों से उनका अधिक सम्पर्क इसीलिए होता था क्योंकि उनके बगीचे के अच्छे
- अच्छे अमरूद चुरा कर खाना उनका सबसे पसंदीदा
काम था । मोहल्ले के सारे बच्चे उनके लिए शैतान का
अवतार थे और वह उन्हें देखते ही आग - बबूला हो जाती । गाली देने के साथ - साथ अपनी लट्ठ लिए जो
दौड़ाती तो बच्चों की शामत ही आ जाती । हैरत की बात है कि कई बार हाथ आने पर भी उन्होंने किसी बच्चे को पीटा नहीं ..सिर्फ आँखे तरेर घुड़क कर छोड़
दिया ।
दुखनी अपने नाम के अनुरूप परम दुखियारी
लगती थी । पैबन्दों भरी साड़ी , मैले - कुचैले हाथ - पैर
उनकी दरिद्रता प्रदर्शित करते थे । उनका रंग साफ था
पर सामने के दो बड़े दाँत उनके झुर्रियों भरे चेहरे को
डरावना बना देते थे । उनके रूखे , बेजान , अधपके
बाल जंगली लताओं की तरह उलझे ही रहते । अकेलेपन ने उनके जीवन को शुष्क और कठोर बना दिया था और उनके कर्कश स्वभाव ने उन्हें सबसे दूर
कर दिया था । न वह कहीं जाती , न किसी को अपने
घर बुलाती । सब्जी , फल बेचकर उन्हें जीने - खाने के लिये पर्याप्त धन मिल जाता । जरूरी चीजों के अतिरिक्त और किसी भी चीज के लिये वह कोई खर्च
न करतीं ...न अपने लिये न दूसरों के लिये । गाँव के लोग उन पर छींटाकशी करते - क्या करोगी मौसी इतना
जोड़कर ....अपने साथ ऊपर ले जाओगी क्या ...पर वह चिकने घड़े की तरह अपने उसूलों पर कायम रही।
बरसों से न उनका रहन - सहन बदला और न खान - पान , न व्यवहार ।
उनके घर की दीवारों के पलस्तर उनके बीतते
उम्र की तरह साथ छोड़ रहे थे , पर उन्होंने कभी मरम्मत भी नहीं कराया । बस , दिन - रात अपने बगीचे
की देखभाल में लगी रहती । सचमुच उनके बगीचे के
फल और सब्जी बेजोड़ होते थे इसलिए उनकी कड़वी
जुबान सुनकर भी सभी उन्हीं से खरीदारी करते ।
बच्चे वानरों की तरह उनके बगीचे को तहस -
नहस करते तो मौसी का रौद्र रूप देखते ही बनता ।
फिरतू उन शैतानों का सरदार था... उसका मौसी से
छत्तीस का आंकड़ा था । वह उन्हें कुछ ज्यादा ही सताता था । कभी उनकी साड़ी के पैबन्द गिनकर , तो
कभी उनकी लाठी छुपाकर उन्हें खूब चिढ़ाता । उनके
बगीचे के फल तोड़कर उन्हें दिखा - दिखा कर खाता..
जब मौसी उसे मारने दौड़ती तो कहता ...भागो डायन
आ रही है , खा जायेगी ।
कुछ दिनों से बगीचे में बड़ी शांति थी...न बच्चे
बगीचे में दिखते और न फिरतू । मौसी बड़ी बेचैन रहती..कभी गाँव की पगडंडियों की तरफ देखती ... कभी संशय से अपने पेड़ों को ...इस बार अच्छे फल
नहीं आये क्या ....हफ्ता बीतते उनसे रहा नहीं गया ।
एक बच्चे को रोककर पूछ ही लिया - क्यों रे ! कहाँ है
वो सन्तू का छोरा ? तुम लोग कैसे नहीं आते बगीचे में ?
डर गये न मुझसे ?
" मौसी , वह तो बहुत बीमार है ...उसके बापू कहते हैं शहर में उसका ऑपरेशन कराना पड़ेगा नई तो
वह नहीं बचेगा " -बच्चे का जवाब सुनकर मौसी अवाक रह गई । पूरी रात आँखों में काट दी और सुबह
बेसुध सी सन्तू के घर पहुंच गई । उन्हें वहाँ जाते देख
सभी चकित हो उनके पीछे चलने लगे ।
मौसी फिरतू के पिता से रुँधे स्वर में बोली - क्यों रे सन्तू , इतना गैर बना दिया मुझे....इतनी बड़ी
आफत तेरे घर आई और मुझे खबर भी नहीं दिया । फिर धीरे से अपने कमर से रुपयों की एक थैली निकाल
कर सन्तू के हाथ में रखते हुए बोली -" जा जल्दी से
शहर ले जाकर इसका इलाज करा ।" सन्तू की आँखों
से झर - झर आँसू बहने लगे । बड़ी मुश्किल से इतना
ही बोल पाया - नहीं मौसी , इसे रहने दो...यह तुम्हारी
जीवन भर की कमाई है ..तुमने कितनी तकलीफें उठाकर इन्हें जमा किया है , क्या मैं नहीं जानता ।
संकोच मत कर सन्तू , ले ले । जा देर मत कर..
एक भले काम के लिये ही ये रुपये जमा किये थे मैने..
बच्चे की जान बचाने से भला दूसरा काम क्या होगा ...
मेरी बगिया के फूल ऐसे मुरझाये हैं जैसे उन्हें जड़ से
निकाल दिया गया हो। इन बच्चों की शरारत , इनकी
बदमाशी यही तो मेरे जीने का सहारा है । इनके बिना
मेरी बगिया सूनी है । फिर फिरतू की ओर झुककर बोली
- फिरतू तू जल्दी ठीक होकर आना.... मेरे बगीचे के
अमरूद इस बार खूब पके हैं ....मैं उन्हें नहीं बेचूंगी...
तेरा इंतजार करूँगी ....तू जल्दी आना हाँ.... दुखनी
मौसी की आँखों से ढलते आँसू सूखी बंजर धरती पर
मीठे पानी के स्त्रोत की तरह लग रहे थे । सभी विस्मित
भाव से उन्हें देख रहे थे । उनके शुष्क हृदय में ममता
का इतना गहरा सागर लहरा रहा था और किसी को
इसकी खबर तक नहीं थी । जीवन भर अभावों का
दर्द झेलती दुखनी मौसी की आँखों में आज त्याग और
समर्पण का सुख छलक रहा था ।
☺️☺️☺️ स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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