Monday, 27 November 2017

संविलियन के लिये

रूठे - रूठे सरकार मनाएं कैसे ।
संविलियन के बिना वापस जाएं कैसे ।।
शिक्षा का महादान किया है ,
फिर भी न शिक्षक का नाम दिया है।
शोषित और अपमानित होकर ,
जहर भरा ये जाम पिया है ।
मन की व्यथा हम बताएं कैसे ।रूठे।
जब - जब जो आदेश मिला है ,
हमने काम वो पूरा किया है ।
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया ,
महंगाई ने परेशान किया है ।
क्या - क्या है तकलीफें बताएं कैसे।।रूठे।।
राह हमारी रोककर खड़े हैं
कानों में तेल डाल कर पड़े हैं।
आस्तीन में ये साँप पला है ,
वादा कर करके छला है  ।
तेरे वादे तुम्हें याद दिलाये कैसे ।।रूठे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 25 November 2017

प्रतिदान ( कहानी )

मैं बोर्ड परीक्षा के मूल्यांकन  के लिये गई हुई थी । वहाँ
अपने ही कमरे  में एक मैडम का चेहरा मुझे बड़ा जाना
पहचाना लगता .....पर उनका नाम सुनकर मैं निराश हो
गई । गायत्री  शर्मा ...मेरी एक क्लासमेट थी गायत्री जैन
...पक्का वही है , मेरी नजर उस  पर बार - बार चली ही
जाती । जब उसने भी मेरी तरफ देखा तो हल्की सी
मुस्कुराहट चेहरे पर झलक आई थी ।
        समय ने कितना बदलाव ला दिया था उसके चेहरे
में ...लम्बे काले बालों वाली ,दुबली पतली ,गोरी नाजुक
सी गायत्री  कितनी थकी हुई बूढ़ी लग रही थी मानो उसके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ हो । मेरे मन में
हजारों सवाल उठ खड़े हुए थे ...उसका परिवार बहुत ही जागरुक था इसलिए उसकी पढ़ाई पर रोक नहीं लगा । लेकिन पढ़ाई पूरी करते ही उसकी शादी हो गई
थी , उसके बाद उससे मुलाकात नहीं हुई क्योंकि मैं भी
अपनी  नौकरी  के कारण दूसरे शहर आ गई ...उसके बाद मेरी भी शादी हो गई और मेरा मायके आना - जाना
कम हो गया ।
          लंच टाइम में हम साथ बैठे तो  बातों का सिलसिला शुरू हुआ....उसने  अपने बारे में बताना प्रारंभ किया - शादी के बाद तो जैसे उसकी जिंदगी ही
बदल गई । नया - नया ससुराल ..नया वातावरण ...सामंजस्य नाने की कोशिश कर ही रही थी कि एक  दुर्घटना में उसके पति का निधन हो गया ।
स्नेह के धागे इतने मजबूत भी न हुए थे कि वहाँ जीवन
भर रुक पाती । वह मायके आ गई और व्यस्त रहने के लिये एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी । वर्षों अपनी
मेहनत से उसने स्कूल का कायाकल्प कर दिया और
प्राचार्य के पद पर पहुँच गई ।
           समय  का प्रवाह हर गम को बहा ले जाता है..
यह कर्मक्षेत्र ही है , जो हमें जीने की वजह प्रदान करता है ...व्यस्तता हमें  सब दुख - दर्द भूलने को मजबूर कर
देती है । ऐसे ही गायत्री का मन स्कूल के बच्चों में रम गया था ...स्कूल के कम्प्यूटर टीचर देवेंद्र  ने उसे अपनी तकलीफों को भूलने में बहुत मदद की । उसकी सृजन-
शीलता को बढ़ावा दिया । देवेंद्र ने उसे सचमुच जीना
सिखा दिया । परन्तु देवेंद्र से उसकी बढ़ती नजदीकियाँ
किसी को रास नहीं आई । पति के निधन से जो सहानुभूति  मिली थी , उसे नफरत में बदलते देर नहीं
लगी। गायत्री की मनोदशा समझने की किसी ने कोशिश
नहीं की । आठ माह के वैवाहिक जीवन की यादें क्या
उसके जीने का सहारा बन सकती थी ? क्या जीवन भर
भाई - भाभी और भतीजों की इच्छा के अनुरूप वह जी
पाती । उसके भी कुछ अरमान होंगे ,ऐसा किसी ने नहीं
सोचा । स्त्री कोई भूमि का टुकड़ा तो नहीं कि उस पर
जिसका अधिकार हो वही निर्णय ले कि उस पर क्या
बोना है..कभी धरती को पूछा जाता है कि उसकी क्या
इच्छा है , वह क्या चाहती है ? उसे अपने बारे में सोचने
का अधिकार भी नहीं है । ऐसे वक्त में उसके बंजर मन
पर  खाद का काम किया देवेन्द्र की सहानुभूति ने... अपने सहयोगपूर्ण व्यवहार से गायत्री का दिल जीतकर उसमें प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया था उसने । उसके स्नेह के  निर्मल सिंचन से लहलहा उठा था उसका जीवन... । आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी देवेन्द्र को हमउम्र हमसफ़र भी मिल सकती थी परन्तु उसने गायत्री को चुना ...उसके मन में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण  उत्पन्न किया ...उसे इस बात का
एहसास कराया कि वह अब भी एक नई शुरुआत कर
सकती है...वह  हाड़ - माँस का एक पुतला नहीं बल्कि
एक जीता - जागता इंसान है... उसके  शरीर  में भी स्पंदन करता एक दिल है । उसके अंदर ढेर सारी  खूबियाँ हैं 
और जीवन की जिस किताब को उसने बिना पढ़े ही बन्द करके सिरहाने फेंक दी है उसे वह पूरा पढ़ सकती है । स्त्री जीवन के कई अनछुए पहलू को वह भी जी
सकती है...। पर गायत्री को मिला यह पुनर्जीवन समाज
की  नजरों में कांटा बन गया था ..एक विधवा का पुनर्विवाह और वह भी अपने से कम उम्र के लड़के से..वह भी विजातीय  ' करेला ...ऊपर से नीम चढ़ा '
की उक्ति को चरितार्थ कर रहा था । इतने सारे अंतर्विरोधों के बावजूद  देवेंद्र और गायत्री ने साथ चलने
का निश्चय कर लिया था ...विवाह करके एक नई दुनिया
बसा ली थी उन्होंने । माँ -पिताजी , भैया - भाभी सबसे
अलग होना अच्छा नहीं लग रहा था , पर क्या करते..
वे मानने को तैयार ही नहीं हुए । कभी - कभी अपने घर
आँगन की  बहुत याद आती ...जिंदगी का एक कोना
हमेशा सूना लगता ...पर आगे तो बढ़ना ही था ।
       कालचक्र चलता रहा...वह एक सुंदर सी बिटिया
की माँ बन गई थी ...उसके पालन - पोषण में व्यस्त
हो गई थी वह ...  बेटी की शिक्षा , उसे संस्कार देने में
वे दोनों लग गए थे और बिटिया बहुत ही सुयोग्य और
प्रखर निकली...जिम्मेदारियाँ  हमें अपने दुःख भूलने
में मदद करते हैं ...गायत्री भी समाज के तिरस्कार ,
परिवार के अलगाव को भूल गई थी । अब तो उसने
बेटी का विवाह भी कर दिया था और अपने पति के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रही है । काश कि जिंदगी
इस खुशहाल पड़ाव पर रुक जाती.... गायत्री की आँखें नम हो गई थी... वर्षों बाद पता नहीं क्यों ईश्वर  फिर
मेरी परीक्षा ले  रहा है ..जिस धैर्यवान देवेंद्र ने मुझे अंधेरों से बाहर खींच निकाला , अब वह स्वयं उन्हीं
अंधेरों में भटक रहा है ...उनकी मानसिक स्थिति सही
नहीं है.. जिस कम्प्यूटर से इतना लगाव था उन्हें , अब
उसे देखते ही चीखने लगते हैं... एकदम चुप से ही गये
हैं , पता नहीं कौन सी चिंता उन्हें खाये जा रही है ।
उनके परिवार ने  कभी उनकी परवाह नहीं की ..शायद
यही बात उन्हें अब परेशान कर रही हो , यह सोचकर
मैं उनके घर भी गई थी उन्हें मनाने ताकि  अपने देवेंद्र
को वह सब खुशी दिला सकूँ जिसकी वो कमी महसूस
कर रहे होंगे । मैं वो हर प्रयास कर रही हूँ कि वह स्वस्थ
हो जाएं ...उनका अवसाद कुछ कम हो जाये  ।
            अभी एक आरोग्यधाम में रहकर उनका उपचार
करवा रही हूँ.... साथ ही वहीं के स्कूल में अपनी सेवा भी दे रही हूँ ...बहुत सुधार है उनके स्वास्थ्य में...बस एक विश्वास की डोर को थामकर रखी हूँ कि सब कुछ
ठीक हो जाएगा । एक सम्पन्न परिवार में पली बढ़ी गायत्री ने जीवन के इस कठिन पहलू को कितनी आसानी से स्वीकार कर लिया था... उसका यह कर्मठ ,
आत्मविश्वासी व दृढ़ - संकल्प युक्त व्यक्तित्व मुझे प्रभावित कर गया था । मेरे दिल से  सदाये निकल रही
थी ....मुश्किल हालात से लड़ते हुए तुम उस मंजिल तक पहुँच जाओ जहाँ कोई गम न हो ...सिर्फ खुशियाँ
हों और कुछ भी नहीं ।
          नैराश्य के जिन अंधेरों से एक दिन देवेंद्र ने गायत्री का हाथ थामकर उसे बाहर निकाला था , अब गायत्री उसे अवसाद के घेरे से खींच लाने का प्रयास
कर रही है.. उसका सम्बल बनने की कोशिश कर रही है
उसका यह प्रतिदान  सफल हो , मेरी शुभकामनाएं उनके साथ  हैं ।
    स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 22 November 2017

आजकल बहुत बोलने लगी हो तुम

        घर की मरम्मत का काम हो रहा था । बच्चे , पति तो बाहर चले जाते हैं.. घर पर रह जाती है रमा ...कौन सा सामान खत्म हो रहा है , क्या मंगाना है या काम ठीक से हो रहा है या नहीं ; यह देखना उसी की जिम्मेदारी है । अलमारी के प्लाइवुड के चयन पर वह
कुछ बोल ही रही थी कि पतिदेव भड़क गए... "आजकल कुछ ज्यादा ही बोलने लगी हो तुम .." सहम गई थी रमा ...काम करने वालों के आगे , ऐसी बेइज्जती...मन हुआ सब कुछ तहस - नहस कर दे । आखिर उसकी ही जिद के कारण यह घर बना था ...भले ही कमाते उसके पति हैं पर तिनका - तिनका जोड़कर घर उसने बनाया है... अपनी कितनी ही ख्वाहिशों को मारकर , घर - खर्च में बचत करके । कई काम अपने हाथों से करती रही ताकि दो पैसे की बचत कर सके...कितनी भी व्यस्तता रही पर अपने ही हाथों से फॉल पीकू किया , कपड़ों पर प्रेस किया..कभी बाहर से करवा कर आराम की चाहत नहीं की.. पर पुरुष का दम्भ कभी खत्म नहीं होता। वह तब तक ही स्त्री की बात सुनता है जब तक अपना स्वार्थ हो..उसके बाद उसके पास इतना धैर्य नहीं होता कि वह पत्नी को सम्मान दे सके या उसकी महत्ता स्वीकार कर सके । गाहे - बगाहे वह स्त्री की अभिव्यक्ति पर रोक लगाते ही रहता है  और उसके आत्मसम्मान की धज्जियाँ उड़ाते रहता है । पुरुष अपना यह अहम कब छोड़ेगा ? पत्नी बोले पर उसकी मर्जी के अनुसार...न एक रत्ती कम न एक रत्ती ज्यादा । यदि स्त्री उसके अनुसार न रही तो दाम्पत्य  जीवन में क्लेश , तनाव  उत्पन्न होगा ..और घर की शांति खत्म । परिवार की सुख - शांति एक स्त्री के समझौतों पर ही टिकी होती है , यही  तो संस्कार दिये जाते हैं उसे बचपन से ही । पति की बात दिल पर लगी थी , कुछ दिन तटस्थ ही रही घर की जरूरतों के प्रति..भाड़ में जाये सब ...उनका घर है वो जानें , सोचकर  न किसी मजदूर को टोकती , न किसी काम को देखने में रुचि दिखाती । पर यह उसकी प्रकृति नहीं है ..उसे पता था ज्यादा दिन वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि वह जड़ से जुड़ी है इस घर से । उसका रोम - रोम अपनी गृहस्थी के लिए ईमानदार है.. पति उसकी कद्र करें न करें..पर वह अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ सकती , शायद यही स्वभाव उसकी कमजोरी है और उसकी ताकत भी..। कुछ  पल के बाद पतिदेव भी भूल चुके होते हैं कि उन्होंने अपनी बातों से पत्नी को आहत किया है...और  शुरू हो जाएगी उनकी मान - मनुहार की बातें ..उसकी पसन्द की चाट और गुपचुप आयेंगे घर में और निहाल हो रमा फिर भिड़ जाएगी अपने घर को संवारने में ।
  
   स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
 

Wednesday, 15 November 2017

शीश - महल में ...

शीश - महल अद्भुत ...आकर्षक ,
यहाँ  बिताए कुछ पल ,
चारों ओर अपना ही प्रतिबिम्ब....
दायें , बायें , ऊपर , नीचे सर्वत्र ,
मैं ही मैं.. अपने- आप पर मुग्ध ..
ठहर गई  कुछ पल , ठिठक गई ,
बिछड़ गए  साथी ..हमसफ़र...
अब आभास हुआ अकेलेपन का ,
बेचैन हुई  , राह ढूँढने को मैं...
इधर - उधर भटकने लगी ,
सब तरफ राहे बन्द ,
दीवारें ही दीवारें ..
महसूस हुई तब अपनों की कमी ,
'स्व ' ही सब कुछ नहीं...
अधूरा है अस्तित्व अकेले में ,
तन्हाई चाहे कितनी भी खूबसूरत हो..
शीशमहल हो या स्वर्ण - महल ,
अधिक देर बहला नहीं सकती....
बन्द मकानों में ताजी हवा ,
आ नहीं सकती ....
क्षणिक सुख , कुछ पल के लिए,
खूबसूरत लगती है...
चकाचौंध क्षण भर ही सही ,
आँखे बंद कर देती हैं...
भरम टूट जाता है ,
जब अंतरात्मा जागती है ..
सध जाते हैं कदम ,
जीने की सही राह मिल जाती है।।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😊

Tuesday, 14 November 2017

चल , कहीं और चलते हैं***

चल , कहीं और चलते हैं....
दिखावे की रीत यहाँ ,
झूठ , फरेब की है दुनिया ।
जुबान पर मिश्री की डली ,
 क्रोध दिलों में पलते हैं
चल कहीं और चलते हैं....
थामा था विश्वास का दामन ,
नफरतों  से भरा हुआ मन ।
टकराते हैं जाम हाथों में ,
पीठ पर ख़ंजर चलते हैं...
चल कहीं और चलते हैं....
फूल बिछाए थे राहों में ,
काँटों को छाँटकर हमने ।
घावों की पीर सह ली पर ,
बातों के नश्तर चुभते हैं .....
चल कहीं और चलते हैं....
रिश्तों का खारापन देखा ,
उजला - काला मन देखा ।
लगता है तन मरुथल -सा ,
सीने में समंदर पलते हैं....
चल कहीं और चलते हैं....
फुलवारी का विनाश देखा ,
माली को उदास देखा ।
नहीं रहना ऐसी जगह ,
जहाँ वहशी दरिंदे...
नन्हीं कलियों को मसलते हैं....
चल कहीं और चलते हैं.....

स्वरचित --डॉ.  दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😗😗

Friday, 3 November 2017

इंतजार

मन के रजत दर्पण में ,
भावों के प्रतिबिम्ब  बने  ।
प्रेम के  उजाले  के ,
आँखों में दीप सजे ।
दिल की हर धड़कन  में,
इंतजार के सुर सजे ।
होठों की शबनम में ,
प्रीत के बोल चढ़े ।
हाथों की लकीरों में ,
प्रियतम का रूप दिखे ।
गालों का तिल प्यारा,
चुम्बन की बाट तके ।
साँसों की तपिश में ,
विरह की अग्नि जले ।
दर्शन की प्यासी  ,
नैनों से अश्क  बहे ।
आलिंगन को आतुर ,
बाहों  के हार गुँथे ।
अधरों की कम्पन ,
मिलन की आस रखे ।
नुपूर के घुँघरू  में,
पिया तेरा नाम बजे।
कँगना की खनखन से,
मीठा सा एहसास जगे ।
पुरनम हवाओं की छुअन,
कानों  में सरसरा के कहे।
आने वाला है कोई  ,
यामिनी मिलन की बाट जोहे।
  
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़,❤️

महंगाई ( लघु कथा )

           मेरे कार्यालय का चपरासी महंगाई का रोना रो
रहा  था ... हम लोग कहाँ से दाल  खायेंगे मैडम ...सब्जी   ही खरीद लें , काफी है । इतनी महंगाई
में कैसे गुजर करें .. क्या करेंगे मन मार कर जीना पड़ता
है । अभी वह यह डायलॉग मार ही रहा था कि दूसरे
साथी भी आ पहुँचे । हाँ भई... दाल - सब्जी महंगी क्यों
नहीं लगेगी ..उससे सस्ती  तो दारू लगती है जो रोज
पीने पहुँच जाते हो । चपरासी  नजर  चुराते हुए बाहर
निकल गया ।

   स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ###

अपाहिज ( लघु कथा )

    पढ़ते - पढ़ते रेणु की नजर अचानक दीवाल घड़ी पर
गई तो वह  चौंककर उठ खड़ी हुई. ओह ! आज मुझे बहुत देर हो गई... परीक्षा तो शुरू हो गई होगी । वह तेजी से स्कूल की ओर चल पड़ी , जल्दबाजी में मोड़
पर अचानक वह एक व्यक्ति से टकरा गई । उस सज्जन
के हाथ की किताबें सड़क पर बिखर गई ...उन्होंने जोर
से उसे  डाँट  पिलाई - पैर तो खराब हैं ही .साथ ही साथ
आँखें  भी  खराब हो गई हैं क्या ? यह सब सुन कर वहाँ
खड़े कुछ लड़के भी जोर - जोर से हँसने लगे ।  रेणु को
लगा जैसे उसे किसी ने तमाचा मार दिया हो । उन सज्जन की डाँट उसे  उतनी बुरी नहीं लगी क्योंकि उसकी वजह से उन्हें परेशानी हुई थी  , शायद उन्हें भी
कोई आवश्यक काम हो लेकिन आस - पास खड़े लोगों
की हँसी उसका दिल दुखा गई । उसकी परीक्षा थी इसलिए वह वहाँ से चली गई ।
              पेपर दिलाकर लौटते वक्त उस मोड़ पर उसे
पुनः सुबह वाली घटना  याद आ गई और मन बोझिल
हो गया । वह उसके बारे में सोच  ही रही थी कि अचानक उसने कुछ दूरी पर  लोगों को खड़े हुए देखा ..
शायद  कोई दुर्घटना हुई थी ..उसने पास जाकर देखा
वहाँ एक लड़का घायल पडा  हुआ था..अरे ! यह तो
सुबह उसकी खिल्ली उड़ाने वालों में से एक था । उसकी इच्छा हुई अब वह उससे पूछे कि आपके तो
हाथ - पैर  , आँखे सब कुछ सही - सलामत हैं फिर आप
कैसे गिर पड़े... पर  इस समय तो वह बेचारा स्वयं आहत था , उसकी बेबसी को देखने वाले यहाँ कई थे
पर उसे अस्पताल  पहुँचाने  , उसकी सहायता करने वाला  कोई नहीं था सच...गिरे हुए या लाचार  व्यक्ति को  देखकर  हँसने वाले ही  मानसिक रूप से अपंग
होते हैं ...मैं पैरों से लाचार सही पर मेरा मन तो स्वस्थ
है...यह सोचकर  रेणु ने एक ऑटो रिक्शा रुकवाया और वहाँ खड़े लोगों की मदद से उस घायल के अस्पताल पहुँचने  की व्यवस्था की । वहाँ तमाशा देखने
वाले काफी लोग थे पर सहानुभूति , सहारा देने वाला कोई नहीं था ...रेणु को अचानक लगा कि यहाँ पर उसे
छोड़कर खड़े हुए बाकी सभी लोग अपाहिज हैं ।
  
   स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ****

Thursday, 2 November 2017

क्या आपके पास जवाब है ?

    उस दिन पचास की दहलीज पार कर चुकी रमा बुआ
ने अपने एक परिचित के छः वर्षीय बेटे को वात्सल्य
से अपनी गोद में लेकर प्यार करके क्या गुनाह कर दिया
...बच्चा अचानक  बेड टच , बेड टच चिल्लाने लगा...
कुछ पल के लिए सब स्तम्भित रह गए , फिर हँस पड़े ।
शायद स्कूल में आज ही उसे " गुड टच , बेड टच " की
जानकारी दी गई होगी । स्वाभाविक प्रतिक्रिया वश हम
हँस पड़े परन्तु वास्तव में यह एक गम्भीर चिंतन का विषय है ।
      आजकल ऐसी कई घटनाएं घट रही हैं जिनके कारण हमें सतर्कता  के लिए  बच्चों को ऐसी जानकारियाँ देनी पड़ रही हैं परंतु क्या उस छः वर्ष के
बच्चे में इतनी समझ है कि वह इन सब बातों का मतलब समझ सके । क्या हम उनसे  उनकी उम्र से अधिक अपेक्षा नहीं कर रहे ।
       जिस उम्र में मन निश्छल होता है ...कोई भेदभाव
छोटा - बड़ा , अपना - पराया नहीं होता ...उन्हें हम लोगों पर अविश्वास करना सिखा रहे हैं... किसी के बुलाने पर उनके साथ मत जाना ...किसी भी अनजान
अंकल से चॉकलेट मत लेना , कोई कुछ खाने को कहे
तो मत खाना । अपने रिश्तेदारों पर  विश्वास  करने के लिये भी हम  उन्हें नही कह सकते । कोई बहुत घनिष्ठ हैं उन्हीं के साथ रहना , उनकी बात मानना । बच्चे को हम ही भेद करना सिखा रहे हैं , हालांकि यह सब उनकी सुरक्षा के लिए ही  है... पर बच्चे के लिए तो  सही नहीं है । हम स्वयं ही बच्चे के मन को संकीर्ण बना रहे हैं ..भय के कारण उन्हें बाहर खेलने जाने से रोक रहे हैं  , उनकी सार्वजनिक जिंदगी पर पाबंदी लगा रहे हैं ...फिर कैसे होगा उनके व्यक्तित्व का चहुमुंखी विकास  , जब हम उन्हें उड़ने को खुला आसमान नहीं दे पा रहे ।
     पहले की बातें याद आती हैं जब किसी सफर में मेरा
बच्चा पूरे डिब्बे के लोगो के आकर्षण का केंद्र हुआ करता था । कोई उसे हँसा रहा है , कोई जबरन बुलवा
कर उसकी तोतली जुबान के आनन्द ले रहा है , बड़ा ही अपनापन भरा माहौल बन जाता था  , प्रत्येक सफर की एक मधुर याद रहती थी , कई बार सफर में ही प्रगाढ़ रिश्ते पनप जाते  थे।
कहीं भी कोई प्यारा बच्चा  दिखे तो उसे पुचकारने , दुलारने या चॉकलेट , बिस्किट देने वाले कितने आत्मीय जन मिल जाते ..माता - पिता को पता ही नहीं चलता कि कब मंजिल आ गई ।न जाने  ऐसे कितने खूबसूरत एहसासों से दूर हो जाएंगे ये बच्चे क्योकि अब तो डर के मारे किसी बच्चे को गोद में लेने की हिम्मत ही नहीं होती , क्या पता उसके माता - पिता यह न समझ ले कि कही कोई अपहरण कर्ता तो नहीं ..इस सतर्कता के चलते वे अपने बच्चे को किसी और को गोद में लेने ही नही देते ।
      किसी को चॉकलेट , बिस्किट भी ऑफर नहीं कर सकते कि वे यह न सोंचे कि इसमें कहीं बेहोशी की दवा तो नही मिला दी है इसने ...ऐसी घटनायें हुई हैं इसलिए
समाज में असुरक्षा की भावना बढ़ी है । बच्चों के यौन-
शोषण , अपहरण , चोरी इत्यादि की बढ़ती घटनाओं
ने भय , शक और अविश्वास को जन्म दिया है... जिसका सीधा असर बच्चों के पालन - पोषण पर पड़ता
है पर हम यह भी सोंचे कि ये कैसा समाज दे रहे हैं हम उन्हें । स्वयं ही हम उन्हें कुण्ठा व तनाव , डर , अविश्वास सिखा रहे हैं , क्या यह उनके लिये सही है..
उनकी सुरक्षा के लिए किये जाने वाले हमारे प्रयास कहीं
उनके विकास में बाधक न बनें ...सोचना होगा हमें । उनके मन में कई बातें उठेंगी  , कई सवाल खड़े होंगे ऐसा क्यों .....? क्या हमारे पास उनके सवालों के जवाब हैं ? क्या आपके पास उनके सवालों के जवाब हैं ?
   
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ 💐💐