Friday, 13 December 2019

संस्मरण

कई बार हम बिना किसी स्वार्थ या मतलब के यूँ ही झूठ बोल देते हैं जबकि सच बोलने पर भी हमारा कोई विशेष नुकसान नहीं होता । परन्तु उस झूठ से यदि आपकी छबि खराब होती है , किसी का विश्वास टूट जाता है तो ऐसे झूठ से बचना चाहिए । जीवन की एक घटना ने मुझे यह बड़ा सबक सिखाया कॉलेज पूरा करने के बाद मैं संविदा नियुक्ति पर कवर्धा महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर एक वर्ष रही । वहाँ पापा जी के एक परिचित थे वर्मा अंकल , उनसे बात करके पापा जी ने उनके घर के पास ही एक कमरा किराये पर लिया । वे आते - जाते मेरी कुशल - क्षेम पूछते रहते ।मेरा बहुत ध्यान भी रखते । अक्सर छुट्टियों में मैं घर आ जाती , उस बार भी कोई छुट्टी पड़ी थी तो मेरी एक सहेली ने बहुत जिद करके मुझे अपने घर रोक लिया । दरअसल उसने मुझे खाना खाने बुलाया था रात हो गई तो मैं वहीं सो गई । इसके बारे में मैंने अंकल को बताया नहीं था तो अचानक जब उन्होंने मुझे पूछा कि कल तुम घर गई थी तो हड़बड़ाहट में मैं हाँ कह गई।
बाद में बता दूँगी सोची थी पर अब क्या बताना सोचकर नहीं बताया । सहेली के यहाँ रुक गई थी बताने में क्या बुराई थी , ऐसा अपराधबोध कई बार हुआ । पर मम्मी - पापा को तो मैंने बता दिया है तो उनसे क्या डरना सोचकर मैंने इस बारे में उनसे कोई बात नहीं की ।
   बाद में मैंने महसूस किया कि वो कुछ कटे से रहने लगे हैं ,कॉलेज आते - जाते मुझसे बात भी नहीं करते थे । उनकी बेटी ने बहुत बाद में बताया कि मेरे इस छोटे से झूठ के कारण उन्हें बहुत दुःख हुआ और उनका विश्वास टूट गया है । यह बात मुझे वहाँ से आने के बाद मालूम हुई नहीं तो मैं उनसे माफी माँग लेती । सचमुच जब वे एक पालक की तरह मेरी परवाह करते थे तो मुझे उनकी उपेक्षा नहीं करनी थी और उनसे सच कहना था हालांकि ये कोई बड़ी बात नहीं थी पर वे मेरे प्रशंसक थे और मेरे व्यवहार की बहुत तारीफ किया करते थे । अपनी गलती पर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई और उस घटना के बाद मैंने यह सीखा कि किसी का विश्वास नहीं तोड़ना चाहिए । हर रिश्ते को महत्व देना चाहिए , अनजाने में भी किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । अफसोस अंकल इस दुनिया में नहीं हैं पर मैंने पश्चाताप के आँसुओं से अपना मन धो लिया है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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