न जाने कहाँ खो गये हो ।
चले गये हो हम सबसे दूर ,
कैसे - कैसे लोगों के संग ।
अपनों को भूल कर ,
बेगानों के हो गये हो ।
बेदर्द , संगदिल , बेरहम
जुर्म , नशे की गलियाँ ।
लोभ की मृगतृष्णा में फँस,
सन्मार्ग से भटक गये हो ।
सही - गलत की पहचान ,
तुम क्यों न कर पाये ।
हार गये अपनी कमजोरी से ,
क्यों न लड़ पाये ।
घर के बाहर सुख नहीं ,
आँखें खुली रख सो गये हो ।
लौट आओ घर वक्त रहते ,
दरवाजे पर बैठी माँ राह तकते ।
सूनी आँखों में उजास भर जाओ ,
आस टूटने से पहले घर लौट आओ ।
इतने पत्थर दिल क्यो हो गये हो ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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