Saturday, 25 November 2017

प्रतिदान ( कहानी )

मैं बोर्ड परीक्षा के मूल्यांकन  के लिये गई हुई थी । वहाँ
अपने ही कमरे  में एक मैडम का चेहरा मुझे बड़ा जाना
पहचाना लगता .....पर उनका नाम सुनकर मैं निराश हो
गई । गायत्री  शर्मा ...मेरी एक क्लासमेट थी गायत्री जैन
...पक्का वही है , मेरी नजर उस  पर बार - बार चली ही
जाती । जब उसने भी मेरी तरफ देखा तो हल्की सी
मुस्कुराहट चेहरे पर झलक आई थी ।
        समय ने कितना बदलाव ला दिया था उसके चेहरे
में ...लम्बे काले बालों वाली ,दुबली पतली ,गोरी नाजुक
सी गायत्री  कितनी थकी हुई बूढ़ी लग रही थी मानो उसके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ हो । मेरे मन में
हजारों सवाल उठ खड़े हुए थे ...उसका परिवार बहुत ही जागरुक था इसलिए उसकी पढ़ाई पर रोक नहीं लगा । लेकिन पढ़ाई पूरी करते ही उसकी शादी हो गई
थी , उसके बाद उससे मुलाकात नहीं हुई क्योंकि मैं भी
अपनी  नौकरी  के कारण दूसरे शहर आ गई ...उसके बाद मेरी भी शादी हो गई और मेरा मायके आना - जाना
कम हो गया ।
          लंच टाइम में हम साथ बैठे तो  बातों का सिलसिला शुरू हुआ....उसने  अपने बारे में बताना प्रारंभ किया - शादी के बाद तो जैसे उसकी जिंदगी ही
बदल गई । नया - नया ससुराल ..नया वातावरण ...सामंजस्य नाने की कोशिश कर ही रही थी कि एक  दुर्घटना में उसके पति का निधन हो गया ।
स्नेह के धागे इतने मजबूत भी न हुए थे कि वहाँ जीवन
भर रुक पाती । वह मायके आ गई और व्यस्त रहने के लिये एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी । वर्षों अपनी
मेहनत से उसने स्कूल का कायाकल्प कर दिया और
प्राचार्य के पद पर पहुँच गई ।
           समय  का प्रवाह हर गम को बहा ले जाता है..
यह कर्मक्षेत्र ही है , जो हमें जीने की वजह प्रदान करता है ...व्यस्तता हमें  सब दुख - दर्द भूलने को मजबूर कर
देती है । ऐसे ही गायत्री का मन स्कूल के बच्चों में रम गया था ...स्कूल के कम्प्यूटर टीचर देवेंद्र  ने उसे अपनी तकलीफों को भूलने में बहुत मदद की । उसकी सृजन-
शीलता को बढ़ावा दिया । देवेंद्र ने उसे सचमुच जीना
सिखा दिया । परन्तु देवेंद्र से उसकी बढ़ती नजदीकियाँ
किसी को रास नहीं आई । पति के निधन से जो सहानुभूति  मिली थी , उसे नफरत में बदलते देर नहीं
लगी। गायत्री की मनोदशा समझने की किसी ने कोशिश
नहीं की । आठ माह के वैवाहिक जीवन की यादें क्या
उसके जीने का सहारा बन सकती थी ? क्या जीवन भर
भाई - भाभी और भतीजों की इच्छा के अनुरूप वह जी
पाती । उसके भी कुछ अरमान होंगे ,ऐसा किसी ने नहीं
सोचा । स्त्री कोई भूमि का टुकड़ा तो नहीं कि उस पर
जिसका अधिकार हो वही निर्णय ले कि उस पर क्या
बोना है..कभी धरती को पूछा जाता है कि उसकी क्या
इच्छा है , वह क्या चाहती है ? उसे अपने बारे में सोचने
का अधिकार भी नहीं है । ऐसे वक्त में उसके बंजर मन
पर  खाद का काम किया देवेन्द्र की सहानुभूति ने... अपने सहयोगपूर्ण व्यवहार से गायत्री का दिल जीतकर उसमें प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया था उसने । उसके स्नेह के  निर्मल सिंचन से लहलहा उठा था उसका जीवन... । आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी देवेन्द्र को हमउम्र हमसफ़र भी मिल सकती थी परन्तु उसने गायत्री को चुना ...उसके मन में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण  उत्पन्न किया ...उसे इस बात का
एहसास कराया कि वह अब भी एक नई शुरुआत कर
सकती है...वह  हाड़ - माँस का एक पुतला नहीं बल्कि
एक जीता - जागता इंसान है... उसके  शरीर  में भी स्पंदन करता एक दिल है । उसके अंदर ढेर सारी  खूबियाँ हैं 
और जीवन की जिस किताब को उसने बिना पढ़े ही बन्द करके सिरहाने फेंक दी है उसे वह पूरा पढ़ सकती है । स्त्री जीवन के कई अनछुए पहलू को वह भी जी
सकती है...। पर गायत्री को मिला यह पुनर्जीवन समाज
की  नजरों में कांटा बन गया था ..एक विधवा का पुनर्विवाह और वह भी अपने से कम उम्र के लड़के से..वह भी विजातीय  ' करेला ...ऊपर से नीम चढ़ा '
की उक्ति को चरितार्थ कर रहा था । इतने सारे अंतर्विरोधों के बावजूद  देवेंद्र और गायत्री ने साथ चलने
का निश्चय कर लिया था ...विवाह करके एक नई दुनिया
बसा ली थी उन्होंने । माँ -पिताजी , भैया - भाभी सबसे
अलग होना अच्छा नहीं लग रहा था , पर क्या करते..
वे मानने को तैयार ही नहीं हुए । कभी - कभी अपने घर
आँगन की  बहुत याद आती ...जिंदगी का एक कोना
हमेशा सूना लगता ...पर आगे तो बढ़ना ही था ।
       कालचक्र चलता रहा...वह एक सुंदर सी बिटिया
की माँ बन गई थी ...उसके पालन - पोषण में व्यस्त
हो गई थी वह ...  बेटी की शिक्षा , उसे संस्कार देने में
वे दोनों लग गए थे और बिटिया बहुत ही सुयोग्य और
प्रखर निकली...जिम्मेदारियाँ  हमें अपने दुःख भूलने
में मदद करते हैं ...गायत्री भी समाज के तिरस्कार ,
परिवार के अलगाव को भूल गई थी । अब तो उसने
बेटी का विवाह भी कर दिया था और अपने पति के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रही है । काश कि जिंदगी
इस खुशहाल पड़ाव पर रुक जाती.... गायत्री की आँखें नम हो गई थी... वर्षों बाद पता नहीं क्यों ईश्वर  फिर
मेरी परीक्षा ले  रहा है ..जिस धैर्यवान देवेंद्र ने मुझे अंधेरों से बाहर खींच निकाला , अब वह स्वयं उन्हीं
अंधेरों में भटक रहा है ...उनकी मानसिक स्थिति सही
नहीं है.. जिस कम्प्यूटर से इतना लगाव था उन्हें , अब
उसे देखते ही चीखने लगते हैं... एकदम चुप से ही गये
हैं , पता नहीं कौन सी चिंता उन्हें खाये जा रही है ।
उनके परिवार ने  कभी उनकी परवाह नहीं की ..शायद
यही बात उन्हें अब परेशान कर रही हो , यह सोचकर
मैं उनके घर भी गई थी उन्हें मनाने ताकि  अपने देवेंद्र
को वह सब खुशी दिला सकूँ जिसकी वो कमी महसूस
कर रहे होंगे । मैं वो हर प्रयास कर रही हूँ कि वह स्वस्थ
हो जाएं ...उनका अवसाद कुछ कम हो जाये  ।
            अभी एक आरोग्यधाम में रहकर उनका उपचार
करवा रही हूँ.... साथ ही वहीं के स्कूल में अपनी सेवा भी दे रही हूँ ...बहुत सुधार है उनके स्वास्थ्य में...बस एक विश्वास की डोर को थामकर रखी हूँ कि सब कुछ
ठीक हो जाएगा । एक सम्पन्न परिवार में पली बढ़ी गायत्री ने जीवन के इस कठिन पहलू को कितनी आसानी से स्वीकार कर लिया था... उसका यह कर्मठ ,
आत्मविश्वासी व दृढ़ - संकल्प युक्त व्यक्तित्व मुझे प्रभावित कर गया था । मेरे दिल से  सदाये निकल रही
थी ....मुश्किल हालात से लड़ते हुए तुम उस मंजिल तक पहुँच जाओ जहाँ कोई गम न हो ...सिर्फ खुशियाँ
हों और कुछ भी नहीं ।
          नैराश्य के जिन अंधेरों से एक दिन देवेंद्र ने गायत्री का हाथ थामकर उसे बाहर निकाला था , अब गायत्री उसे अवसाद के घेरे से खींच लाने का प्रयास
कर रही है.. उसका सम्बल बनने की कोशिश कर रही है
उसका यह प्रतिदान  सफल हो , मेरी शुभकामनाएं उनके साथ  हैं ।
    स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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