Saturday, 30 December 2017

कड़वा करेला (कहानी )

रश्मि  और साक्षी बहुत अच्छी दोस्त हैं । आज ही उनका बारहवीं परीक्षा का परिणाम आया  ...उन दोनों
ने प्रथम श्रेणी के अंक लेकर परीक्षा उत्तीर्ण की थी और भविष्य की योजना बनाने लगे थे । मैं तो गणित लेकर
स्नातक करूँगी फिर सिविल सेवा की तैयारी करूँगी ...
रश्मि ने चहकते हुए कहा पर साक्षी गुमसुम सी न जाने
किन ख्यालों में खोई हुई थी.... अरे भाई ऐसी कौन सी बात हो गई कि तुम मुँह लटकाए बैठी हो । रश्मि ,तुम कितनी भाग्यशाली हो कि अपने भविष्य के बारे में स्वयं निर्णय ले सकती हो  ...हमारे यहाँ भी काश ऐसा होता । हमारे परिवार में बड़े - बुजुर्ग ही फैसला लेते हैं । आगे पढ़ने का तो मैं सोच ही नहीं सकती चाहे कितने भी अच्छे अंक आयें । एक - दो  साल में मेरी भी शादी हो जायेगी मेरी दीदी की तरह ।  " अरे इतनी भी क्या जल्दी है शादी की ? कहीं भाग तो नहीं जाओगी । अभी तो अपना कैरियर बनाने का समय है "-रश्मि ने कहा ।
    तुम नहीं समझोगी रश्मि ....हमारे यहाँ सुरक्षा की दृष्टि से  जल्दी शादी करना  जरूरी समझा जाता है । अधिक उम्र होने से ठीकठाक लड़के नहीं मिलते , शादी
होने में दिक्कत आती है , उनकी यही सोच है...काश मैं भी अपने पैरों पर खड़ी हो पाती , अपनी स्वयं की कोई पहचान बना पाती  । आत्मनिर्भर होने की सन्तुष्टि चेहरे पर एक अलग ही चमक ला देती है । अपनी  मेघा मैडम के चेहरे में कितना आकर्षण है ... व्यक्तित्व अधूरा है शिक्षा के बिना । नौकरी न भी करें तो इतनी पढ़ी - लिखी तो होना ही चाहिए कि अपने बच्चे को पढ़ा सकें ,अपने परिवार की सही रूप से देखभाल कर सकें ।
   " तुम यह बात अपने पापा को समझा नहीं सकती..
परम्परा के नाम पर होती आ रही यह गलती दोहराई जाये कोई जरूरी तो नहीं ,  वैसे  भी तुझमें और तेरी दीदी में आठ साल का अंतर है ... समयानुसार परिवर्तन होते हैं ....शायद वे भी समझ जाएं और तुझे आगे पढ़ने को मिल जाये "-- रश्मि ने कहा । सही कह रही है तू , एक  कोशिश तो करनी ही होगी ,देखो क्या होता है ..कहते हुए साक्षी अपने घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई  थी ।
       बाद में साक्षी का फोन आया था , आगे पढ़ने का उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया था । उसके दादाजी की ही घर में चलती थी अब भी । चार बेटों के संयुक्त परिवार को अपने कड़े अनुशासन से जोड़ कर रखा था उन्होंने... पर अब तो सभी  शिक्षा का महत्व समझने लगे हैं क्या गाँव और क्या शहर । उनका बहुत बड़ा फार्म हाउस था जहाँ वे सब्जी , फल उगाते  थे ...
साक्षी के पिता एक सम्पन्न कृषक थे...कृषि में नये
प्रयोग करने के लिए उन्हें सम्मानित भी किया जा चुका था । कुछ दिनों बाद साक्षी अपने पिता के साथ मेरे घर
आने वाली थी..तब तक कॉलेज में प्रवेश - प्रक्रिया प्रारंभ हो जायेगी... मैंने सोच लिया था कि मैं साक्षी के
पापा से बात करूँगी तो वे जरूर मानेंगे..पता नहीं क्यों
पर मुझे अपनी तर्कशक्ति पर विश्वास था ।
    उस दिन मम्मी बड़ी प्रसन्न होकर मुझे अपना किचन गार्डन दिखाने ले गई थी ...मम्मी को गार्डनिंग का बहुत शौक था पर हमारे घर में जगह नहीं होने के कारण गमलों में ही सब्जियाँ उगाकर खुश हो लिया करती थीं ।
किसी गुलाब में पहला फूल खिला हो या सेवंती के नये
शेड्स आये हों ...मम्मी के चेहरे पर उन फूलों की चमक रोशन हो जाती..मेरी भी पेड़ - पौधों में रुचि देखकर मम्मी अपने बगीचे के हर बदलाव की खुशी मुझसे बाँटती । उस दिन वह मुझे गमले में मीठे नीम की टहनी से लगा पतला से करेला दिखा रही थी... उस मरियल सी बेल में आठ से दस फल लगे हुए थे... मम्मी खुश हो रही थीं कि मेरे लायक फल हो जायेगे , तुम लोग तो कोई खाते ही नहीं । उफ्फ... कड़वा करेला यह भी कोई खाने की चीज है ।
          साक्षी को काफी दिनों के बाद देखकर अच्छा लग रहा था । कुछ देर कुशल - क्षेम पूछने के बाद मैं साक्षी और उसके पापा को घर घुमाने ले गई ...जब किचन गार्डन में हम पहुँचे , मैंने उन्हें वही करेले का पौधा दिखाया - अंकल देखिये , यह पौधा...इसमें इतने सारे फल लगे हैं पर ये बढ़ नहीं पा रहे हैं... बस छोटे में ही पककर गिर जा रहे हैं ...मम्मी तो बड़ी खुश हो रही थीं कि उनके लायक फल आ जायेंगे । अंकल हँसते हुए बोले- अरे बेटा जी , अभी तो यह पौधा पूरी तरह तैयार ही नहीं है फलने के लिए... पहले इस पौधे को थोड़ा मजबूत हो जाने दो..तब फल लगेंगे तो वे अच्छे आकार के स्वस्थ फल होंगे...   हाँ अंकल जी , मैंने साक्षी को देखते हुए कहा ... यही तो मैं भी कहना चाह रही हूँ आपसे , क्या साक्षी का तन और मन तैयार है उन बदलावों के लिए जो आप उसके जीवन में लाना चाहते हैं । मुझे और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं हुई...
उस करेले के नन्हे पौधे ने बहुत कुछ कह दिया था । अंकल कभी करेले को और कभी साक्षी को देखते रहे और मेरी ओर देखकर मुस्कुरा दिये मानो वे सब समझ गए हों । साक्षी की शॉपिंग , मेरे घर आने का बहाना और उन्हें मेरा घर घुमाना... इन सारी बातों का केंद्रबिंदु
साक्षी की हो रही असमय शादी रुकवाना था । वैसे मैं वाद - विवाद प्रतियोगिता की चैंपियन थी..ऐसे अजीब-अजीब उदाहरण देकर ही अपने विरोधियों को मात देती थी  । उस दिन उस कड़वे करेले ने रंग जमा ही दिया था...चलते वक्त अंकल ने कहा-" बिटिया , कॉलेज जाओगी तो एक और प्रवेश फॉर्म ले आना साक्षी के लिए भी । " अंकल का इतना कहना था कि हम दोनों सखियाँ खुशी से उछल पड़ी थी ।अरे हाँ ...आपको बता दूँ , अब मुझे करेला उतना भी कड़वा नहीं लगता क्योंकि अब मैं उसकी विशेषताएं भी जान गई हूँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😄😄

खुल गई आँखें ( लघु कथा )

   अमीर माता - पिता का एकलौता बेटा सुभाष सुख - सुविधाओं में पला - बढ़ा था....उसे किसी बात की तकलीफ नहीं थी न ही कोई चिंता । वह बेफिक्री से जीवन बिताए जा रहा था , पर अब उसके पिता चाहते थे
कि वह अपने व्यापार की ओर ध्यान दे । उन्होंने सुभाष से इस बारे में बात की....उसने इंकार तो नहीं किया परन्तु कोई रुचि भी नहीं दिखाई ।
         सुभाष की  मित्र - मंडली भी बहुत बड़ी थी ....होती भी क्यों नहीं ...बड़े बाप का इकलौता बेटा उन पर रूपये खर्च करने में कोई कमी नहीं करता था । कुछ समय पश्चात एक दिन पिता जी बड़े उदास बैठे थे...कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि व्यापार में उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ा है और कर्ज चुकाने के लिए अपनी कुछ जमीन उन्हें बेचनी पड़ेगी । सुनकर हतप्रभ रह गया था सुभाष ....कभी किसी बात के लिए अभी तक समझौता नहीं किया था, विलासिता की आदत लगी हुई थी.....जिन दोस्तों पर बेतहाशा खर्च किया था वे किसी न किसी बहाने खिसक लिए । अब उसे सही - गलत की  पहचान हो गई थी , उसके कुछ दोस्त मुसीबत की घड़ी में उसके साथ खड़े थे ।सुभाष अब दुनिया को एक दूसरी नजर से देख रहा था । उसने अपनी आदतों में
भी बदलाव कर लिया था.....फालतू खर्च करना बंद कर दिया था तथा माता - पिता की परवाह करने लगा था । एक दिन खाना खाते हुए उसने पिता को बताया कि उसने
एक जगह नौकरी की बात की है , क्या वह वहाँ काम कर सकता है ? उसके व्यवहार में इतना अधिक बदलाव देख माँ की आँखों से आँसू बहने लगे और पिता ने उसे अपने गले से लगा लिया था । नहीं बेटे , तुम्हें कहीं भी नौकरी करने जाने की कोई जरूरत नहीं है । हमारा व्यवसाय बहुत बढ़िया चल रहा है...कहीं कोई नुकसान नहीं हुआ वो तो तुम्हें जीवन का दूसरा  पहलू दिखाने के लिए मैंने यह नाटक किया था....मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए । विपरीत परिस्थितियों में हमें अच्छे - बुरे की पहचान होती है , अपने आप पर विश्वास बढ़ता है और सच्चे मित्र की पहचान होती है ....सच कहूँ तो कठिनाइयाँ गुरू की तरह जीने की सही राह दिखाती हैं। हाँ पिताजी , आपने मेरी आँखें खोल दी ....कहते हुए सुभाष अपने पिता के गले लग गया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 26 December 2017

हारना नहीं है मुझे

चाहे कितनी भी कठिन हो ,
जीवन की राहें....
रुकना नहीं है मुझे ,
आये कितनी बाधाएँ ...
संघर्षों में पली - बढ़ी ,
दिल में कई आहें....
अकेलेपन से डरूँगी नहीं ,
मजबूत मेरे इरादे...
दर्द ने कई बार सताया मुझे ,
आँखों से अश्क बहे....
नकारा गया अस्तित्व मेरा ,
साबित किया खुद को मैंने..
चढ़ती रही एक - एक सीढ़ी ,
कई बार बनी विजेता मैं...
चाहिये मुझे वृहद आकाश ,
तैयार हूँ मैं उड़ने के लिए....
हिम्मत है ताकत मेरी ,
हारना नहीं है मुझे...

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 16 December 2017

अनुत्तरित प्रश्न

क्या थे ऐसे हालात...
बेजान हुए जज्बात ....
झाड़ियों में फेंका नवजात...
जीते -जी माँ को मार गई...
किस मोड़ पे ममता हार गई....

ऐसी क्या थी मजबूरी...
कर ली अपने टुकड़े से दूरी...
रह गई तुम सदा के लिए अधूरी...
जननी तू क्यों लाचार हुई.....
इंसानियत की हार हुई...
किस मोड़ पे ममता हार गई...

तुमने की थी जो गलती...
उस निर्दोष को क्यों सजा दी...
क्यों न थोड़ी हिम्मत की...
वात्सल्य की चुनरी तार -तार हुई...
हाय! मानवता शर्मसार हुई...
किस मोड़ पे ममता हार गई....

धिक्कार तुम्हारी काया को...
लोक - लाज की माया को...
दुनिया में उसे लाया क्यों...
जन्म देकर उससे बेज़ार हुई...
इस कायरता को तैयार हुई...
किस मोड़ पे ममता हार गई....

स्वरचित---डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

शिशु चाँद🌃

रातों को जागता ...
अठखेलियाँ करता...
थका - हारा चाँद.....
अब सोने को है ,
उनींदी पलकों पर उसकी
रख दिये हैं बादलों ने फाहे..
आसमानी चादर ओढ़े ..
क्षितिज में बंधे उसके झूले को
हँसकर झुला
है उषा ने
और लग गई है अपने काम पर....।

Wednesday, 6 December 2017

निशाने पर ( लघुकथा )

     हड़ताल खत्म होने के पश्चात  आज सभी शिक्षाकर्मी  स्कूल आये थे  । कार्यभार ग्रहण  करने की
औपचारिकताएं पूरी कर वे बैठे ही थे ..। अब बच्चों
की पढ़ाई की चिंता हो रही थी.. शशि ने कहा वैसे
कोर्स तो लगभग 90% पूरा ही है... जल्दी से खत्म
कर रिवीजन करवाना है । बाकी सभी अपने - अपने
विषय के बारे में बताने लगे थे... नियमित व्याख्याता
पता नहीं क्यों भरे बैठे थे...शुरू हो गए ।  कोर्स पूरा
हो गया है फिर भी नुक़सान तो हुआ ही है ना ...आप
लोगों को अपनी जिम्मेदारी समझना चाहिये , बार - बार
हड़ताल करने चले जाते हैं ...बस वाद - विवाद शुरू हो
गया ... स्टॉफ का  वातावरण  बोझिल हो चला था ।
किसी तरह ...छोड़ो , जाने दो कहकर बहस को टाला
गया ।
        दूसरे दिन समाचार - पत्रों में स्कूल का समय एक
घण्टा  बढ़ने का आदेश प्रकाशित हुआ था जिसने आग
में घी डालने का काम किया था । प्रार्थना के बाद ही एक मैडम शुरू हो गई... तुम लोग हड़ताल पर थे तो
एक घण्टा तुम  ही लोग अतिरिक्त कक्षा लेना , हम लोग क्यों जल्दी आएंगे ...... वहाँ पंडाल पर बातें चलती रहती थीं कि जहाँ एक भी शिक्षक नहीं हैं वहाँ एक - एक नियमित व्याख्याता को प्रतिनियुक्त किया गया है  ,उसी हिसाब से शशि के  मुँह से अनायास ही निकल गया ...
नियमित व्याख्याता भी तो कुछ नहीं पढ़ाये हैं  इतने दिन ..बस , फिर क्या था ...सभी व्याख्याता गण भड़क
उठे ... एक ने तो हद ही कर दी - हाँ , हम तो कुछ पढ़ाते ही नहीं ...तुम्ही लोग पढ़ाते हो  , एक ही लाठी से सबको नहीं हांक सकते  , मैं भी तुम लोगों को बोल सकती हूँ कि शिक्षाकर्मी कुछ नहीं पढ़ाते - लिखाते
आदि आदि ....मैंने भी क्या बला मोल ले ली..सोचते हुए वह अपनी कक्षा में चली गईं  । वहाँ बच्चों से बात
करने पर मालूम हुआ कि वह मैडम जो शशि  पर इतना
भड़क रही थी... पूरे बारह दिनों में वह एक भी पीरियड
उन्हें पढ़ाने नही आई थीं.... उन्हीं के शब्दों में "मैडम ,हमने इंग्लिश का ई भी नहीं पढ़ा "....सुनकर
समझ में आ गया था , वह मोहतरमा इतनी क्यों
भड़क गई थी ...अनजाने में ही सही  , तीर सही निशाने
पर जा लगा था ।

  स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 3 December 2017

अधूरी खोज ( कहानी )

          यह कहानी उन पुरानी कहानियों की तरह नहीं
है जिसमें लड़की के जन्म पर मातम छा जाता है । यह
आज की कहानी है इसमें एक लड़की का जन्म एक
सुशिक्षित , सुसंस्कृत और कुलीन खानदान में हुआ..
उसके जन्म पर ढोल भी बजे , पटाखे छूटे और मिठाइयां भी बांटी गई । समझदार माता - पिता ने
वंश - परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए बेटे की जरूरत
ही नहीं समझी और अपनी एकमात्र बेटी किशोरी को
अपने जीने का सहारा व जीवन का उद्देश्य बना लिया।
            किशोरी ने कभी जाना ही नहीं लड़के और
लड़की के भेद को....कभी  माता - पिता ने टोका जो
नहीं कि यह काम लड़कों का है ऐसा न करो...वैसा न
करो , यहाँ न जाओ ... वहाँ  मत रुको ...माता - पिता
का स्नेह , प्रेरणा और सुविधाएँ मिलीं...शिक्षा , खेल , कला हर क्षेत्र में पारंगत होती गई ।
           स्कूल में अपनी सहेलियों की गतिविधियां देखकर किशोरी उन पर हँसती , उनकी झिझकने ,
सिमटने और अपने - आपको तुच्छ समझने की भावना
का वह विरोध करती । उनसे कहती - " अरे ! लड़की
होना कोई गुनाह नहीं है ,तुम तो ऐसे डरकर रहती हो
जैसे तुमने लड़की होकर कोई गलती की है क्योंकि उसने तो कभी देखा ही नहीं था ...अपनी सहेलियों रमा,
विमला व जया के घर जाकर कि उनके घर में उनकी क्या दशा है । माता - पिता और भाई की बन्दिशों के
बीच उनका बचपन गुजरा है....लड़के और लड़की में
बहुत फर्क होता है ,   भाई तो वंश को आगे बढाते हैं
इसलिए उन्हें अच्छे खाने की  जरूरत  है , उन्हें बाहर घूमने की स्वतंत्रता है लेकिन तुम लड़की हो , अपनी सीमा में रहो...उन्हें तो घुट्टी में घोलकर लड़की के मर्यादित होने के नियम और सलीके पिलाये गए हैं , उन्होंने बचपन से ही यह जान लिया कि  उन्हें पराये घर
जाना है , पति  परमेश्वर  होता है चाहे वह अपनी पत्नी
के साथ कैसा भी बर्ताव  करे ....उसे प्यार से रखे या
मारपीट करे... लड़कियों को सहनशील  होना चाहिए
इत्यादि ..इत्यादि.... किशोरी तो इन सब  बातों से अनजान थी।
        उसके पालकों ने उसे यह सब नहीं बताया था बल्कि देश की वीरांगनाओं रानी दुर्गावती , लक्ष्मीबाई
और इंदिरा गाँधी के बलिदान  व साहस की कहानियाँ
सुनाई थी , उसे जीवन में कुछ बनने और समाज में , देश में अपनी पहचान बनाने की शिक्षा दी थी ।
             किशोरी को स्वछंद आसमान मिला था उड़ने को...वह वन- बेल की तरह  बढ़ती गई...अपनी लगन ,
मेहनत और माता - पिता के स्नेहिल मार्गदर्शन की छाया
तले वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ती गई पर उसकी
सहेलियाँ अधिक दूर तक उसका साथ न दे पाई..वे भी
उत्सुक थीं आगे बढ़ने को ....पर उनका पारिवारिक माहौल  अलग था...उन्हें दो टूक जवाब मिला -" क्या
करोगी आगे पढ़कर ? लड़कियों को ज्यादा पढ़ने की
क्या जरूरत  है...चिट्ठी लिखने - पढ़ने लायक पढ़ ली,
काफी हो गया....तुमको कौन सी नौकरी करनी है...बस अब तो तुम्हारी शादी करनी है ।"
            और जल्दी ही उनकी शादी हो गई... रमा की
शादी में गई थी किशोरी ...." कितनी जल्दी तुम्हारी शादी कर रहे हैं " उसने विस्मय से आँखें फैलाते हुए कहा था । विदाई के समय रमा की  माँ ने जो कहा ,सुनकर उसे बड़ा अजीब लगा था -  "बेटी मायके से लड़की की डोली उठती है और ससुराल से उसकी अर्थी ,अब उसी घर को अपना समझना ।" रमा की शादी के बाद किशोरी उससे नहीं मिल पाई...अब वह कॉलेज में पहुँच गई थी... व्यस्तताएं बढ़ गई थी , परिचय का दायरा बढ़ गया था ।
      एक साल बाद जब उसे जया के द्वारा रमा की मौत
की खबर मिली तो वह हतप्रभ सी रह गई ...हे भगवान!
यह सब कैसे हो गया  । उत्तर में जया ने जो कुछ बताया
सुनकर उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई... रमा
को दहेज के लिए ससुराल में  प्रताड़ित किया जाता था
पर वह सब कुछ चुपचाप सहती रही और एक दिन उन्होंने रमा को जलाकर मार डाला.... विदाई के समय
दी हुई माँ की सीख वह नहीं भूली थी शायद । ओह!
यह कैसी परम्पराएं हैं जो लड़की को अन्याय के प्रति लड़ना छोड़कर उससे दबना सिखाती हैं । आज किशोरी ने एक  निर्णय लिया था ....बहुत बड़ा निर्णय
वह किसी ऐसे व्यक्ति से शादी नहीं करेगी जो दहेज लेकर उससे शादी करेगा । जो उसकी शिक्षा , गुणों और
संस्कार को देखकर उसे अपनाये , उसी को वह अपना
जीवन - साथी बनायेगी ।
         पढ़ाई पूरी करने के बाद वह आत्म निर्भर बनने के लिए प्रयास करने लगी...इसी बीच परिवार और समाज के लोग शादी के लिए हाय- तौबा मचाने लगे ।उसने जीवनसाथी के बारे में अपना निर्णय सबको सुना
दिया ।
        माता - पिता भी उसके विचारों से सहमत थे पर वे
क्या करें ..उसकी पसन्द का जीवन साथी ढूंढना आसान तो नहीं था क्योंकि समाज एक व्यक्ति या एक परिवार से नहीं बनता ,यहाँ कई प्रकार के लोग रहते हैं । कई लोग यह  सोचकर कि इकलौती लड़की है , माता - पिता की सम्पत्ति की वारिस...पर किशोरी ऐसे लोगो को
मना कर देती । अब  माता - पिता को भी चिंता होने लगी ....किशोरी पच्चीस की अवस्था पार कर रही थी..
उन्होंने बेटी को समझाना चाहा , पर वह गुस्से से बोल उठी - ,क्या कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो जीवन साथी का सही अर्थ समझ सके...जीवनसाथी का अर्थ तो जीवन भर एक - दूसरे के सुख - दुख में  बराबर का भागीदार बनना होता है न पापा ...पर यहाँ तो ऐसा कुछ
भी नहीं है । मुझे अपनाने के लिए कोई व्यक्ति आपसे रुपये या दहेज ले , इसका मतलब मैं उससे बहुत तुच्छ
हूँ या वह व्यक्ति अपने - आपको मुझे बेचना चाहता है
ऐसे व्यक्ति को मैं अपना प्यार और सम्मान कैसे दे पाऊँगी , आप ही बताइए ।
             पर किशोरी की खोज पूरी नहीं हुई...शायद
उसे कुछ और इंतजार करना पड़ेगा । इक्कीसवीं  सदी
की ओर बढ़ते हुए मानव के पास आदर्शों , भावनाओं
के लिए वक्त ही कहाँ है , वर्तमान युग में पद , प्रतिष्ठा
और पैसा ही तो व्यक्ति की सही पहचान है इसलिए सभी इसे पाने के लिए दौड़ रहे हैं ।
            किशोरी के दिलो - दिमाग में कशमकश - सी
चल रही है... अपने  आदर्शों , विचारों से समझौता करके विवाह करने को वह जरूरी नहीं समझती पर...
उससे अपने माता - पिता की चिंता , उनका अपमान
सहा नहीं जाता । उन्होंने उसे इतनी अच्छी शिक्षा , संस्कार दिए...उसके सुखद भविष्य को देखने के लिए
उनकी आँखें भी तरस रहीं हैं.. क्या उनकी खुशी के
लिए उसे समझौता करना ही पड़ेगा ? " ओह ! नहीं..."
उसका दिल चीख पड़ता है पर ठीक उसी वक्त दिमाग
भी समझाईश देने लगता है - देखो , कहीं तुम्हारे निर्णय
से तुम्हारे पालकों का सिर लोगों के सामने न झुक जाएं , उन्हें  यह न सुनना पड़े कि उच्च शिक्षा और छूट
देकर उन्होंने गलत किया...पढ़ - लिखकर बेटी खुदगर्ज
बन गई ।
        हाँ , शायद तुम ठीक कहते हो.... वह बड़बड़ाने
लगी...न चाहते हुए भी किशोरी ने उन पुरानी मान्यताओं के आगे घुटने टेक दिए , पर वह निराश नहीं
हैं... उसे इंतजार है उस दिन का...जब उसकी तरह और
भी लोग होंगे जो व्यक्ति का मूल्यांकन उसके गुणों से
करेंगे , रुपये - पैसे से नहीं । हाँ  , वह शुरुआत करेगी..
एक नई परम्परा की..अपने बेटे को वह एक अच्छा
इंसान बनाएगी ताकि उसकी तरह किसी और किशोरी
की खोज अधूरी न रह जाये ।

                स्वरचित -- डॉ.  दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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Monday, 27 November 2017

संविलियन के लिये

रूठे - रूठे सरकार मनाएं कैसे ।
संविलियन के बिना वापस जाएं कैसे ।।
शिक्षा का महादान किया है ,
फिर भी न शिक्षक का नाम दिया है।
शोषित और अपमानित होकर ,
जहर भरा ये जाम पिया है ।
मन की व्यथा हम बताएं कैसे ।रूठे।
जब - जब जो आदेश मिला है ,
हमने काम वो पूरा किया है ।
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया ,
महंगाई ने परेशान किया है ।
क्या - क्या है तकलीफें बताएं कैसे।।रूठे।।
राह हमारी रोककर खड़े हैं
कानों में तेल डाल कर पड़े हैं।
आस्तीन में ये साँप पला है ,
वादा कर करके छला है  ।
तेरे वादे तुम्हें याद दिलाये कैसे ।।रूठे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 25 November 2017

प्रतिदान ( कहानी )

मैं बोर्ड परीक्षा के मूल्यांकन  के लिये गई हुई थी । वहाँ
अपने ही कमरे  में एक मैडम का चेहरा मुझे बड़ा जाना
पहचाना लगता .....पर उनका नाम सुनकर मैं निराश हो
गई । गायत्री  शर्मा ...मेरी एक क्लासमेट थी गायत्री जैन
...पक्का वही है , मेरी नजर उस  पर बार - बार चली ही
जाती । जब उसने भी मेरी तरफ देखा तो हल्की सी
मुस्कुराहट चेहरे पर झलक आई थी ।
        समय ने कितना बदलाव ला दिया था उसके चेहरे
में ...लम्बे काले बालों वाली ,दुबली पतली ,गोरी नाजुक
सी गायत्री  कितनी थकी हुई बूढ़ी लग रही थी मानो उसके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ हो । मेरे मन में
हजारों सवाल उठ खड़े हुए थे ...उसका परिवार बहुत ही जागरुक था इसलिए उसकी पढ़ाई पर रोक नहीं लगा । लेकिन पढ़ाई पूरी करते ही उसकी शादी हो गई
थी , उसके बाद उससे मुलाकात नहीं हुई क्योंकि मैं भी
अपनी  नौकरी  के कारण दूसरे शहर आ गई ...उसके बाद मेरी भी शादी हो गई और मेरा मायके आना - जाना
कम हो गया ।
          लंच टाइम में हम साथ बैठे तो  बातों का सिलसिला शुरू हुआ....उसने  अपने बारे में बताना प्रारंभ किया - शादी के बाद तो जैसे उसकी जिंदगी ही
बदल गई । नया - नया ससुराल ..नया वातावरण ...सामंजस्य नाने की कोशिश कर ही रही थी कि एक  दुर्घटना में उसके पति का निधन हो गया ।
स्नेह के धागे इतने मजबूत भी न हुए थे कि वहाँ जीवन
भर रुक पाती । वह मायके आ गई और व्यस्त रहने के लिये एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी । वर्षों अपनी
मेहनत से उसने स्कूल का कायाकल्प कर दिया और
प्राचार्य के पद पर पहुँच गई ।
           समय  का प्रवाह हर गम को बहा ले जाता है..
यह कर्मक्षेत्र ही है , जो हमें जीने की वजह प्रदान करता है ...व्यस्तता हमें  सब दुख - दर्द भूलने को मजबूर कर
देती है । ऐसे ही गायत्री का मन स्कूल के बच्चों में रम गया था ...स्कूल के कम्प्यूटर टीचर देवेंद्र  ने उसे अपनी तकलीफों को भूलने में बहुत मदद की । उसकी सृजन-
शीलता को बढ़ावा दिया । देवेंद्र ने उसे सचमुच जीना
सिखा दिया । परन्तु देवेंद्र से उसकी बढ़ती नजदीकियाँ
किसी को रास नहीं आई । पति के निधन से जो सहानुभूति  मिली थी , उसे नफरत में बदलते देर नहीं
लगी। गायत्री की मनोदशा समझने की किसी ने कोशिश
नहीं की । आठ माह के वैवाहिक जीवन की यादें क्या
उसके जीने का सहारा बन सकती थी ? क्या जीवन भर
भाई - भाभी और भतीजों की इच्छा के अनुरूप वह जी
पाती । उसके भी कुछ अरमान होंगे ,ऐसा किसी ने नहीं
सोचा । स्त्री कोई भूमि का टुकड़ा तो नहीं कि उस पर
जिसका अधिकार हो वही निर्णय ले कि उस पर क्या
बोना है..कभी धरती को पूछा जाता है कि उसकी क्या
इच्छा है , वह क्या चाहती है ? उसे अपने बारे में सोचने
का अधिकार भी नहीं है । ऐसे वक्त में उसके बंजर मन
पर  खाद का काम किया देवेन्द्र की सहानुभूति ने... अपने सहयोगपूर्ण व्यवहार से गायत्री का दिल जीतकर उसमें प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया था उसने । उसके स्नेह के  निर्मल सिंचन से लहलहा उठा था उसका जीवन... । आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी देवेन्द्र को हमउम्र हमसफ़र भी मिल सकती थी परन्तु उसने गायत्री को चुना ...उसके मन में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण  उत्पन्न किया ...उसे इस बात का
एहसास कराया कि वह अब भी एक नई शुरुआत कर
सकती है...वह  हाड़ - माँस का एक पुतला नहीं बल्कि
एक जीता - जागता इंसान है... उसके  शरीर  में भी स्पंदन करता एक दिल है । उसके अंदर ढेर सारी  खूबियाँ हैं 
और जीवन की जिस किताब को उसने बिना पढ़े ही बन्द करके सिरहाने फेंक दी है उसे वह पूरा पढ़ सकती है । स्त्री जीवन के कई अनछुए पहलू को वह भी जी
सकती है...। पर गायत्री को मिला यह पुनर्जीवन समाज
की  नजरों में कांटा बन गया था ..एक विधवा का पुनर्विवाह और वह भी अपने से कम उम्र के लड़के से..वह भी विजातीय  ' करेला ...ऊपर से नीम चढ़ा '
की उक्ति को चरितार्थ कर रहा था । इतने सारे अंतर्विरोधों के बावजूद  देवेंद्र और गायत्री ने साथ चलने
का निश्चय कर लिया था ...विवाह करके एक नई दुनिया
बसा ली थी उन्होंने । माँ -पिताजी , भैया - भाभी सबसे
अलग होना अच्छा नहीं लग रहा था , पर क्या करते..
वे मानने को तैयार ही नहीं हुए । कभी - कभी अपने घर
आँगन की  बहुत याद आती ...जिंदगी का एक कोना
हमेशा सूना लगता ...पर आगे तो बढ़ना ही था ।
       कालचक्र चलता रहा...वह एक सुंदर सी बिटिया
की माँ बन गई थी ...उसके पालन - पोषण में व्यस्त
हो गई थी वह ...  बेटी की शिक्षा , उसे संस्कार देने में
वे दोनों लग गए थे और बिटिया बहुत ही सुयोग्य और
प्रखर निकली...जिम्मेदारियाँ  हमें अपने दुःख भूलने
में मदद करते हैं ...गायत्री भी समाज के तिरस्कार ,
परिवार के अलगाव को भूल गई थी । अब तो उसने
बेटी का विवाह भी कर दिया था और अपने पति के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रही है । काश कि जिंदगी
इस खुशहाल पड़ाव पर रुक जाती.... गायत्री की आँखें नम हो गई थी... वर्षों बाद पता नहीं क्यों ईश्वर  फिर
मेरी परीक्षा ले  रहा है ..जिस धैर्यवान देवेंद्र ने मुझे अंधेरों से बाहर खींच निकाला , अब वह स्वयं उन्हीं
अंधेरों में भटक रहा है ...उनकी मानसिक स्थिति सही
नहीं है.. जिस कम्प्यूटर से इतना लगाव था उन्हें , अब
उसे देखते ही चीखने लगते हैं... एकदम चुप से ही गये
हैं , पता नहीं कौन सी चिंता उन्हें खाये जा रही है ।
उनके परिवार ने  कभी उनकी परवाह नहीं की ..शायद
यही बात उन्हें अब परेशान कर रही हो , यह सोचकर
मैं उनके घर भी गई थी उन्हें मनाने ताकि  अपने देवेंद्र
को वह सब खुशी दिला सकूँ जिसकी वो कमी महसूस
कर रहे होंगे । मैं वो हर प्रयास कर रही हूँ कि वह स्वस्थ
हो जाएं ...उनका अवसाद कुछ कम हो जाये  ।
            अभी एक आरोग्यधाम में रहकर उनका उपचार
करवा रही हूँ.... साथ ही वहीं के स्कूल में अपनी सेवा भी दे रही हूँ ...बहुत सुधार है उनके स्वास्थ्य में...बस एक विश्वास की डोर को थामकर रखी हूँ कि सब कुछ
ठीक हो जाएगा । एक सम्पन्न परिवार में पली बढ़ी गायत्री ने जीवन के इस कठिन पहलू को कितनी आसानी से स्वीकार कर लिया था... उसका यह कर्मठ ,
आत्मविश्वासी व दृढ़ - संकल्प युक्त व्यक्तित्व मुझे प्रभावित कर गया था । मेरे दिल से  सदाये निकल रही
थी ....मुश्किल हालात से लड़ते हुए तुम उस मंजिल तक पहुँच जाओ जहाँ कोई गम न हो ...सिर्फ खुशियाँ
हों और कुछ भी नहीं ।
          नैराश्य के जिन अंधेरों से एक दिन देवेंद्र ने गायत्री का हाथ थामकर उसे बाहर निकाला था , अब गायत्री उसे अवसाद के घेरे से खींच लाने का प्रयास
कर रही है.. उसका सम्बल बनने की कोशिश कर रही है
उसका यह प्रतिदान  सफल हो , मेरी शुभकामनाएं उनके साथ  हैं ।
    स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़