Monday, 30 December 2019

नया साल

31 दिसंबर की सर्द रात...शहर रोशनी से जगमगा रहा था.... शीत लहर शरीर के भीतर घुसकर हड्डियों तक को कंपकंपा रही थी पर उस पार्टी हॉल  में  इसका कोई असर नहीं था । जगह - जगह  जल रहे अलाव और स्लीवलेस ड्रेसेस में युवतियाँ ठंड को चुनौती दे रहे थे ।गरमागरम भोजन परोसा जा रहा था , जाम पर जाम छलक रहे थे । डांस फ्लोर पर लोग थिरक रहे थे । विविध प्रकार के व्यंजनों का स्वाद चखते लोग 
पेट में कम प्लेट में अधिक भोजन छोड़ रहे थे  । ठहाकों के बीच लोगों की नजर घड़ी के काँटों पर लगी थी वहीं सड़क के फुटपाथ पर बैठे कुछ अधनङ्गे ठिठुरते लोगों की नजर इन पर ।
आग के सहारे वे पार्टी खत्म होने का इंतजार कर रहे थे ताकि बचा - खुचा व जूठा भोजन पाकर वे भी नये वर्ष की शुरुआत कर सकें । तभी आस - पास से लोगों की जोरदार आवाज आई - "हैप्पी न्यू ईयर "....नया साल सभी के लिए लेकर आया था.. उमंग , उत्साह और खुशियाँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 14 December 2019

कागज

मन के कोरे कागज पर लिख दिया तेरा नाम पिया ,
कुछ सोचा न समझा बस तुझसे ही प्यार किया ।

मन में तेरी छबि अंकित , सोच में  बस तू ही तू ,
सामने जब तुम आ जाते ,धड़कता मेरा जिया ।

बातें तेरी अच्छी लगती मिलने को तड़पे दिल ,
उड़ गई नींदें रातों की सुकून तूने छीन लिया ।

इंतजार में कटते दिन  करवटों में कटी रातें ,
प्रेम किया मैंने तुमने विरह का उपहार दिया ।

चातक को सुकून मिलता है चाँद को देखकर ,
"दीक्षा" आस के धागे से प्रेम का चूनर सिया ।

स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





Friday, 13 December 2019

देह की देहरी

देह की देहरी पार ना कर सके ।
 दिल से दिल के मिलन की शुभेच्छा करें ।।

 हो सका ना मिलन इस जनम में अगर ।
हम अगले जनम की प्रतीक्षा करें ।।

बातें क्या थीं जो दरमियाँ आ गई ।
कारणों की चलो हम समीक्षा करें ।।

प्यार की परख को और क्या चाहिए ।
धैर्य की आज अपनी परीक्षा करें ।।


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीस

संस्मरण

कई बार हम बिना किसी स्वार्थ या मतलब के यूँ ही झूठ बोल देते हैं जबकि सच बोलने पर भी हमारा कोई विशेष नुकसान नहीं होता । परन्तु उस झूठ से यदि आपकी छबि खराब होती है , किसी का विश्वास टूट जाता है तो ऐसे झूठ से बचना चाहिए । जीवन की एक घटना ने मुझे यह बड़ा सबक सिखाया कॉलेज पूरा करने के बाद मैं संविदा नियुक्ति पर कवर्धा महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर एक वर्ष रही । वहाँ पापा जी के एक परिचित थे वर्मा अंकल , उनसे बात करके पापा जी ने उनके घर के पास ही एक कमरा किराये पर लिया । वे आते - जाते मेरी कुशल - क्षेम पूछते रहते ।मेरा बहुत ध्यान भी रखते । अक्सर छुट्टियों में मैं घर आ जाती , उस बार भी कोई छुट्टी पड़ी थी तो मेरी एक सहेली ने बहुत जिद करके मुझे अपने घर रोक लिया । दरअसल उसने मुझे खाना खाने बुलाया था रात हो गई तो मैं वहीं सो गई । इसके बारे में मैंने अंकल को बताया नहीं था तो अचानक जब उन्होंने मुझे पूछा कि कल तुम घर गई थी तो हड़बड़ाहट में मैं हाँ कह गई।
बाद में बता दूँगी सोची थी पर अब क्या बताना सोचकर नहीं बताया । सहेली के यहाँ रुक गई थी बताने में क्या बुराई थी , ऐसा अपराधबोध कई बार हुआ । पर मम्मी - पापा को तो मैंने बता दिया है तो उनसे क्या डरना सोचकर मैंने इस बारे में उनसे कोई बात नहीं की ।
   बाद में मैंने महसूस किया कि वो कुछ कटे से रहने लगे हैं ,कॉलेज आते - जाते मुझसे बात भी नहीं करते थे । उनकी बेटी ने बहुत बाद में बताया कि मेरे इस छोटे से झूठ के कारण उन्हें बहुत दुःख हुआ और उनका विश्वास टूट गया है । यह बात मुझे वहाँ से आने के बाद मालूम हुई नहीं तो मैं उनसे माफी माँग लेती । सचमुच जब वे एक पालक की तरह मेरी परवाह करते थे तो मुझे उनकी उपेक्षा नहीं करनी थी और उनसे सच कहना था हालांकि ये कोई बड़ी बात नहीं थी पर वे मेरे प्रशंसक थे और मेरे व्यवहार की बहुत तारीफ किया करते थे । अपनी गलती पर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई और उस घटना के बाद मैंने यह सीखा कि किसी का विश्वास नहीं तोड़ना चाहिए । हर रिश्ते को महत्व देना चाहिए , अनजाने में भी किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । अफसोस अंकल इस दुनिया में नहीं हैं पर मैंने पश्चाताप के आँसुओं से अपना मन धो लिया है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 12 December 2019

मुक्तक

हर किसी के भीतर कुछ न कुछ अच्छा रहता है ,
ऊपर से पकने लगे पर अन्दर से कच्चा रहता है ।
मचलने  लगता है , रो देता है  कभी - कभी  _
जिस्म की दहलीज के भीतर एक बच्चा रहता है ।।

मुश्किलों के आगे न शीश झुकाना है ,
दूर बहुत दूर अभी चलकर जाना है ।
थककर न बैठ ओ राह के मुसाफिर_
बाधाओं को पारकर मंजिल को पाना है ।।

अच्छी सोच बनाती तेज कलम की धार ,
इनकी निर्भय वाणी से डरता संसार ।
समाज में परिवर्तन के वाहक  हैं ये_
नव - निर्माण को राह दिखाते कलमकार ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

बाल गीत

मेरे आँगन आना चिड़िया ,
आकर खाना दाना चिड़िया ।
सूना - सूना लगता है घर ,
कभी नहीं फिर जाना चिड़िया ।
पेड़ लगाया है एक मैंने ,
घोंसला तुम बनाना चिड़िया ।
करते रहना ची - ची ,ची - ची ,
खुशी के गीत गाना चिड़िया ।
हर हाल में चहकते रहना ,
हम सबको सिखलाना चिड़िया ।
फुदक - फुदक कर इधर- उधर तुम,
जीने की राह दिखाना चिड़िया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 6 December 2019

आप भी बनें किसी का सुकून

            अरे ! सुना सिया का चक्कर चल रहा है किसी से ..सुनते ही सभी सहेलियाँ रोमा को घेर खड़ी हो गई थी । बस फिर तो सभी ने मजे ले लेके यह वर्णन सुना । किसी ने भी इस समाचार के सही होने की खोज नहीं की । यहाँ से वहाँ इस बात का प्रसार करती रही और निर्दोष सिया की गृहस्थी खतरे में पड़ गई । स्त्रियाँ खुद क्यों विश्वास नहीं कर पाती स्त्री पर । किसी स्त्री पर उंगली उठाने में उनका अपना महकमा ही आगे रहता है पता नहीं क्यों ? शायद जलन या झुँझलाहट इस बात की कि सामनेवाली जो कार्य कर रही है वह नहीं कर पा रही । उन्हें वह अवसर नहीं मिल पाया आगे बढ़ने का या उन्होंने स्वयं को मिले अवसर का लाभ नहीं उठाया । अभी उस दिन किसी विभाग में कार्यरत एक महिला के बारे में चर्चा हो रही थी कि उसका किसी के साथ चक्कर चल रहा है तो एक मैडम ने झट फैसला सुना दिया - " जितनी औरतें ऑफिस में काम करती हैं सबके सब ऐसी होती हैं ।" किसी एक स्त्री की वजह से आप पूरी कौम को चरित्रहीन कैसे साबित कर सकती हैं ? बोलते वक्त लोग यह  भूल जाते हैं कि उनके भी कई अपने कहीं न कहीं काम कर रहे हैं । अपनी गरिमा को बनाये रखना आपके अपने हाथ में है , आप स्वयं अपने वर्ग की बेइज्जती न करें । आप कामकाजी हैं तो दूसरी कामकाजी महिलाओं की परिस्थितियों को बेहतर समझ सकती हैं ।घर से बाहर निकल कर कार्य करने वाली स्त्री के सामने न जाने कितनी चुनौतियों रहती हैं । उन्हें घर - बाहर के कामों में सामंजस्य स्थापित करने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ,कैसे - कैसे लोगों को झेलना पड़ता है ,जरा इस बात को समझें । कार्यालय में अपना सहयोगी चुनना आपके अपने हाथ में नहीं होता । परन्तु अपने गरिमा बनाये रखना भी स्त्रियों को आना चाहिए ।कोई कहता है कौआ कान ले गया तो आप उसके पीछे मत भागिए । किसी अफवाह को फैलाने में आप योगदान मत दीजिए । स्त्री विरोधी माहौल को हवा देंगी तो आग की लपटें फैलेंगी और हो सकता है कल इससे आपका घर ही जल जाए । दूसरों के नजरिये से भी परिस्थितियों को देखने का प्रयास करें , किसी महिला कामकाजी को आप सहयोग नहीं दे पा रहे हैं कोई बात नहीं , सामान्यतः पुरूष साथी बेहतर मददगार साबित होते हैं । जब पुरूष साथी यह कार्य करता है तो उन पर कोई इल्जाम न लगाइये , उन पर शक न कीजिए क्योंकि हो सकता है कल आपको भी इसी स्थिति का सामना करना पड़े । एक स्त्री के लिए अधिक आसान है स्त्री को समझना क्योंकि वह हर उस दर्द , अनुभव , अपेक्षाओं , आकांक्षाओं की साझेदार है जो उसने स्वयं महसूस किया है । तो ऐसा क्यों न हो कि जब भी उसे सहयोग , मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो कोई न कोई महिला उसके लिए खड़ी रहे चाहे वह उसकी कोई रिश्तेदार , सखी , बहन हो चाहे सिर्फ एक स्त्री हो । कई बार अकेले में घबराते मन को वहाँ अचानक उपस्थित महिला सम्बल प्रदान कर जाती है , किसी अनजान राह पर चलते हुए किसी अपरिचित स्त्री का साथ भी सुकून दे जाता है तो क्यों न प्रत्येक स्त्री इस आनन्द का अनुभव करे किसी अपनी का सुकून बनकर । 
स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


अस्तित्व ( लघुकथा )

आज  रमा  के नये शोरूम का शुभारंभ था , एक सामान्य घरेलू महिला का सिलाई - कढाई का शौक बुटीक से बढ़कर शो रूम तक  पहुँच गया था , यह इतना आसान नहीं था । जब रमा ने अपने पति महेश से काम करने की इच्छा जताई तो उसने तल्ख स्वर में उस पर व्यंग्य किया था - " इतनी कम पढ़ी - लिखी होकर क्या काम करोगी तुम ? तुम न चूल्हे - चौके तक ही ठीक हो ।" पति की बात चुभ गई थी रमा को , बचपन से ही सिलाई - कढाई से बेहद लगाव था उसे। कठिन से कठिन डिज़ाइन देखकर ही बना लेती । पति की कटुक्ति को चुनौती के रूप में लिया था उसने और घर के कामों के साथ - साथ सिलाई का काम शुरू कर दिया । मोहल्ले की कुछ औरतें उससे सीखने भी आने लगीं । उसकी मेहनत रंग लाई और लोगों को उसका काम पसन्द आने लगा । जगह कम पड़ने लगी और दुकान किराये पर लेनी पड़ी । आज उसकी आय पति से अधिक है, सबसे बड़े सन्तोष की बात है कि उसने अपने जैसी कई घरेलू महिलाओं के सपनों को पंख दिये और उन्हें भी उनके अस्तित्व का बोध कराया । महेश ने तो पहले ही उसकी इच्छाशक्ति के आगे घुटने टेक दिए थे और अपने कहे शब्द वापस ले लिए थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे 
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 4 December 2019

ग़ज़ल

प्रीत में बंधकर मन हुआ आजाद है ,
यादों से तेरी दिल का चमन आबाद है ।

प्यार की ताकत है त्याग और समर्पण ,
भव्य बना ताज क्योंकि इश्क की बुनियाद है ।

जीना नहीं सिर्फ दिल का धड़कते रहना ,
उम्रदराज़ करती प्रियतम की याद है ।

खुशियों से आबाद रहे सदा तेरा चमन ,
मेरे दिल से निकलती बस यही फरियाद है ।

तूफानों के आगे न झुकेगी ' दीक्षा ' ,
इश्क में इरादे हो जाते फौलाद हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 2 December 2019

लौट आओ

क्या तुम इतने बड़े हो गये ,
न जाने कहाँ  खो गये हो ।
चले गये हो हम सबसे दूर ,
कैसे - कैसे लोगों के संग ।
अपनों को भूल कर ,
बेगानों के हो गये हो ।
बेदर्द , संगदिल , बेरहम
जुर्म , नशे की गलियाँ ।
लोभ की मृगतृष्णा में फँस,
सन्मार्ग से भटक गये हो ।
सही - गलत की पहचान ,
तुम क्यों न कर पाये ।
हार गये अपनी कमजोरी से ,
क्यों न लड़ पाये ।
घर के बाहर सुख नहीं ,
आँखें खुली रख सो गये हो ।
लौट आओ घर वक्त रहते ,
दरवाजे पर बैठी माँ राह तकते ।
सूनी आँखों में उजास भर जाओ ,
आस टूटने से पहले घर लौट आओ ।
इतने पत्थर दिल क्यो हो गये हो ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़