Tuesday, 14 November 2017

चल , कहीं और चलते हैं***

चल , कहीं और चलते हैं....
दिखावे की रीत यहाँ ,
झूठ , फरेब की है दुनिया ।
जुबान पर मिश्री की डली ,
 क्रोध दिलों में पलते हैं
चल कहीं और चलते हैं....
थामा था विश्वास का दामन ,
नफरतों  से भरा हुआ मन ।
टकराते हैं जाम हाथों में ,
पीठ पर ख़ंजर चलते हैं...
चल कहीं और चलते हैं....
फूल बिछाए थे राहों में ,
काँटों को छाँटकर हमने ।
घावों की पीर सह ली पर ,
बातों के नश्तर चुभते हैं .....
चल कहीं और चलते हैं....
रिश्तों का खारापन देखा ,
उजला - काला मन देखा ।
लगता है तन मरुथल -सा ,
सीने में समंदर पलते हैं....
चल कहीं और चलते हैं....
फुलवारी का विनाश देखा ,
माली को उदास देखा ।
नहीं रहना ऐसी जगह ,
जहाँ वहशी दरिंदे...
नन्हीं कलियों को मसलते हैं....
चल कहीं और चलते हैं.....

स्वरचित --डॉ.  दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😗😗

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