Monday, 25 March 2019

अरमान

भोर लिखूँ , मध्यान्ह लिखूँ .
या सिंदूरी शाम लिखूँ.....
राम लिखूँ , श्याम लिखूँ ,
या दिल पे तेरा नाम लिखूँ...
झील बनूँ ,  झरना बनूँ ,
या नदी अविराम बनूँ..
स्नेह  बनूँ , श्रद्धा  बनूँ ,
या प्यार का जाम बनूँ ...
एक पहर , दो पहर नहीं ,
साथ मैं आठों याम रहूँ..
आस बनूँ , विश्वास बनूँ ,
या अनवरत प्रयास बनूँ...
भक्ति करूँ , समर्पण करूँ ,
या खुद को अर्पण करूँ...
चाँद  बनूँ , तारे बनूँ ,
या  दीप बन जीवन में उजास करूँ...
तितली बनूँ , पंछी बनूँ ,
या  तरु बन  तेरा आवास बनूँ...
शब्द बनूँ , अर्थ बनूँ ,
या स्नेहिल भाव विचार बनूँ...
दरिया बनूँ , नदिया बनूँ ,
या समंदर विशाल बनूँ...
धूप बनूँ , बारिश बनूँ ,
या  धरा की प्यास बनूँ...
शब्द बनूँ , भावार्थ बनूँ ,
या कोमल एहसास बनूँ....
रूप धरूँ कुछ भी पर ,
सदा  पिया  तेरे साथ रहूँ....

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 22 March 2019

उलझन ( कहानी )

माँ मैं कॉलेज जा रही हूँ... कहते हुए  विधि घर से बाहर निकली तो माँ ने अंदर से ही कई हिदायतें दे डालीं.
देर मत करना ...समय पर खा लेना आदि आदि । विधि बी. एस. सी. प्रथम वर्ष की छात्रा थी , अपनी सहेलियों के साथ वह सुबह नौ बजे घर से निकलती..उसकी क्लास चार बजे खत्म होती थी.. पहला साल होने के कारण सीनियर द्वारा उनका इंट्रोडक्शन  होता था और उनके लिए ढेर सारे नियम बनाये गए थे जैसे बिना चुनरी के सूट नहीं पहनना , स्लीवलेस कपड़े नहीं पहनना  , सीनियर्स को नाइंटी डिग्री झुककर विश करना आदि..तो उन्हें बहुत डर कर रहना पड़ता ताकि वे परेशान न करें । अंतिम वर्ष के सीनियर निनाद सर उसे बहुत अच्छे लगते थे.. उन्होंने कई बार उसकी मदद की थी और अपने साथियों की डांट पड़ने से भी बचाया था । फिजिक्स का प्रैक्टिकल समझ न आने पर वह निनाद सर से समझने गई थी.. उन्होंने बहुत अच्छे से उसे समझाया था.. वह कॉलेज के ब्रिलिएंट स्टूडेंट्स में से एक थे । कहीं भी मिलते वे बहुत अच्छी  बातें करते व विधि को सृजनात्मक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते । वाद - विवाद प्रतियोगिता में पक्ष में विधि और विपक्ष में निनाद सर का चयन हुआ था और उन्हें यूनिवर्सिटी में भाग लेने के लिए जाना था । कॉलेज की मैडम भी  साथ गई थी , निनाद सर के साथ दो दिन रहकर उनके बीच  अच्छी दोस्ती हो गई थी , वैसे ही विधि उनके व्यक्तित्व और प्रतिभा से  बहुत प्रभावित थी । मासूमियत  लिए  उसकी  उम्र  भी थी सपने बुनने की..वह निनाद सर के लिए आदर के साथ कुछ और भी महसूस करने लगी थी.. शायद यह  एहसास प्यार ही है.. वह सोचने लगी थी । घर में रहती तो उनके बारे में ही सोचती..पढ़ते - पढ़ते किताबों के बीच बरबस उनका चेहरा आ जाता और वह कल्पनालोक में खो जाती । उसके हर क्रियाकलाप में निनाद सर उसके साथ होते..वह पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पा रही थी.. कितना ही वक्त उनके बारे में सोचकर व्यतीत कर देती । परंतु बाद में पछतावा भी होता कि समय व्यर्थ बीता जा रहा है और वह पढ़ाई नहीं कर पा रही है । सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उसका प्यार व लगाव एकतरफा था । निनाद सर के प्रति उसका लगाव बढ़ता ही जा रहा था और वह भावनाओं के मकड़जाल में फँसती ही चली जा रही थी । पल्लवित हुए नये कोंपल की तरह उसकी भावनाएँ बहुत ही मासूम थी पर यह उसके जीवन की उलझन बढ़ा रही थी । निनाद सर ने कभी अपना झुकाव उसकी तरफ नहीं दिखाया था.. वह तो सिर्फ उसकी मदद कर दिया करते थे... उसे आगे बढ़ने को प्रेरित करते थे । विधि के बदलते व्यवहार ने शायद उन्हें भी यह एहसास करा दिया था कि विधि क्या महसूस कर रही है । अचानक उन्हें अपने सामने पाकर उसका ठिठकना , अक्सर उसकी नजरों का निनाद को ढूंढना , उसका अधिक साथ पाने के बहाने बनाना...इस उम्र का प्यार महज शारीरिक आकर्षण  होता है.. समझदारी भरा निर्णय नहीं होता है वह जानते थे । लेकिन विधि को कैसे समझाया जाए वह सोच में पड़ गए थे । प्रैक्टिकल परीक्षा के बाद निनाद सर से उसकी मुलाकात हुई तो उन्होंने उसकी पढ़ाई के बारे में पूछा और परीक्षा की ठीक ढंग से तैयारी करने के लिए विधि को कुछ टिप्स भी दिये । परीक्षा की तैयारी में वे दोनों ही व्यस्त हो गये थे । विधि का मन होता उन्हें फोन कर बात कर ले पर वे भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त होंगे  यह सोचकर नहीं कर पाई ।
विधि जानना चाहती थी कि निनाद सर के दिल में उसके लिए कोई जगह है या नहीं । न भी हो तो उसे फ़र्क नहीं
पड़ता क्योंकि चकोर का काम चाँद को चाहते रहना है ..चाँद को यह खबर भी नहीं तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता..वह तो अपने प्रेम के मधुर एहसास में डूबा रहता है । प्रेम कभी प्रतिदान नहीं चाहता.. विधि प्रेम की मधुरता से सराबोर थी...यथार्थ के ठोस धरातल पर उसने कदम ही नहीं रखा था ।
      निनाद बेहद समझदार व सुलझे व्यक्तित्व का लड़का था.. वह नहीं चाहता था कि विधि के साथ कभी कुछ गलत हो..इस उम्र में सही दिशा निर्देश मिलना अत्यंत आवश्यक होता है नहीं तो कदम भटकने की पूरी गुंजाइश रहती है । कम उम्र में ही मोहब्बत में नाकाम युवा मौत को गले लगा लेते हैं.. अति भावुकता सोचने - समझने की क्षमता को खत्म कर देती है । निनाद ने विधि को परीक्षा के बाद उससे बात करने का निश्चय किया और उसे मिलने के लिए बुलाया । विधि बेहद प्रसन्न थी उसके लिए तो "अंधा क्या चाहे दो आँखें" वाली कहावत सार्थक हो रही थी । उसका दिल जोरों से धड़क रहा था पता नहीं क्या कहने बुला रहे हैं निनाद सर...कहीं उन्हें भी तो...इससे आगे सोचने में भी उसे शर्म आ रही थी । खैर , हल्के गुलाबी सूट में तैयार होकर वह निनाद सर से मिलने लायब्रेरी गई । पेपर के बारे में बात करने के बाद निनाद ने उससे कहा..विधि , मैं आगे की पढ़ाई करने के लिए बाहर जा रहा हूँ... मैं चाहता था उससे पहले तुमसे बात करूँ । तुम एक बहुत अच्छी लड़की हो..पढ़ाई में भी अच्छी हो । अभी का समय बहुत महत्वपूर्ण रहता है  , इधर -  उधर ध्यान दोगी तो अपने करियर पर  फोकस नहीं कर पाओगी ।
प्रेम और श्रद्धा में थोड़ा सा ही अंतर होता है... कई बार किसी के प्रति हमारे मन में श्रद्धा या आदर भाव प्रेम का एहसास कराता है... पर वह प्रेम नहीं होता है ।श्रद्धा में कोई बुराई नहीं है ,हम ईश्वर के प्रति भी श्रद्धा रखते हैं पर उन्हें सिर्फ अपना कहकर अधिकार नहीं जताते । प्रेम एकाधिकार चाहता है.. कई ख्वाहिशें जगाता है.. और उन ख्वाहिशों के पूरे न होने पर मन में निराशा घर कर लेती है और हम जिंदगी में बहुत पीछे रह जाते हैं ।
मैं यह सब तुम्हें इसीलिए बताना चाहता हूँ कि कुछ वर्ष पहले मेरी एक कजिन ने प्रेम में निराश होकर खुदकुशी कर ली थी । शायद उसे कोई समझा नहीं पाया कि जीवन में और भी राहें हैं.. जीने के हजार तरीके हैं । निराशा और तनाव ये दो बातें हमारे मन को कुंठाग्रस्त कर देती हैं और हमें कुछ भी सोचने नहीं देती..हम अच्छे - बुरे का फर्क नहीं कर पाते । मैं एक बड़े और दोस्त के रूप में तुम्हें समझा रहा हूँ इसे अन्यथा मत लेना और बहुत सोच समझ कर जीवन की राहें तय करना । मैं यहाँ नहीं रहूँगा पर फोन के जरिये तुम अपनी बातें मुझसे शेयर कर सकती हो..एक सीनियर , दोस्त के रूप में मैं हमेशा तुम्हारी मदद करूँगा ।
विधि समझ गई थी निनाद सर क्या कहना चाह रहे थे.. नहीं सर मैं भावुकता में कभी भी कोई गलत कदम नहीं उठाऊंगी.. क्योंकि मुझे आप जैसे समझदार और दूसरों का भला सोचने वाले सर मिले हैं । आप बिलकुल सच कह रहे हैं , अभी अपने करियर के बारे में सोचने का वक्त है.. मैं इस पर पूरा ध्यान दूँगी । शुक्रिया  ! आपने मुझे जीवन की एक  बहुत बड़ी उलझन से बाहर निकाला.. अब मैं किसी बात से बहकने वाली नहीं । पर आप मुझसे बात करने व मुझे दिशा निर्देश देने के लिए समय जरूर निकलेंगे , वादा कीजिये । निनाद सर के मुस्कुराते हुए हाँ  सुनकर विधि की आँखे खुशी से नम हो गई थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 12 March 2019

होली का उपहार ( लघुकथा )

अमन थोड़ा शर्मिला ...शांत स्वभाव का लड़का था.. उम्र यही कोई दस बरस की होगी...अभी इस शहर में नया - नया आया था । कॉलोनी में अभी कोई दोस्त नहीं बने थे..हाँ स्कूल में कुछ दोस्त जरुर बन गए थे ।अपनी बालकनी से नीचे अपने हमउम्र लड़कों को खेलते देखकर उसकी भी  इच्छा होती कि उनके साथ जाकर खेले...पर वह पहल नहीं कर पाता । माँ ने कई बार कहा जा बेटा जाकर उनसे दोस्ती कर..कब तक ऐसे अकेले रहेगा ।  दिन निकलते जा रहे थे ...होली पास आ रही थी.. कॉलोनी के सारे बच्चे होलिका दहन के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा कर रहे थे.. होली अमन का फेवरेट त्यौहार था..उसकी भी इच्छा हो रही थी कि वह उनसे घुले - मिले , दोस्तों की मदद करे ।  होली का त्यौहार तो समूह में ही अच्छा लगता है । आखिर उसे एक उपाय सूझा... घर की छत पर कुछ पुराने फर्नीचर और गत्ते के डिब्बे पड़े हुए थे जो मकान शिफ्ट करते वक्त पैकिंग के लिए लाए गए थे । अमन उनमें से कुछ गत्ते लेकर होलिका के पास गया ...उसे देखकर लड़कों की टोली का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने खुशी से उसका अपनी टीम में स्वागत किया । अमन ने उनसे बाकी सामान नीचे उतारने के लिए मदद करने को कहा और पूरी वानर सेना जुट गई छत का सामान नीचे लाने में... उनकी होलिका काफी ऊँची हो गई थी और मम्मी भी खुश हो गई थी छत की सफाई हो जाने पर । सबने होलिका की पूजा करके होलिका जलाई और दूसरे दिन खूब होली खेली...रंगों से एक - दूसरे को सराबोर कर दिया...मम्मियों को अपने बच्चे को पहचानना मुश्किल हो रहा था...फिर सबने एक - दूसरे के घर जाकर मनपसन्द व्यंजन के मजे लिए । सबसे अधिक खुश अमन था...उसकी झिझक दूर हो गई थी और अपना मनपसन्द त्यौहार होली के मजे के साथ -  साथ उसे ढेर सारे दोस्त भी मिल गए थे । इस होली का यह सबसे खूबसूरत उपहार था ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 9 March 2019

हौसलों की उड़ान #

सिमट गया संसार आज ,
खुला  असीम आसमान है...
दृढ़  निश्चय  , पक्के इरादे ,
हौसलों की उड़ान है...
आभूषणों की चाह नहीं ,
साहस ही मेरा श्रृंगार है...
त्याग और समर्पण युक्त ,
देशभक्तिपूर्ण विचार हैं...
माता - पिता का गौरव हूँ ,
दुश्मनों का काल बनूँ...
शिकार पर झपट पड़े जो ,
वो तेज चाल बाज बनूँ...
आत्मविश्वास से भरपूर हूँ ,
वायुसेना हमारी शान है...
देश हित कुछ कर सकूँ मैं ,
खाकी वर्दी  ही मेरी जान है...

जब तक कर्तव्य न पूरे हों ,

तब तक नहीं आराम है...

नमन है धरा तुझे ,

ऐ वतन तुझे सलाम है...।


स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 5 March 2019

तुम दिन भर करती क्या हो?

  सुबह से उठी रमा चकरघिन्नी की तरह घूम रही थी...बच्चों का टिफिन तैयार करना , उन्हें उठाकर तैयार कर स्कूल बस तक छोड़ने जाना , फिर पतिदेव का नाश्ता , दूध , चाय ...उनके लिए कपड़े निकालना उसका रोज का काम था । सबके जाने के बाद घर को ठीक - ठाक करके  वह बाजार चली जाती थी ताकि कुछ बचत हो सके क्योंकि ठेलेवाले मनमाना दाम लगाते थे.. उससे जितना बन पड़े अपने हाथों से ही काम करती ,  वह कपड़े भी स्वयं प्रेस कर लेती थी । बच्चों की परीक्षा के समय उसे उनकी पढ़ाई के लिए अतिरिक्त समय देना पड़ता था तो कुछ दिनों से बाजार नहीं जा पाई । शाम को पति वापस आये तो कुछ सामान लाने को क्या कह दिया वे भड़क उठे...अरे यार ! तुम दिन भर घर में करती क्या हो ? मैं ऑफिस से थकहार के वापस बाजार नहीं जा सकता..तुम ही चली जाना...रमा की आँखें नम हो आई थी... दिन - भर मरने - खपने के बाद भी यह वाक्य कभी उसका पीछा नहीं छोड़ता कि दिन भर तुम करती क्या हो..शायद अब बताने का वक्त आ गया है । अगले दिन शाम को ऑफिस से लौटने पर पतिदेव को  रमा की चिट्ठी मिली..." माँ की तबीयत खराब होने के कारण तुरंत निकल रही हूँ , आप सब सम्भाल लेना ।"
      रात का खाना तो जैसे - तैसे मैनेज किया ..बच्चों को पढ़ाया कम डाँटा और मारा ज्यादा...दूसरे दिन अलार्म सुनकर नींद खुली तो बच्चों को उठाने में नानी याद आ गई । जला  भुना टोस्ट खिला कर नीचे पहुँचा कि स्कूल की बस छूट गई...उन्हें अपनी गाड़ी से स्कूल छोड़ने जाना पड़ा । उसके बाद खाना बनाना ...उसने दिन के आधे में ही अपना सिर पकड़ लिया था... रमा के हाथ का स्वादिष्ट भोजन याद आ रहा था । बच्चे भी नाक - मुँह बना कर खाना खा रहे थे । वह चाहता था कि थोड़ी देर आराम कर ले कि बच्चे पढ़ने के लिए आ गए क्योंकि परीक्षा सिर पर थी । हमेशा सँवरा , व्यवस्थित रहने वाला घर बिखरा पड़ा था...इसके पहले आशीष को लगता था कि काम करने के लिए बाई है तो घर में और काम ही क्या है... पर अब उसे समझ आ गया था क्यों रमा रात तक थक जाती है.. किसी दिन उसके पास बाजार जाने के लिए समय क्यों नहीं होता है। हम सिर्फ बाहर जाकर काम करने वालों को ही महत्व देते हैं.. घर पर रहने वाली महिलाएं दिन - भर घर की व्यवस्था में जुटी होती हैं.. पर वह हम नजरअंदाज कर देते हैं । उनकी वजह से हम अपना सब काम समय पर कर पाते हैं.. उनके  कुशल गृह - प्रबंधन से कम वेतन में भी जिंदगी आराम से चल जाती है और बचत भी हो जाती है । हम उन्हें अबला समझते हैं पर वह तो सबको बल देती है , स्वयं जाग कर हमारी नींद पूरी होने देती है  ताकि हम समय पर काम पर जा सकें । कुम्हार जिस प्रकार मिट्टी को आकार देता है , स्त्री बच्चों को सुंदर संस्कार देती है । चार दीवारों के घर को सही मायने में घर बनाती है ।
           रमा दो दिन अपने मायके में रही , ये दो दिन आशीष ऑफिस नहीं गया लेकिन उससे कहीं अधिक थक गया था । रात को उसने रमा को फोन लगा ही दिया और अपनी आवाज में प्यार की शहद घोलते हुए कहा...अब आ जाओ न रमा , अपना घर संभालो.. अब मैं तुमसे कभी नहीं कहूँगा कि तुम घर पर दिन भर क्या करती हो क्योंकि ये दो दिन घर पर रहकर  मैंने  सच्चाई  को महसूस कर  लिया है । अपनी नादानी के लिए मैं तुमसे माफी मांगता हूँ... तुमने मुझे सबक सिखाने के लिए ही यह सब किया ना.. मैंने उस दिन तुम्हारी आँखों में नमी  देखी थी  , पर इसे मेरा पुरुषोचित अहम कहो कि मैंने अपनी गलती नहीं मानी । पर सच कहता हूँ पुरुषों को अपना अहम छोड़कर यह स्वीकार कर   लेना चाहिए कि जितना महत्वपूर्ण उसका ऑफिस जाना है उतना ही  , बल्कि  उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण घर की व्यवस्था सम्भालना  है ।  मैं तुमसे वादा करता हूँ कि घर के कामों में मैं हर सम्भव तुम्हारी मदद करूँगा , तुम जल्दी घर आ जाओ प्लीज़..बच्चों को पढ़ाना मेरे बस का नहीं है यार ..बाकी कोई काम नहीं करना... चलेगा..। बस - बस ..अब ज्यादा मस्का मत लगाओ मैं कल सुबह ही आ रही हूँ  , रमा मुस्कुराती हुई बोली ..उसका नुस्खा काम कर गया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 4 March 2019

स्मृति शेष ( लघुकथा )

उस दिन एक परिचित के यहाँ गृह - प्रवेश की पूजा में जाना हुआ । उन्होंने अपने घर के बाहर बड़े - बड़े अक्षरों में अपनी माँ का नाम लिखवाया था."  माँ श्रीमती.......की स्मृति में " मातृभक्ति का उनका यह दिखावा मन को आहत कर गया । जब तक वह जीवित थीं खाने को तरस गईं । ऐसा नहीं है कि बेटे की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है... पर बहु के देर से उठने और देर से खाना बनाने के कारण बेचारी भूख से बेहाल हो उठती... वर्षों से पति व बच्चों की ड्यूटी व स्कूल जाने की दिनचर्या के कारण सुबह जल्दी खाना बनाने व खाने की आदत जो पड़ गई थी... अचानक कैसे सुधर जाती ।
    चलो...घर के बाहर लिखे माँ के नाम को प्रतिदिन देखकर बेटे को अपराधबोध  तो  हो   कि  वो माँ की
सुविधानुसार अपने - आपको बदल नहीं पाये ।

स्वरचित - डॉ . दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

अनुपयोगी ( लघुकथा )

सुयश की पत्नी मेघा न अपने घर की देखभाल करती है और न ही किसी काम में हाथ बटाती है । बस दिन भर अपने कमरे में पड़ी आराम करती  रहती है । उसेअपने मायके के अलावा  न कहीं आना -  जाना पसंद है न रिश्तेदारों से मिलना  । उसे बस शॉपिंग करना , बाहर खाना व  सोना ही पसन्द है । अपने इस व्यवहार से उसने स्वयं को सबकी नजरों में उपेक्षित
सा कर लिया है क्योंकि अब कोई भी उसे नहीं पूछता कि वह कहाँ है , न ही उससे मिलता । मुझे उसे देखकर
स्टोर रूम में पड़े उन पुराने सामानों की याद आती है जिन्हें कभी उपयोग में भी लाया नहीं जाता और कभी काम आ जायेगा सोचकर फेंका भी नहीं जाता ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 3 March 2019

इंतजार ( लघुकथा )

गुपचुप में आलू चना भरते उन नन्हें हाथों पर ध्यान था मेरा...तेजी से काम  करते उन हाथों और उस मासूम चेहरे में  कुछ विशेष आकर्षण था । तेरह - चौदह वर्ष का वह लड़का शायद स्कूल भी जाता होगा और पार्ट टाइम में शादी , पार्टी में काम करता होगा । मजबूरी व परिस्थितियां  कितनी जल्दी  बच्चों में जिम्मेदारी के भाव जगा देते हैं ।
खेलने व पढ़ने की उम्र में वे समय निकाल कर काम करने जाते हैं और पढ़ाई भी करते हैं । रात के दस बजे फिर उस चेहरे को देखने की चाह मैं दबा न पाई...अभी वह गुपचुप में पानी भरकर देता जा रहा था , आँखें नींद से बोझिल हो चली थी और थकान उसके चेहरे पर झलक रही थी । शब्द मौन थे बस हाथ बोल रहे थे.. रात की स्याही उन आँखों में बहुत गहरे उतर रही थी । वह उम्मीद भरी आँखों से पार्टी खत्म होने का इंतजार कर रहा होगा और अपनी दिन भर की कमाई का भी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 2 March 2019

पारिजात से झरे फूल ( कहानी )

नीले आसमान के नीचे फूलों के  बगीचे में सिया आँखें बंद किये बैठी थी... सुरभित  पवन उसके दिल में
उमंगों और खुशियों की लहरें तरंगित कर रही थीं और पारिजात के फूल उसके ऊपर झर रहे थे...कितना सुंदर ख्वाब था यह..और सिया नींद टूट जाने पर भी अपनी आँखें नहीं खोलना चाह रही थी.. काश ! यह ख्वाब हकीकत में बदल जाये ।
      सूरज आसमान में नारंगी रंग बिखेर चुका था जब माँ की आवाज उसके कानों में पड़ी..सिया ..उठ ! तुझे
आज डोंगरगढ़ जाना है ना ...माता बम्लेश्वरी के दर्शन करने...चल उठ , नहा कर तैयार हो जा..तेरे दोस्त आते होंगे । ओह नो !  माँ... पहले क्यों नहीं उठाया ? बाप रे । बहुत देर हो गई.. घड़ी देखते ही सिया झटके से उठ बैठी और बाथरूम की ओर दौड़ी ।
      लो , कब से आवाज दे रही हूँ.. कहती है उठाया क्यों नहीं ? पता नहीं इस लड़की का क्या होगा...बड़बड़ाते हुए माँ रसोईघर की ओर चल दी ताकि सिया हड़बड़ी में बिना कुछ खाये ही न निकल पड़े । उन्होंने सिया के तैयार होते तक नाश्ता तैयार करके थोड़ा सा पैक भी कर दिया , अगर समय न मिले तो वह गाड़ी में ही नाश्ता कर ले । सिया के तैयार होते तक उसके दोस्त मानव , विकास , रीमा , रीना  आ चुके थे और ड्राइंगरूम में रखे नाश्ते पर टूट पड़े थे । पढ़ाई के लिए  घर से बाहर रहने वाले बच्चों की मनःस्थिति समझती थी सिया की मम्मी क्योंकि वह स्वयं भी हॉस्टल में रह चुकी थीं । परन्तु घर में ही रही सिया को  इन सबका एहसास नहीं था...घर में उसकी सारी फरमाइशें जो पूरी हो जाती थीं । कभी - कभी वह खीझ कर बोल भी पड़ती थीं...तू ना , बाहर रहने जाएगी तभी सुधरेगी ।
     कुछ ही देर में सभी बच्चे डोंगरगढ़ के लिए निकल चुके थे । समय पर वापस आने की हिदायत देकर माँ ने उन्हें विदा किया ।  मानव , विकास , रीमा , रीना , सिया
ये सभी शंकराचार्य इंजीनियरिंग कॉलेज में कम्प्यूटर साइंस अंतिम वर्ष के छात्र थे । चूँकि विकास , रीमा व रीना बाहर से आये थे तो घर जाने से पूर्व एक बार माँ बम्लेश्वरी के दर्शन करना चाह रहे थे और तुरत - फुरत रविवार को जाने का प्रोग्राम बन गया था  । वैसे भी कॉलेज छूटने के बाद कौन  , कहाँ रहेगा  की चिंता सबको सता रही थी । मानव और सिया का कैम्पस
प्लेसमेंट द्वारा  टी. सी. एस. में  चयन हो गया था । बचपन से दोनों साथ ही पढ़े थे  और  कब  उनकी दोस्ती प्रेम के रंग में रंग गई , उन्हें पता ही नहीं चला ।
    लम्बे समय के साथ ने उन्हें एक - दूसरे को समझने
का भरपूर मौका दिया । स्कूल के दिनों में तो वे खूब लड़ते थे क्योंकि दोनों ही विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे और प्रतियोगिता में हार - जीत तो होनी ही है । कभी मानव जीतता तो  कभी सिया...खेल , वाद - विवाद , भाषण सभी में वे आगे रहते...कॉलेज आते - आते  दोनों का व्यक्तित्व  गम्भीर व सुलझा हुआ हो गया था ।
       हँसते - गाते वे डोंगरगढ़ के मंदिर गये...सीढियां चढ़कर उन्होंने माता बम्लेश्वरी के दर्शन किये  ।  वहीं खाना खाया और शाम चार बजे घर वापसी के लिए निकल पड़े । मानव की आवाज बहुत मधुर थी...उसने जैसे ही गाना शुरू किया...कौन तुम्हें यूँ प्यार करेगा जितना प्यार मैं करता हूँ...उसकी आवाज  के साथ ही हो..ओ हो ओ..चिल्लाकर सब उन्हें चिढ़ाने के मूड में आ गए थे कि अचानक एक ट्रक ने उन्हें जोर की टक्कर मारी और वे सम्भलना तो दूर , सोच भी नहीं पाए कि क्या हुआ । प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि उनकी विपरीत दिशा से आ रहे ट्रक का एक पहिया पंचर हो गया और वह असन्तुलित होकर उनकी कार को टक्कर मारता हुआ पेड़ से जा टकराया था । ड्राइवर और कंडक्टर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई थी और कार के सभी बच्चों को गम्भीर अवस्था में  राजनांदगांव के अस्पताल में भर्ती कराया गया । वक्त का पहिया इतना तेज घूमता है कि कब क्या हो जायेगा , कुछ कहा नहीं जा सकता । अभी थोड़ी देर पहले जहाँ स्वर लहरियाँ गूँज रही थी , खुशियों का कोलाहल हो रहा था... वहाँ  भय और मातम पसरा हुआ था । उनके परिजनों पर  मानों वज्रपात हो गया था.. वे रोते - बिलखते अपने बच्चों की चिंता में इधर  - उधर भटक रहे थे । खुशी  - खुशी, हँसते- खिलखिलाते बच्चों को विदा किया था और वे अभी मौत से संघर्ष कर रहे हैं । भाग्य ने किसके लिए क्या लिखा है... कोई इसका अनुमान नहीं लगा सकता । मानव की हालत बहुत गम्भीर होने के कारण उसके माता-  पिता उसे दिल्ली ले गए...बाकी सभी दोस्तों को कुछ दिनों बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गई । परन्तु अभी भी उन्हें घर पर आराम करना था क्योंकि लगभग सभी के हाथ या पैर में फ्रैक्चर और सिर पर टांके लगे थे । वे सभी ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रहे थे क्योंकि उन्होंने उन्हें एक नया जन्म दिया था , मौत के करीब रहकर जिंदगी का मोल जान लिया था उन्होंने... उसके आगे ये छोटी  - मोटी तकलीफें कुछ भी नहीं थी । बस , उन्हें मानव की चिंता खाये जा रही थी क्योंकि वह दिल्ली से वापस नहीं आया था । महीनों बाद जब मानव वापस आया तो उसे देखकर सभी दोस्त बिलख पड़े थे । जिस मानव को देखकर जवां दिलों की धड़कन रुक जाती थी... लड़कियाँ उससे दोस्ती करने को मरती थी..वह आज असहाय , निराशा के अंधेरों में डूबा था । इतना  प्रयास  करने के बाद भी डॉक्टर उसका पैर नहीं बचा पाये थे । उसका दाहिना पैर घुटने तक काटना पड़ गया था । मानव को दिलासा देने के लिए उन्होंने अपने आँसू पी लिए थे..उसके सामने उन्हें मजबूत बने रहकर उसे भविष्य के लिए तैयार करना था । नये सिरे से जिंदगी जीने के लिए प्रेरित करना था ।
       जब सब  कुछ अच्छा होता है तो वक्त के पंख लग जाते हैं परन्तु परिस्थितियाँ विपरीत होती हैं तो वक्त काटे नहीं कटता । पल - पल भारी लग रहा था... सिया के मन में तूफान मचा हुआ था.. अन्तर्द्वन्द्व  चल रहा था.. ख्वाबों का दर्पण चूर - चूर हो गया था और उसकी किरचें सीधे दिल में चुभ रही थी । अब उनका भविष्य क्या होगा ? क्या उसे अब भी मानव का साथ देना चाहिए या अलग होने का निर्णय ले लेना चाहिए । बुद्धि का तो यही तर्क था कि जीवन भर परेशान होने से बेहतर है कि अपने अतीत को भूलकर एक नई राह पर चला जाये...पर दिल को बुद्धि का यह तर्क पसन्द नहीं आया क्योंकि प्यार करती  है वह मानव से...उसे यूँ अंधेरों में छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकती । जीवन भर साथ देने का वादा करके मानव से वह छल नहीं कर सकती...आज जो मानव के साथ हुआ है वह सिया के साथ भी तो हो सकता था । क्या मानव उसे उसकी कमियों के साथ नहीं अपनाता ? नहीं  । उसे पूर्ण विश्वास है अपने दोस्त और प्यार पर...उसने मानव की आँखों में सदैव सच्चाई व दृढ़ता ही देखी है , कभी कोई दुविधा नहीं...जीवन के प्रति उसका नजरिया सदा सकारात्मक रहा । खूबसूरत फूलों को देखकर बहकने वाला भौंरा नहीं था वह..मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह अपने प्यार पर एकनिष्ठ रहने वाला था... नहीं सिया सिर्फ इसलिए कि अब वह अपाहिज हो गया है , उसे तुम छोड़ नहीं सकती बल्कि अब तुम्हारी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है... उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की...उसका खोया  हुआ आत्म विश्वास लौटाने  की । सिया ने दिमाग के तर्कों को परे धकेल दिया और अपने प्यार भरे दिल की ही सुनी ।
     उधर मानव की भी यही दशा थी । वह भी अपने प्यार को पीड़ा  नहीं देना चाहता था.. किसी की सहानुभूति नहीं चाहता था । उसने अपने - आपको सिया से दूर रखना चाहा ताकि सिया एक सुखद भविष्य की ओर बढ़े । उसने जान - बूझकर सिया को उपेक्षित किया ताकि वह निराश होकर उसे छोड़ दे। पर सिया रोज घर आती रही... उसका सम्बल  बढ़ाती रही...मुस्कुराते हुए उसकी चिड़चिड़ाहट  भी झेलती रही...उसका प्यार इतना कमजोर नहीं था कि एक मामूली तूफान से टूट जाये । फूल पौधे से टूटकर भी खुशबू देना नहीं छोड़ता फिर इंसान अपना कर्तव्य क्यों छोड़े । मानव ..बचपन  की  वह दौड़ तुम्हें याद है
त्रिटँगी दौड़..जिसमें दोनों पार्टनर  का  एक - एक पैर बाँध  दिया जाता  था और तीन पैरों से ही दौड़ना पड़ता था । तुम इस दौड़ में एक्सपर्ट थे ..जिसकी भी टीम में तुम होते वही जीतता था । मैंने भी एक बार  तुम्हारे साथ भाग लेकर जीता था.. जैसे तीन पैरों से दौड़ जीते वैसे ही जीवन की दौड़ में भी अवश्य सफल होंगे , मुझे तुम पर पूरा विश्वास है । सिया के इस  रामबाण ने मानव के शुष्क होते हृदय पर असर किया था.. बचपन की स्मृतियों का प्रभाव अत्यंत गहरा होता है ..आखिर मानव को झुकना ही पड़ा ।
       सिर्फ पाना ही प्रेम नहीं है.. प्रेम खोने - पाने का भय भुला देता है । अपने प्रिय की खुशी ही सच्ची प्रीत है । मानव आज बहुत खुश था , सिया के प्यार के साथ वह अपने आने वाले जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष कर लेगा । घनी  अंधेरी राह में एक दिए  की  लौ भी काफी होती है  राह दिखाने के लिए.. तभी सिया अपने हाथों में पानी का गिलास और मानव की दवाई लेकर अंदर आई...मानव उसकी ओर प्यार से अपलक देख रहा था...सिया ने  अपनी आँखें मूंद ली थी..उसे वही ख्वाब याद आ गया था वह फूलों के बीच बैठी है और उस पर पारिजात के फूल झर रहे हैं ।

स्वरचित ...डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़