Sunday, 20 August 2017

निर्णय ( कहानी )

      आज एक निर्णय लेकर  शर्मा जी  बहुत ही निश्चिंत
महसूस कर रहे थे । बहुत समय से उनके दिलों - दिमाग
में एक कशमकश सी चल रही थी ...लेकिन पिछले एक
महीने की लंबी बीमारी  ने उनकी उलझनों को दूर कर
दिया था ।
          दो  वर्ष पूर्व प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त शर्माजी
की पत्नी का देहांत कई वर्ष पूर्व हो चुका था । तीनों  बेटे अच्छे पदों पर नियुक्त थे और अपने - अपने परिवार
के साथ खुश थे । एक बेटा उसी शहर में था पर पिता का मकान  उसे छोटा पड़ता था इसलिए  वह अलग रहता था । उसने पिता को अपने साथ रहने  का अनुरोध किया था  पर शर्मा जी...भला कैसे  जा सकते थे अपने
उस  घर को छोड़कर जिसे उन्होंने अपनी खून - पसीने
की कमाई से  बनवाया था ; फिर अतीत की सारी यादों
को यह घर समेटे हुए था..बस ये यादें ही तो उनकी तन्हाई की एकमात्र साथी  थीं । बेटे अपने परिवार  के
साथ कभी - कभी आते तो घर जैसे खुशियों से चहक
उठता , लेकिन उनके जाने के बाद फिर सूना घर  काटने
को दौड़ता । मकान की देखभाल में परेशानी  और सूनेपन की वजह से उन्होंने  घर का आधा हिस्सा किराये पर दे दिया था  ।  श्याम , उसकी पत्नी रेखा और उनका बेटा पिंटू आये तो किरायेदार बनकर थे ...
पर शर्माजी के स्नेह ने उन्हें घर का सदस्य ही बना दिया । पितृविहीन श्याम उनका प्यार पाकर गदगद हो उठा ।
पिंटू भी दिन भर दादा - दादाजी कहते शर्मा जी के पास
ही रहता ।
          श्याम और उसके परिवार के आ जाने के बाद मानों शर्मा जी को नई जिंदगी मिल गई । रिटायरमेंट के
बाद जीवन कुछ रुक  सा गया था , अकेलेपन से उन्हें
घबराहट होने  लगी थी । श्याम से उन्होंने जो अपनापन
पाया , कभी - कभी लगता कि यह सब तो उनके बेटों को करना  था । उम्र के अंतिम पड़ाव में ही तो व्यक्ति को  किसी सहारे की आवश्यकता होती है पर बेटों को
इस बात का  एहसास न था । तीनों एक - दूसरे पर टाल
कर पिता की जिम्मेदारी लेने से बचना चाहते थे ।
        श्याम के परिवार के साथ ही शर्मा जी ने अपने - आपको जोड़ लिया था । दो वर्षों के साथ ने उनके सम्बन्धों को इतना प्रगाढ़ कर दिया था कि लोगों के लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता था कि वे
मकानमालिक - किराएदार हैं । बेटों के तिरस्कार के गम
को  इस मधुर सम्बन्ध  ने बहुत कुछ कम कर दिया था ।
       एक माह की लंबी बीमारी के दौरान उन्हें लगा कि
रिश्तों के मायने ही बदल गए हैं । इस बीमारी ने उन्हें
अपने - पराये की पहचान करा दी । श्याम और रेखा ने
उनकी बहुत सेवा की । शर्मा जी को तो होश भी नहीं था
पर श्याम ने  पता नहीं किस तरह उनकी दवा  और डॉक्टर की फीस का खर्च उठाया होगा वे इसका अनुमान लगा सकते थे क्योंकि उसकी सीमित आय के
बारे में उन्हें सब कुछ पता था । पर आश्चर्य कि पति - पत्नी के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं थी । उनके अपने तो उन्हें देखने तक नहीं आये  । शायद श्याम ने
उनकी बीमारी की खबर उन्हें दी थी , पर वे मात्र सहानुभूति दर्शा कर रह गए  । श्याम ने बेटों की  बेरुखी
का जिक्र भी नहीं किया ताकि उन्हें कोई तकलीफ न
पहुँचे बल्कि उनकी कमियों को ढाँपने की कोशिश की यह कहकर कि वे शहर में नहीं हैं ...बाहर गए हुए हैं ।
      अभी वे अस्पताल से घर आये ही थे कि बेटे मिलने
आने लगे ...शायद अब उन्हें लगने लगा था कि अब पिताजी अधिक दिन नहीं जी पाएंगे इसलिये मकान के
बंटवारे की फिक्र उन्हें खींच लाई थी । शर्मा जी बीमारी से नहीं , बेटों की स्वार्थपरता से हार गए थे । अपने खून
का ऐसा बर्ताव देखकर वे बिल्कुल टूट गए थे । माँ - बाप अपना पूरा जीवन बच्चों को बड़ा करने , उन्हें पढ़ाने , उनका भविष्य संवारने के लिये होम कर देते हैं... अपनी कई ख्वाहिशों का गला घोंटकर बच्चों की
जरूरतों को पूरी करते हैं , पर ये बच्चे उन्हें बोझ समझने लगते हैं ...एक बार भी उनके त्याग के बारे में
नहीं सोचते । माता - पिता के प्रयास के बिना क्या  वे
उस स्थान पर होते जहाँ वे अभी हैं ।अगर उन्हें इस बात
का एहसास होता  तो ये वृद्धाश्रम बनते ही क्यों? जिनके माता - पिता नहीं होते वे ही इस पीड़ा को महसूस करते हैं ...वो अपने बच्चों के सिर पर आशीष
और संस्कारों की छांव ढूंढते हैं.. रात को कहानी सुनाने
के बहाने नैतिक मूल्यों के बीज  बाल मन में रोपने वाले
दादी या दादा की कमी महसूस करते हैं । सही है जिसे
जो चीज आसानी  से मिल जाती है , उसे उसकी कद्र
नहीं होती ...श्याम यह सब देखकर यही सोच रहा था ।
       शर्मा जी को उदास और हताश पाकर एक दिन श्याम ने उन्हें समझाया था -- " चाचाजी , आप निराश न
होइये ...आप शीघ्र अच्छे हो जायेंगे । हमें आपकी  स्नेह- छाया की आवश्यकता है , आपको हमारे लिये जीना होगा ....क्या हम आपके कुछ नहीं हैं ? क्या खून
का रिश्ता ही सबसे बड़ा होता है , प्यार का रिश्ता कुछ
नहीं होता ।"
          श्याम की इन्हीं बातों ने तो  उनमें जीने की आस जगाई थी और उन्हें मौत के भँवर से खींच निकाला था...आज वे बिल्कुल स्वस्थ हो चुके हैं । इन्हीं सब से
प्रेरित होकर आज उन्होंने यह निर्णय लिया था कि प्यार
के धागे से बंधे इस रिश्ते को वे कभी टूटने न देंगे ।बेटों
के प्रति जो उनका दायित्व था वो तो निभा दिया , अब
बारी  दूसरों की है ।जो माता - पिता अपने बच्चों से
तिरस्कृत हो वृद्धाश्रम में रह रहे हैं उनके लिए उन्होंने
अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा दे दिया  और  जिस
सूने आँगन को अपने प्यार  व अपनेपन के द्वारा महकाया उस श्याम  को अपने बाद उस घर में सदा रहने का अधिकार  दिया ....उनका इतना  स्नेह पाकर
श्याम  हतप्रभ था पर खुश भी ।
      शर्मा जी के इस निर्णय के बारे में जब सबको पता
चला तो वे स्तब्ध रह गए । बेटों को  मात्र इस बात का
अफसोस था कि पिता की सम्पत्ति से वे वंचित हो गए लेकिन श्याम....उसे तो पिता के प्यार की ऐसी सम्पति
मिली थी कि हर्षातिरेक से छलकते आँसूओं को वह
रोक नहीं पाया ।
   स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️☺️

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