सोचती हूँ कल जब मैं नहीं रहूँगी..
तो क्या होगा..
नहीं थमेगा वक्त का पहिया ,
नहीं रुकेगा कोई काम..
दुनिया को क्या फर्क पड़ता है ,
किसी के होने न होने से...
पर , कोई दोस्त याद तो करेगा न ,
अपने जन्मदिन पर
मेरी शुभकामनाएं न मिलने से...
पिता तो याद करेंगे ,
उनके स्वास्थ्य के लिए ,
चिंतित होती , परेशान होती ,
अपनी बेटी की नादानियों को...
माँ क्या भूल पायेगी ,
वो लाड़ - दुलार , मनुहारें ,
बेटी की अनगिन कहानियाँ...
भाई क्या याद न करेंगे ,
वो रूठना - मनाना ,
साथ खाना , खेलना
त्यौहारों की रवायतें...
बहन भूल तो नहीं पाएगी ,
मेरी प्यार भरी शरारतें ,
खट्टी - मीठी यादों की साझेदारी ,
ख्वाबों ख्वाहिशों की हिस्सेदारी...
वो खास सहेली पहचान लेगी न
हवा में घुली मेरी गन्ध ,
जो पहचान लेती थी छूकर
उसकी आँखों को मूंदे मेरे हाथ...
वो बगीचे के गुलाब ,
फिर बिखरायेंगे वही मुस्कान ,
वही भीनी सी मोगरे की गंध
सहला जायेगी मेरा आँचल..
बिखर जाऊँगी मैं बीज बनकर ,
खेतों - खलिहानों में ,
सावन की पहली बारिश से ,
मिट्टी की सोंधी महक में घुल जाऊँगी...
अंकुरित , पल्लवित हो ,
फूल बन कर मुस्कुराउंगी...
हाँ , इस धरा पर मैं फिर आऊँगी...
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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