घर की मरम्मत का काम हो रहा था । बच्चे , पति तो बाहर चले जाते हैं.. घर पर रह जाती है रमा ...कौन सा सामान खत्म हो रहा है , क्या मंगाना है या काम ठीक से हो रहा है या नहीं ; यह देखना उसी की जिम्मेदारी है । अलमारी के प्लाइवुड के चयन पर वह
कुछ बोल ही रही थी कि पतिदेव भड़क गए... "आजकल कुछ ज्यादा ही बोलने लगी हो तुम .." सहम गई थी रमा ...काम करने वालों के आगे , ऐसी बेइज्जती...मन हुआ सब कुछ तहस - नहस कर दे । आखिर उसकी ही जिद के कारण यह घर बना था ...भले ही कमाते उसके पति हैं पर तिनका - तिनका जोड़कर घर उसने बनाया है... अपनी कितनी ही ख्वाहिशों को मारकर , घर - खर्च में बचत करके । कई काम अपने हाथों से करती रही ताकि दो पैसे की बचत कर सके...कितनी भी व्यस्तता रही पर अपने ही हाथों से फॉल पीकू किया , कपड़ों पर प्रेस किया..कभी बाहर से करवा कर आराम की चाहत नहीं की.. पर पुरुष का दम्भ कभी खत्म नहीं होता। वह तब तक ही स्त्री की बात सुनता है जब तक अपना स्वार्थ हो..उसके बाद उसके पास इतना धैर्य नहीं होता कि वह पत्नी को सम्मान दे सके या उसकी महत्ता स्वीकार कर सके । गाहे - बगाहे वह स्त्री की अभिव्यक्ति पर रोक लगाते ही रहता है और उसके आत्मसम्मान की धज्जियाँ उड़ाते रहता है । पुरुष अपना यह अहम कब छोड़ेगा ? पत्नी बोले पर उसकी मर्जी के अनुसार...न एक रत्ती कम न एक रत्ती ज्यादा । यदि स्त्री उसके अनुसार न रही तो दाम्पत्य जीवन में क्लेश , तनाव उत्पन्न होगा ..और घर की शांति खत्म । परिवार की सुख - शांति एक स्त्री के समझौतों पर ही टिकी होती है , यही तो संस्कार दिये जाते हैं उसे बचपन से ही । पति की बात दिल पर लगी थी , कुछ दिन तटस्थ ही रही घर की जरूरतों के प्रति..भाड़ में जाये सब ...उनका घर है वो जानें , सोचकर न किसी मजदूर को टोकती , न किसी काम को देखने में रुचि दिखाती । पर यह उसकी प्रकृति नहीं है ..उसे पता था ज्यादा दिन वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि वह जड़ से जुड़ी है इस घर से । उसका रोम - रोम अपनी गृहस्थी के लिए ईमानदार है.. पति उसकी कद्र करें न करें..पर वह अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ सकती , शायद यही स्वभाव उसकी कमजोरी है और उसकी ताकत भी..। कुछ पल के बाद पतिदेव भी भूल चुके होते हैं कि उन्होंने अपनी बातों से पत्नी को आहत किया है...और शुरू हो जाएगी उनकी मान - मनुहार की बातें ..उसकी पसन्द की चाट और गुपचुप आयेंगे घर में और निहाल हो रमा फिर भिड़ जाएगी अपने घर को संवारने में ।
स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Wednesday, 22 November 2017
आजकल बहुत बोलने लगी हो तुम
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