पढ़ते - पढ़ते रेणु की नजर अचानक दीवाल घड़ी पर
गई तो वह चौंककर उठ खड़ी हुई. ओह ! आज मुझे बहुत देर हो गई... परीक्षा तो शुरू हो गई होगी । वह तेजी से स्कूल की ओर चल पड़ी , जल्दबाजी में मोड़
पर अचानक वह एक व्यक्ति से टकरा गई । उस सज्जन
के हाथ की किताबें सड़क पर बिखर गई ...उन्होंने जोर
से उसे डाँट पिलाई - पैर तो खराब हैं ही .साथ ही साथ
आँखें भी खराब हो गई हैं क्या ? यह सब सुन कर वहाँ
खड़े कुछ लड़के भी जोर - जोर से हँसने लगे । रेणु को
लगा जैसे उसे किसी ने तमाचा मार दिया हो । उन सज्जन की डाँट उसे उतनी बुरी नहीं लगी क्योंकि उसकी वजह से उन्हें परेशानी हुई थी , शायद उन्हें भी
कोई आवश्यक काम हो लेकिन आस - पास खड़े लोगों
की हँसी उसका दिल दुखा गई । उसकी परीक्षा थी इसलिए वह वहाँ से चली गई ।
पेपर दिलाकर लौटते वक्त उस मोड़ पर उसे
पुनः सुबह वाली घटना याद आ गई और मन बोझिल
हो गया । वह उसके बारे में सोच ही रही थी कि अचानक उसने कुछ दूरी पर लोगों को खड़े हुए देखा ..
शायद कोई दुर्घटना हुई थी ..उसने पास जाकर देखा
वहाँ एक लड़का घायल पडा हुआ था..अरे ! यह तो
सुबह उसकी खिल्ली उड़ाने वालों में से एक था । उसकी इच्छा हुई अब वह उससे पूछे कि आपके तो
हाथ - पैर , आँखे सब कुछ सही - सलामत हैं फिर आप
कैसे गिर पड़े... पर इस समय तो वह बेचारा स्वयं आहत था , उसकी बेबसी को देखने वाले यहाँ कई थे
पर उसे अस्पताल पहुँचाने , उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं था सच...गिरे हुए या लाचार व्यक्ति को देखकर हँसने वाले ही मानसिक रूप से अपंग
होते हैं ...मैं पैरों से लाचार सही पर मेरा मन तो स्वस्थ
है...यह सोचकर रेणु ने एक ऑटो रिक्शा रुकवाया और वहाँ खड़े लोगों की मदद से उस घायल के अस्पताल पहुँचने की व्यवस्था की । वहाँ तमाशा देखने
वाले काफी लोग थे पर सहानुभूति , सहारा देने वाला कोई नहीं था ...रेणु को अचानक लगा कि यहाँ पर उसे
छोड़कर खड़े हुए बाकी सभी लोग अपाहिज हैं ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ****
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Friday, 3 November 2017
अपाहिज ( लघु कथा )
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