Friday, 3 November 2017

महंगाई ( लघु कथा )

           मेरे कार्यालय का चपरासी महंगाई का रोना रो
रहा  था ... हम लोग कहाँ से दाल  खायेंगे मैडम ...सब्जी   ही खरीद लें , काफी है । इतनी महंगाई
में कैसे गुजर करें .. क्या करेंगे मन मार कर जीना पड़ता
है । अभी वह यह डायलॉग मार ही रहा था कि दूसरे
साथी भी आ पहुँचे । हाँ भई... दाल - सब्जी महंगी क्यों
नहीं लगेगी ..उससे सस्ती  तो दारू लगती है जो रोज
पीने पहुँच जाते हो । चपरासी  नजर  चुराते हुए बाहर
निकल गया ।

   स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ###

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