मेरे कार्यालय का चपरासी महंगाई का रोना रो
रहा था ... हम लोग कहाँ से दाल खायेंगे मैडम ...सब्जी ही खरीद लें , काफी है । इतनी महंगाई
में कैसे गुजर करें .. क्या करेंगे मन मार कर जीना पड़ता
है । अभी वह यह डायलॉग मार ही रहा था कि दूसरे
साथी भी आ पहुँचे । हाँ भई... दाल - सब्जी महंगी क्यों
नहीं लगेगी ..उससे सस्ती तो दारू लगती है जो रोज
पीने पहुँच जाते हो । चपरासी नजर चुराते हुए बाहर
निकल गया ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ###
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Friday, 3 November 2017
महंगाई ( लघु कथा )
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