उस दिन चाचा जी के जन्मदिन पर सभी आये थे । बुआ , बड़ी माँ , उनकी बहुएँ , बेटियाँ परिवार के लगभग सभी सदस्य एकत्रित हुए थे । औरतों वाली बातें चल रही थीं ...तभी चाचा जी की बहू वहाँ सबके लिए चाय लेकर आई । हमारे घर में बेटी और बहू में कोई फर्क नहीं किया जाता इसलिए सभी मिलजुलकर काम निपटाते हैं , बहुत ही स्वस्थ वातावरण रहता है घर में । बुआ जी घर की बुजुर्ग हैं , बड़े ही मनोरंजक ढंग से वे हर घटना का वर्णन करती हैं । देखूँ तो बहुरिया
ने कैसी चाय बनाई है , नई बहू को चिढ़ाने के मूड में थी आज बुआ । अरे तुमने तो बड़ी अच्छी चाय बना ली...मैंने पहली रसोई में चावल के धोखे में शक्कर को धोकर भिगो दिया , थोड़ी देर के बाद ढूंढा तो गायब । सब खिलखिला उठे थे ...बुआ जी की बातें होती ही मजेदार हैं । पर यह बात सच है कि यहाँ लाड़ - प्यार में पली बुआ को रूढ़िवादी ससुराल मिला था । हमेशा पर्दे में रहती बहुएँ...उन्होंने देखा उनकी जेठानी अपने ससुर से कभी बात नहीं करती और उन्हें चाय या खाना दूर से जमीन पर रख देतीं मानो वे कोई अछूत हों । अपने घर में तो उन्होंने अपने दादा व पिता को अपनी बहुओं को बेटी की तरह ही प्यार से बातें करते देखा । उन्हें जो बातें पसन्द नहीं आई उसे उन्होंने माना भी नहीं । लीक को तोड़कर वे अपने ससुर के हाथ में ही चाय थमाती और उन्हें पिता का सम्बोधन भी देतीं । जेठानी के ऐतराज करने पर उन्होंने कह दिया मैं उन्हें अपना पिता मानती हूँ इसलिये मैं उनसे बेटी की तरह ही व्यवहार करूँगी , परायों की तरह नहीं ।
बहुत सी लीकें तोड़ी उन्होंने जो उन्हें अच्छी नहीं लगी । जेठानी एक बार ही ढेर सारा खाना बना कर रख देती ताकि कम पड़ने पर फिर न बनाना पड़े , इस तरह
बहुत खाना रोज ही फेंकना पड़ता । बुआ जी ने इस पर भी रोक लगा दी , कहा जितनी जरूरत है उतनी ही बनायेंगे । यदि कम पड़ा तो मैं हूँ ना , तुरंत बना कर दूँगी इस तरह अन्न की बर्बादी को कम कर दिया उन्होंने । पढ़ी - लिखी बहू की समझदारी से बहुत प्रसन्न हुए थे उनके ससुर जी । सासु माँ , जो दूसरी बहुओं पर विश्वास नहीं करके थोड़ा राशन निकाल कर देती थी , वह भी बुआ को घर की चाबियाँ सौंपकर निश्चिंत हो गई थी ।
अभी हँसी मजाक चल ही रह था कि राज अपनी नई नवेली दुल्हन निशा के बगल में आकर बैठ गया । बुआ बोल पड़ी- पता है हमारे जमाने में पति - पत्नी बड़ों के सामने बात भी नहीं करते थे , एक साथ बैठना तो दूर की बात है । एक ही जगह जाना होता तो भी अलग - अलग रिक्शे में जाते । मुझे बड़ा अजीब लगता , ये कैसा बडों का लिहाज है कि उनके सामने जरूरत पड़ने पर भी अपने पति से बात नहीं कर सकते , कोई तकलीफ हो तो कह नहीं सकते । बुआ ने इस नियम को भी तोड़ दिया था जब उनकी तबियत खराब हो गई थी । उनका सटीक तर्क सुनकर कोई उन्हें गलत भी नहीं कह पाता था और बुआजी घर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई थी । उनकी बातें आने वाली नई पीढ़ियों के लिए भी फायदेमंद सिद्ध हुई थी क्योंकि बुआ जी के सहयोग और तर्क के कारण ही उनके बाहर पढ़ने जाने व नौकरी करने का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
वो अक्सर कहतीं -- भई वक्त के साथ सबको बदलना पड़ता है , जो नहीं बदलेगा वह पीछे छूट जाएगा । बदलाव को स्वीकार कर ने में ही समझदारी है । जो सुविधाएं उपलब्ध होती हैं उनके अनुसार नियम बनाये जाते हैं । पहले बिजली नहीं थी तो हाथ से ही गेहूँ पीसकर खाते थे , आज आटा चक्की आने के बाद भी वही काम नहीं कर सकते न । जब आधुनिक मशीनों को हमने आसानी से अपना लिया तो आधुनिक विचारों को क्यों नहीं । अब लड़कियाँ नौकरी करने घर से बाहर जाती हैं तो उनके लिए कायदे - कानून वही वर्षों पुराने क्यों ? औरतें बाहर का काम सम्भाल रही हैं तो पुरूष घर के छोटे - मोटे काम में मदद क्यों नहीं कर सकते ? यदि पति पत्नी की मदद कर दे तो हँसी उड़ाने वाली घर की औरतें ही होती हैं इसलिए यदि समाज को बदलना है तो शुरुआत घर की औरतों को ही करनी पड़ेगी । यदि वे अपने विचारों को व्यापक करेंगी तो घर के बाकी सदस्यों को कोई ऐतराज नहीं होगा । सारे बच्चे मंत्रमुग्ध हो बुआ को सुन रहे थे और मन ही मन उन्हें सराह भी रहे थे क्योंकि उन्होंने निडरता के साथ गलत परम्पराओं का विरोध किया था और सही का साथ दिया था । रिश्तों का आदर करते हुए उन्होंने नई लीक बनाई थी , हम नई पीढ़ी को भी यह समझना होगा कि हर पुरानी परंपरा खराब नहीं है और हर नई विधि सही हो जरूरी नहीं है । दो पीढ़ियों के बीच फर्क तो हमेशा रहेगा परन्तु सामंजस्य बनाते हुए प्रेम को बनाये रखना एक चुनौती है जिसका सामना हमें करना होगा ।
बुआ जी की तरह सही का चयन करके ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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