Sunday, 30 December 2018

नया वर्ष

वर्षांत या नए वर्ष का आगाज़.. विदाई और मिलन रूपी जीवन के दो पहलुओं  की सटीक व्याख्या करता है । अंत होने पर ही आरम्भ होता है , कुछ नया पाने के लिए पुरातन का मोह छोड़ना पड़ता है ...बस यही हम नहीं कर पाते । हम बहुत कुछ पुरानी चीजें भी पकड़े रहना चाहते हैं..और नया पाने को लालायित रहते हैं । क्या मुट्ठी बाँधे हुए कुछ और पकड़ा जा सकता है.. नहीं  ! उसके लिए मुठ्ठी तो खोलनी ही पड़ेगी । बीज को धरती में दबाने पर उसका अस्तित्व खत्म होता है तभी एक नये पौधे का जन्म होता है , यदि बीज अपने अस्तित्व मिटने के डर से मिट्टी में मिलने से इन्कार करे तो क्या उसका एक नया खूबसूरत परिवर्तन देखने को मिलेगा ? तो नये परिवर्तनों का स्वागत कीजिये यदि उसके लिए कुछ पुराना दांव पर लगाना पड़े फिर भी । वक्त की धरा में नई उम्मीदों  , आशाओं के बीज रोपिये...अपने स्नेह, कर्म व परिश्रम का सिंचन कीजिये और सफलता , खुशी , सन्तोषरूपी फल का आस्वादन कीजिए । सिर्फ यही नहीं जीवन का प्रत्येक वर्ष आपके लिए मुबारक हो इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आपकी अपनी दीक्षा ।
31 / 12 / 2018

Unexpected friends ( संस्मरण )

#Unexpected friends #
दोस्ती का अर्थ ही है बिना किसी अपेक्षा के साथ निभाना... जहाँ अपेक्षा है , कुछ पाने की चाहत है वहाँ दोस्ती हो ही नहीं सकती । लेन - देन तो व्यापार में होता है , दोस्ती में हिसाब नहीं रखा जाता कि सामने वाले ने मेरे लिए कितना किया...। सच पूछें तो मुझे दोस्त बनाने में कभी यकीन नहीं  रहा क्योंकि कई लोगों को देखा जो अपने मतलब के लिए दोस्त बनाते हैं इसलिए मैं कभी किसी से उतना लगाव नहीं रखती थी । स्कूल में मेरे सबसे मधुर सम्बन्ध रहे पर पक्की दोस्ती वाली बात कहीं नहीं रही । जब पी. जी. करने रायपुर गई तो मेरे कमरे के बगल में कोरबा की रेखा रहने आई । एक ही विषय , एक कक्षा तो साथ - साथ आने - जाने , खाने लगे । वह मेरा बहुत खयाल रखती , मेरे बारे में हमेशा अच्छा ही सोचती , मेरी सुविधाओं के बारे में सोचकर ही हर काम करती पर मेरे मन में पहले से ही धारणा थी कि अधिक लगाव रखने से स्वयं को ही तकलीफ होती है तो मैं उसे ज्यादा भाव नहीं देती थी और मेरे अपने सभी क्लासमेट्स से अच्छे सम्बन्ध थे तो मैं उसके लिए कोई विशेष महत्व नहीं दिखाती थी । पर उसे मुझसे विशेष लगाव बना रहा और उसने अपना  स्वभाव नहीं बदला..पढ़ाई पूरी होने के बाद जाते हुए उसने मुझे जो कहा , उसने मेरी धारणा बदल दी । पता नहीं तू मुझे याद करेगी कि नहीं लेकिन मैं तुझे बहुत मिस करूँगी । जिसे दूसरों का बहुत प्यार मिलता है उसे उसकी कद्र नहीं होती , तुझे हर किसी से बहुत प्यार मिलता है इसलिए तू बहुत लापरवाह रहती है। जिनके पास अच्छे दोस्त नहीं होते उनसे पूछना , एक अच्छा दोस्त खोना कितना दुख देता है । उसकी बातों ने मेरी आँखों में आँसू ला दिये.. सच में उसके जीवन में बहुत संघर्ष और विपरीत परिस्थितिया आई..चालीस वर्ष की उम्र में उसने अपने पति को खो दिया  और इस दुःख की घड़ी में मैं उसके साथ हूँ ।  मुझे खुशी है कि सही समय में मैंने दोस्ती का अर्थ जान लिया और आज भी  हमारी दोस्ती बरकरार है । अब मेरे बहुत सारे दोस्त हैं ।
स्वरचित ...डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 29 December 2018

आजा घरे म हमार

पुन्नी कस उजियार ,
तोर रूप ओ रानी...
आजा घरे  म हमार ,
संवर  जाय  जिनगानी...
नागिन सही चुन्दी तोर ,
बादर ला लजावत हे...
तोर आँखि के दाहरा म ,
मन मछरी फड़फड़ावत हे..
अपन रूप के दरस कराके ,
एला पिया दे पानी...
आजा घरे मा हमार ,
सुधर जाय जिनगानी ।।
मुड़ म पानी बोह के तेहा ,
कनिहा ल मटकाथस वो...
सुध बुध ल गंवा देथस मोला ,
रद्दा ले भटकाथस वो...
थाम ले मोर बांहा ला ,
संगे चलबो दुनों परानी...।
आजा घरे मा हमार ,
सुधर जाय जिनगानी ।।
मनमोहिनी तोर रूप ह ,
आँखि म मोर बस गे हे...
मोर  करेजा के हिरना ल ,
नैन बान तोर लग गे हे...
तोर पिरीत के अंचरा म ,
बांध के ले जा मोर जवानी..।
आजा घरे मा हमार ,
संवर जाय जिनगानी ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़



Wednesday, 26 December 2018

कल जब मैं नहीं रहूँगी 2

सोचती हूँ ,
कल जब मैं नहीं रहूँगी...
उलझे पड़े रहेंगे चादर ,
यहाँ वहाँ बिखरे होंगे सामान..
घर भले ही बिखरा हो ,
परिवार बिखरने मत देना...
स्नेह- डोर में बंधे रहना...
रोज सफाई न कर पाओ ,
आँगन में रंगोली न बनाओ..
पर पौधों को पानी देते रहना ,
फूलों को कुम्हलाने मत देना..
रात को थकहार कर आओगे ,
ढूंढोगे पर मुझे न पाओगे...
मन को उदास मत करना ,
अपनी मुस्कान में मुझे महसूसना..
घूम आना किसी ऐतिहासिक जगह ,
पढ़ना पत्थरों पर लिखी इबारतें..
देखना इमारतों की नक्काशियाँ ,
वहीं कहीं होऊँगी आस - पास
अपनी आँखों में ,
मेरे ख्वाब मुकम्मल करना..
उदास मत होना...

Monday, 24 December 2018

कल जब मैं नहीं रहूँगी

सोचती हूँ कल जब मैं नहीं रहूँगी..
तो क्या होगा..
नहीं थमेगा वक्त का पहिया ,
नहीं रुकेगा कोई काम..
दुनिया को क्या फर्क पड़ता है ,
किसी के होने न होने से...
पर , कोई दोस्त याद तो करेगा न ,
अपने जन्मदिन पर
मेरी शुभकामनाएं न मिलने  से...
पिता तो याद करेंगे ,
उनके स्वास्थ्य के लिए ,
चिंतित होती , परेशान होती ,
अपनी बेटी की नादानियों को...
माँ क्या भूल पायेगी ,
वो लाड़ - दुलार , मनुहारें ,
बेटी की अनगिन कहानियाँ...
भाई क्या याद न करेंगे ,
वो रूठना - मनाना ,
साथ खाना , खेलना
त्यौहारों की रवायतें...
बहन भूल तो नहीं पाएगी ,
मेरी  प्यार भरी शरारतें ,
खट्टी - मीठी यादों की साझेदारी ,
ख्वाबों  ख्वाहिशों की हिस्सेदारी...
वो खास सहेली पहचान लेगी न
हवा में घुली मेरी गन्ध ,
जो पहचान लेती थी छूकर
उसकी आँखों को मूंदे मेरे हाथ...
वो बगीचे के गुलाब ,
फिर बिखरायेंगे वही मुस्कान ,
वही भीनी सी मोगरे की गंध
सहला जायेगी मेरा आँचल..
बिखर जाऊँगी मैं बीज बनकर ,
खेतों - खलिहानों में ,
सावन की पहली बारिश से ,
मिट्टी की सोंधी महक  में घुल जाऊँगी...
अंकुरित , पल्लवित हो ,
फूल बन कर मुस्कुराउंगी...
हाँ , इस धरा पर मैं फिर आऊँगी...

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 16 December 2018

अंतिम विदाई

अंतिम विदाई

दुश्मनों के आगे शीश नहीं झुकाया है ,
माँ की कोख को कभी नहीं लजाया है ,
जरा  मैं उसकी  आरती उतार लूँ...
बेटा तिरंगे में सज कर आया है ,
जरा ठहरो ! उसे जी भर  निहार लूँ...
सौ - सौ मनौतियाँ मानकर ,
ईश्वर से  उसे माँगा था..
बाँधे थे कई ताबीज ,
काजल का टीका लगाया था.. 
सुशोभित उस वीर की ,
आज फिर नजरें उतार लूँ...
बेटा तिरंगे में सजकर आया है ,
जरा ठहरो ! उसे जी भर निहार लूँ ..।
खेल कर बाहर से ,
जब भी घर आता था...
माँ तेरी गोद भली है ,
कह मुझसे लिपट जाता था...
चिरनिद्रा में सो गया  वह ,
जरा उसकी अलकें सँवार लूँ...
बेटा तिरंगे में सजकर आया है ,
जरा ठहरो ! उसे जी भर निहार लूँ..
उंगली मेरी थाम ,
उसने चलना सीखा था...
संघर्ष ,परिश्रम  कर ,
जीवन जीना सीखा था..
अंतिम सफर पर निकला है  ,
यह सुन्दर छवि सीने में उतार लूँ....
बेटा तिरंगे में सजकर आया है ,
जरा ठहरो! उसे जी भर निहार लूँ...
मेरे लाल पर तन - मन -धन  वार दूँ...

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 8 December 2018

फैसला ( लघुकथा )

लप्रेक ( लघु प्रेम कथा )
अदालत द्वारा दी गई एक महीने की मोहलत का आखिरी दिन...उन्होंने  प्रेम विवाह किया था...उसके बाद परिवारों की दखलंदाजी और गलतफहमियों के कारण दोनों के बीच दूरियाँ आती गई । रिश्ते इतने  उलझ गए थे कि सुलझाते - सुलझाते बहुत देर हो गई ।एक - दूसरे पर तोहमत लगाते  थक गए थे वे पर दिलों में झाँकने  की कोशिश नहीं कर पाये । आज चलते - चलते एक - दूसरे की आँखों में देख रहे थे वे अपना प्यार भरा अतीत...मीठी यादों ने वर्तमान की सारी कड़वाहटें भुला दी ...दिलों पर जमी  गलतफहमियों , शिकायतों की गर्द आँसुओं से धुल चुकी थी... फैसला हो गया था , लड़ेंगे , झगड़ेंगे पर साथ रहेंगे...प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी...
गहराइयों ने आँखों की , दिल का हाल कह दिया...
लब खामोश रहे ,ढलते आँसुओं ने जज्बात कह दिया...
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 4 December 2018

वो माँ है ( लघुकथा )

ट्यूशन क्लास में पहुँचकर अमित  बड़बड़ा रहा था.. अरे क्या हुआ ! नवीन ने पूछा । सिविल लाइंस के पास एक  आंटी अक्सर मुझे रोक कर मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी नहीं चलाने के लिए भाषण देती है ,... हाँ हाँ हमें भी उन्होंने टोका था  उसकी बात सुनकर अजय , राकेश और सुमित भी वहाँ आ गए थे । आजकल लोगों  पर न ...समाजसेवा का भूत सवार हो गया है.. अमित ने कहा । उन सबकी बातें सुनता अखिल बोल पड़ा... तुम लोग  ऐसा कैसे बोल सकते हो  , वो माँ है यार ..दो वर्ष पहले लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण उनके इकलौते बेटे की सड़क - दुर्घटना में  मौत हो गई थी... बस ,अब वह यही कोशिश करती है कि किसी और बेटे की जान न जाये ...। अमित और उसके दोस्तों की आँखें नम हो आई थी... उन्हें अपने ही  कहे गए शब्द चुभ रहे थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़