शीश - महल अद्भुत ...आकर्षक ,
यहाँ बिताए कुछ पल ,
चारों ओर अपना ही प्रतिबिम्ब....
दायें , बायें , ऊपर , नीचे सर्वत्र ,
मैं ही मैं.. अपने- आप पर मुग्ध ..
ठहर गई कुछ पल , ठिठक गई ,
बिछड़ गए साथी ..हमसफ़र...
अब आभास हुआ अकेलेपन का ,
बेचैन हुई , राह ढूँढने को मैं...
इधर - उधर भटकने लगी ,
सब तरफ राहे बन्द ,
दीवारें ही दीवारें ..
महसूस हुई तब अपनों की कमी ,
'स्व ' ही सब कुछ नहीं...
अधूरा है अस्तित्व अकेले में ,
तन्हाई चाहे कितनी भी खूबसूरत हो..
शीशमहल हो या स्वर्ण - महल ,
अधिक देर बहला नहीं सकती....
बन्द मकानों में ताजी हवा ,
आ नहीं सकती ....
क्षणिक सुख , कुछ पल के लिए,
खूबसूरत लगती है...
चकाचौंध क्षण भर ही सही ,
आँखे बंद कर देती हैं...
भरम टूट जाता है ,
जब अंतरात्मा जागती है ..
सध जाते हैं कदम ,
जीने की सही राह मिल जाती है।।
स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😊
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