सुबह से उठी रमा चकरघिन्नी की तरह घूम रही थी...बच्चों का टिफिन तैयार करना , उन्हें उठाकर तैयार कर स्कूल बस तक छोड़ने जाना , फिर पतिदेव का नाश्ता , दूध , चाय ...उनके लिए कपड़े निकालना उसका रोज का काम था । सबके जाने के बाद घर को ठीक - ठाक करके वह बाजार चली जाती थी ताकि कुछ बचत हो सके क्योंकि ठेलेवाले मनमाना दाम लगाते थे.. उससे जितना बन पड़े अपने हाथों से ही काम करती , वह कपड़े भी स्वयं प्रेस कर लेती थी । बच्चों की परीक्षा के समय उसे उनकी पढ़ाई के लिए अतिरिक्त समय देना पड़ता था तो कुछ दिनों से बाजार नहीं जा पाई । शाम को पति वापस आये तो कुछ सामान लाने को क्या कह दिया वे भड़क उठे...अरे यार ! तुम दिन भर घर में करती क्या हो ? मैं ऑफिस से थकहार के वापस बाजार नहीं जा सकता..तुम ही चली जाना...रमा की आँखें नम हो आई थी... दिन - भर मरने - खपने के बाद भी यह वाक्य कभी उसका पीछा नहीं छोड़ता कि दिन भर तुम करती क्या हो..शायद अब बताने का वक्त आ गया है । अगले दिन शाम को ऑफिस से लौटने पर पतिदेव को रमा की चिट्ठी मिली..." माँ की तबीयत खराब होने के कारण तुरंत निकल रही हूँ , आप सब सम्भाल लेना ।"
रात का खाना तो जैसे - तैसे मैनेज किया ..बच्चों को पढ़ाया कम डाँटा और मारा ज्यादा...दूसरे दिन अलार्म सुनकर नींद खुली तो बच्चों को उठाने में नानी याद आ गई । जला भुना टोस्ट खिला कर नीचे पहुँचा कि स्कूल की बस छूट गई...उन्हें अपनी गाड़ी से स्कूल छोड़ने जाना पड़ा । उसके बाद खाना बनाना ...उसने दिन के आधे में ही अपना सिर पकड़ लिया था... रमा के हाथ का स्वादिष्ट भोजन याद आ रहा था । बच्चे भी नाक - मुँह बना कर खाना खा रहे थे । वह चाहता था कि थोड़ी देर आराम कर ले कि बच्चे पढ़ने के लिए आ गए क्योंकि परीक्षा सिर पर थी । हमेशा सँवरा , व्यवस्थित रहने वाला घर बिखरा पड़ा था...इसके पहले आशीष को लगता था कि काम करने के लिए बाई है तो घर में और काम ही क्या है... पर अब उसे समझ आ गया था क्यों रमा रात तक थक जाती है.. किसी दिन उसके पास बाजार जाने के लिए समय क्यों नहीं होता है। हम सिर्फ बाहर जाकर काम करने वालों को ही महत्व देते हैं.. घर पर रहने वाली महिलाएं दिन - भर घर की व्यवस्था में जुटी होती हैं.. पर वह हम नजरअंदाज कर देते हैं । उनकी वजह से हम अपना सब काम समय पर कर पाते हैं.. उनके कुशल गृह - प्रबंधन से कम वेतन में भी जिंदगी आराम से चल जाती है और बचत भी हो जाती है । हम उन्हें अबला समझते हैं पर वह तो सबको बल देती है , स्वयं जाग कर हमारी नींद पूरी होने देती है ताकि हम समय पर काम पर जा सकें । कुम्हार जिस प्रकार मिट्टी को आकार देता है , स्त्री बच्चों को सुंदर संस्कार देती है । चार दीवारों के घर को सही मायने में घर बनाती है ।
रमा दो दिन अपने मायके में रही , ये दो दिन आशीष ऑफिस नहीं गया लेकिन उससे कहीं अधिक थक गया था । रात को उसने रमा को फोन लगा ही दिया और अपनी आवाज में प्यार की शहद घोलते हुए कहा...अब आ जाओ न रमा , अपना घर संभालो.. अब मैं तुमसे कभी नहीं कहूँगा कि तुम घर पर दिन भर क्या करती हो क्योंकि ये दो दिन घर पर रहकर मैंने सच्चाई को महसूस कर लिया है । अपनी नादानी के लिए मैं तुमसे माफी मांगता हूँ... तुमने मुझे सबक सिखाने के लिए ही यह सब किया ना.. मैंने उस दिन तुम्हारी आँखों में नमी देखी थी , पर इसे मेरा पुरुषोचित अहम कहो कि मैंने अपनी गलती नहीं मानी । पर सच कहता हूँ पुरुषों को अपना अहम छोड़कर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि जितना महत्वपूर्ण उसका ऑफिस जाना है उतना ही , बल्कि उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण घर की व्यवस्था सम्भालना है । मैं तुमसे वादा करता हूँ कि घर के कामों में मैं हर सम्भव तुम्हारी मदद करूँगा , तुम जल्दी घर आ जाओ प्लीज़..बच्चों को पढ़ाना मेरे बस का नहीं है यार ..बाकी कोई काम नहीं करना... चलेगा..। बस - बस ..अब ज्यादा मस्का मत लगाओ मैं कल सुबह ही आ रही हूँ , रमा मुस्कुराती हुई बोली ..उसका नुस्खा काम कर गया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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