Tuesday, 30 January 2018

अच्छा नहीं लगता

तेरा यूँ चुप - चुप रहना  ,
अच्छा नहीं लगता ।
खामोशी से दर्द को सहना ,
अच्छा नहीं लगता ।
मन में उजास भर जाता है ,
जब मुस्कुराते हो ।
तुम्हारा उदास रहना  ,
अच्छा नहीं लगता ।
भूल जाती हूँ मैं ,
जिस पीड़ा से हूँ व्यथित ।
तुम भी पीडित हो पर,
अपने दर्द को साझा न करना ,
अच्छा नहीं लगता ।
परेशान हो जाती हूँ ,
अपने घर की फिक्र में ।
तुमसे ही जुड़ी हैं वो बातें ,
करती जिनका जिक्र मैं ।
पर वो तुमसे बढ़कर नहीं ,
मेरे शिकवों पर कुछ न कहना ,
अच्छा नहीं लगता ।।
रहते हो दिल में मेरे ,
भावनाओं को पढ़ लिये ।
तुमसे बढ़कर दुनिया में ,
कुछ भी नहीं मेरे लिये ।
जान बूझ कर अनजान बनना ,
अच्छा नहीं लगता ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

पीड़ा

दुनिया में आकर भी न आ पाती ।
जीने से पहले ही मरने की सजा पाती ।
माँ की कोख में सिकुड़ती , सकुचाती ।
बेटी  ! काश ! तुम जन्म ले पाती ।।
आशाएं पालती , सपने सँजोती ।
स्नेह लुटाती , घर बसाती  ।
अनजानों को अपना बनाकर ,
किसी के दिल का अरमान बन जाती ।।
बेटी ! काश  ! तुम जन्म ले पाती ।।
काँटे चुनती , फूल बिछाती ।
सबकी  राहें सुगम बनाती ।
अपना खून - पसीना बहाकर ,
इस उपवन का सौरभ बन जाती ।।
बेटी ! काश ! तुम जन्म ले पाती ।।
हौसला देती , प्रेरणा बनती ।
सृजन करती , पोषिका कहाती ।
अपने परिश्रम से धरा  को ,
उपजाऊ , पावन कर जाती ।।
बेटी ! काश ! तुम जन्म ले पाती ।।
शिक्षा पाती , सूझ बढ़ाती ।
सपनों को साकार कर पाती ।
सफलता की ऊँची उड़ान भर ,
माता - पिता का मान बढ़ाती ।।
बेटी ! काश ! तुम जन्म ले पाती ।।
मुस्कुराती , खिलखिलाती ।
खुशियों का गागर छलकाती ।
अपने  नाजुक कदमों से ,
इस जहां को पावन कर जाती ।।
संसार की रौनक बढ़ जाती ।।
बेटी ! काश ! तुम जन्म ले पाती ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़  🙅🙅

मुक्ति ( लघुकथा )

बहुत दिनों बाद आज संध्या  खुलकर मुस्कुराई थी....शायद कुछ उलझनें दूर हो गई थीं  जिनमें उलझकर वह हँसना भूल गई थी । उसकी  चाचीसास अपनी बहू नेहा का गर्भपात कराने शहर आई थी..कारण था उसका जल्दी गर्भधारण करना । उसकी पहली बेटी अभी एक वर्ष की ही हुई थी ..अब जो भी हो , नेहा इसके पक्ष में नहीं थी । उसने कहने की कोशिश भी की थी...कैसे भी करके सम्भाल लेंगे , पर सासु माँ अपना काम नहीं बढ़ाना चाहती थी  ...इतने कम अंतर में दूसरा.. ।
    देर हो जाने और साइड इफेक्ट्स के बारे में बताते हुए  डॉक्टर ने भी मना कर दिया था  , अब कुछ नहीं हो सकता । ओह ! नेहा को अपराधबोध से  मुक्ति मिल गई थी और संध्या को  उससे मिलने आने - जाने वालों की परेशानियों से ।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 29 January 2018

काश ! ऐसा होता

  आज फिर समाचार - पत्र का मुख्य पृष्ठ खून व दर्द के छींटों से रंगा हुआ था । वर्षों से इतने शांत , सुखी छत्तीसगढ़ को न जाने किसकी नजर लग गई । पिछले कुछ वर्षों से नक्सली गतिविधियाँ बढ़ती ही जा रही हैं ।ग्रामीणों के अलावा पुलिस व सुरक्षा बल के जवानों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं तथा उन्हें नृशंसता पूर्वक मारा जा रहा है । न जाने कितने परिवार तबाह हो गये  , कितनी
पत्नियाँ विधवा और बच्चे अनाथ हो गये । नक्सली हमलों में अनाथ हुए बच्चों की पीड़ा  वे समझ पाते...काश  वे समझ पाते कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । लोगों को मारकर वे दहशत फैलाना चाहते हैं... ताकि डरकर ग्रामीण उनके रास्ते में न आयें , किसी बात का  विरोध न करें ।वे सड़क बनाने , कारखानों व विकास की अन्य योजनाओं का विरोध करते हैं , महंगी मशीनों , वाहनों को जला कर प्रशासन  का नुकसान  करते हैं । कर्मचारियों को प्रताड़ित करते हैं ।आये दिन वे सुरक्षा बलों पर हमले कर उन्हें मौत के घाट उतारते रहते हैं...समाचार - पत्रों में जवानों के हृदय विदारक क्षत - विक्षत शरीर  देखकर कुछ पलों के लिए हमारी संवेदना जाग उठती है , उन पर चर्चा होती है , बहस होती है.... सहानुभूति दर्शाई जाती है.... उसके बाद सब निश्चिंतता की नींद सोने लगते हैं । उनकी सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए जाते हैं ? कुछ समय बाद फिर वही घटना सुनने और दोहराने के लिए समाज तैयार हो जाता है । कई वर्षों से हजारों निर्दोष मारे जा  चुके हैं परंतु प्रशासन सुरक्षा संसाधन जुटाने में असफल रहा है।
न उनके पास उच्च कोटि के बुलेटप्रूफ जैकेट हैं न आधुनिक हथियार । समय पर उचित चिकित्सा भी उन्हें नहीं मिल पाती ..और वे बलि का बकरा बनते जा रहे हैं । अपनी जान हथेली में लेकर  ड्यूटी कर रहे इन जवानों के परिवार डर के  साये में अपनी जिंदगी बिताते हैं । कठिनाइयों भरी यह जिम्मेदारी तकलीफों एवं असुविधा से भरी है । दुर्ग - जगदलपुर रोड पर जाने वाली एक बस में मैं एक जवान की पत्नी से मिली थी जो अपने दो साल की बेटी के साथ अपने पति के पास जा रही थी । उनके पति नक्सल क्षेत्र में पदस्थ थे । वह अपने पति के साथ वहीं रहने जा रही थी । पर ...वहाँ का माहौल ठीक नहीं है , कैसे रहोगी ? मेरे पूछने पर उसने जवाब दिया-- " छुट्टी में घर आने पर मेरी  बेटी ने अपने पापा को नहीं पहचाना तो मुझे  अच्छा नहीं लगा  इसलिये मैं ने उनके साथ रहने का निश्चय किया ।अब  चाहे जो भी खतरा उठाना पड़े , मैं उनके साथ ही रहूँगी । जो होना है वो तो होकर रहेगा , डरने से क्या फायदा ? " सचमुच वह एक सिपाही की पत्नी की तरह बात कर रही थी ।
    जब भी समाचार - पत्र में किसी जवान की मृत्यु का समाचार पढ़ती हूँ , वे दोनों माँ - बेटी मेरी आँखों में झूलने लगते हैं... आखिर यह खून - खराबा किसलिए ?
नक्सली भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक उन्हें बाहरी मदद मिल रही है , उनकी आजीविका चल रही है तब तक  वे यह घिनौना कार्य करते जायेंगे ...न तो  जवान खत्म होंगे न पुलिस व सुरक्षा बल...खाली पदों को भरने के लिए जनसंख्या का हुजूम बढ़ा चला आएगा ...कितनी गोलियाँ हैं उनके पास , कब तक वे हिंसा का खेल खेलते रहेंगे , अकारण निरपराध लोगों को मारकर उनके परिवारों को सजा क्यों दे रहे हैं । क्यों नहीं यह घिनौना कार्य छोड़कर वे एक नई जीवन - शैली अपनाते । शांति और सन्तोष का रास्ता अख्तियार कर अपने जीवन को एक नया मोड़ प्रदान करते ।अपना परिवार बसा कर उनके सुख - सुविधाओं के लिए प्रयास करते ।नक्सल क्षेत्रों में रहने वालों को तरक्की करने देते । उन्हें विकास की मुख्य धारा से जुड़ने देते । काश ! शांति , अमन और सुख , समृद्धि का वह वातावरण पुनः छत्तीसगढ़ में स्थापित हो और  वहाँ के निवासी भय के घेरे से बाहर निकल पाएं । विकास की योजनाओं का लाभ ले सकें , सामान्य नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत कर सकें । सुरक्षाबलों के जवानों के परिवार भी भयमुक्त , निश्चिन्ततापूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें । काश  ! ऐसा हो पाता ।

   स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 28 January 2018

प्रिय तुम बिन

गागर में सागर  को  ,
भर नहीं सकती ।
प्रिय तुम बिन  मैं ,
रह नही सकती ।।
जीवनरूपी दीप की ,
ज्योति तुम ही हो ।
भावप्रवण नयन की ,
दीप्ति तुम ही हो ।
बिना तेरे जीवनपथ पे ,
चल नहीं सकती ।।
सुरभित गृहपुष्प के ,
मकरन्द तुम ही हो ।
कोकिल सी प्यारी तान के,
छंद तुम ही हो ।।
बिना समीर वीणा से ,
रागिनी निकल नहीं सकती ।।
मन - मन्दिर के देव तुम ,
करती हूँ पूजा मैं ।
तुम्हारे स्नेह - नीर से ,
पोषित नीरजा हूँ मैं ।
स्पर्श - उष्णता के बिन ,
हरगिज खिल नहीं सकती ।।
तुम्हारे प्रेम -मन्दिर की ,
फहरती ध्वजा हूँ मैं ।
विश्वास शिखर से उपजी ,
अविचल शैलजा हूँ मैं ।
काल के आघात से ,
जो बिखर नहीं सकती ।।
प्रिय तुम बिन  ,
जीवित रह नहीं सकती ।
तुम्हारे प्रेम को ,
शब्दों में कह नहीं सकती ।।
**********************
डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 15 January 2018

मेरे कल्पवृक्ष हो तुम

मेरे कल्पवृक्ष हो तुम

कहीं पढ़ा था.. सुना था..
एक कल्पवृक्ष होता है ।
जिसकी छाया में बैठ कर
सोचने से पूरी होती है ,
मन की सारी इच्छाएँ ।
उन कही सुनी बातों का
साकार रूप हो तुम ...
मेरे कल्पवृक्ष हो तुम ।।

आई थी लिये मन में..
कई अरमान ,कुछ ख्वाहिशें ।
जिंदगी को भरपूर ...
जी लेने की तमन्नाएं ।
गमों की नमी सोंख ले ...
वो सुहानी धूप हो तुम...
मेरे कल्पवृक्ष हो तुम ।।

सुख - दुख के साथी ,
मिलाया कदम से कदम ।
बसाई दुनिया प्यार की ,
मेरे प्यार ,मेरे हमदम  ।
दीवानी हूँ तुम्हारी ,
बहुत खूब हो तुम....
मेरे कल्पवृक्ष हो तुम ।।

पूरी हुई ख्वाहिशें ...
कई अधूरी इच्छाएँ ,
मनचाहा करने दिया ,
मूर्त हुई  भावनाएँ ।
चमन को महका दे ,
वो पुष्प गुच्छ हो तुम...
मेरे कल्पवृक्ष हो तुम ।।

तुम्हारा सम्बल ,मेरा विश्वास,
दोस्त पाया एक बहुत खास ।
प्रेमरस  से  भीगा आँगन...
अपनेपन का सोंधा एहसास ।
मैं रात्रि की छिटकी चाँदनी ,
चाँद का निखरा स्वरूप हो तुम ,
मेरे कल्पवृक्ष हो तुम ।।

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डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 3 January 2018

जाने कहाँ गये वो दिन

गर्मी की छुट्टियाँ आते ही मन उन्हीं बचपन की गलियों में दौड़ जाता है...जब इनका बेसब्री से , दिन गिन - गिन कर इंतजार करते थे । परीक्षा खत्म होते ही  दादा जी के घर पहले जाना होता था...वहाँ के घर के पीछे एक बड़ा सा तालाब था जिसके घाट हमारे घरों की बाड़ी से लगे हुए थे । अपने घर पर तालाब है..यह सोच हमें  गर्व महसूस कराती थी । बड़े पापा के बच्चे और हम भाई - बहन मिलकर खूब नहाते थे  ...फिर दिन भर खेलते । बड़े पापा हमारे बीच दौड़ प्रतियोगिता भी कराते । शाम को घर का बड़ा सा आँगन बच्चों से गुलजार रहता था । गाँव में रहने वाले चाचा के बच्चे भी हमारी टीम में शामिल हो जाते । शहरों से आये हम बच्चों की बहुत सी गतिविधियाँ उनके लिये आकर्षण का केंद्र हुआ करती थीं । तब गाँव कितने समृद्ध थे  , हर घर  में लोग रहते थे...बीस - पच्चीस वर्ष बाद जब मैं गाँव गई थी तो कैसा उजाड़ सा लग रहा था मानो वहाँ कोई रहता ही नहीं ।
            कर्पूरताल की शोभा देखते ही बनती थी...गहरे तालाब में लबालब भरा  स्वच्छ , शीतल जल...चारों तरफ  पेड़ों की घनी छाया , एक छोटा सा मन्दिर  तालाब के  सौंदर्य  में अनुपम  वृद्धि करता  था । तालाब
के चारों तरफ  हरे - भरे खेत मन को मोह लेते थे ..घर आकर भी मेरे  मन  का एक हिस्सा वहीं छूट  जाता था । तब गाँव  उतने घने भी नहीं थे ..घर - घर में तरह - तरह के पेड़ लगे थे , फल - फूल इत्यादि । हमारे घर के
आँगन में जामुन का एक विशाल पेड़ था...गर्मी में उस पर खूब फल लगते थे । सुबह उठकर  पके जामुनों को बटोरने की होड़ लगती थी बच्चों में । अनार और अमरूद के पेड़ भी लगे हुए थे । समूह में खाना  , एक साथ जमीन में गद्दा बिछा कर सोना बहुत ही अच्छा लगता था । रात होने का भी हमें बहुत इंतजार रहता था क्योंकि बिस्तर में लेटने के बाद कहानियों का दौर चलता था ।  कभी दादी , कभी बड़े पापा तो कभी पापा को  कहानी सुनाने के लिए हम घेर लेते थे । कई तरह की कहानियाँ... परियों , राक्षस और भगवान की धार्मिक कहानियाँ  ...नैतिक मूल्यों की कहानियाँ  हमें बाँध कर रखती थीं । कहानी सुनते - सुनते ही कब हम मीठी नींद के आगोश में  खो जाते थे , पता ही नहीं चलता था ।
          पन्द्रह दिन दादी के यहाँ गुजारकर बाकी की छुट्टियाँ हम नानी के घर मनाते थे । शायद सभी बच्चों के लिए नाना - नानी का घर आकर्षण का केंद्र होता है ।
हमारे लिए भी था...विशेष आकर्षण का केंद्र  । वह ऐसी जगह थी जहाँ  हमे हाथों - हाथ लिया जाता था...
हमारी हर फरमाईश पूरी की जाती थी  । मामा जी शाम को ड्यूटी से वापस आते वक्त  समोसे  जलेबी लेकर  आते थे....उन समोसों का स्वाद आज भी भुलाये नहीं भूलता । मामा जी का  गाँव घने जंगलों के बीच बसा था
...यह थोड़ा कस्बा नुमा था जहाँ  कुछ अधिक सुविधायें थीं..यहाँ के बाजार थोड़े बड़े थे , यहाँ  व्यवसायी अधिक रहते थे तो अच्छी बड़ी- बड़ी दुकानें थीं...और हाँ सिनेमा देखने के लिए एक छोटा सा टॉकीज भी था ।पहले के टॉकीज में उतनी सुविधाएं कहाँ होती थीं पर जैसी भी थी यह आकर्षण का केंद्रबिंदु हुआ करती थीं ।
छुट्टियों में देखी हुई फिल्में साल भर  हमारे मन में एक मीठी याद बनकर रहती थीं । यहाँ भी दिन का प्रमुख कार्यक्रम  तालाब में नहाना होता था ...कमल , सिंघाड़े से भरा ताल मन को मोह लेता था । बहुत विशाल था यह तालाब । जाने वाले भी हम पन्द्रह - बीस लोग होते थे । हम खूब देर तक तालाब में तैरना सीखते रहते ...मम्मी , मौसी और मामियों के समझाइशों व निर्देशों के बीच हमारी मस्ती चलती रहती । गहराई में नहीं जाने के सख्त आदेश थे हमें...वहाँ तालाब में स्त्री -पुरुषों के अलग - अलग घाट थे जो एक - दूसरे से कुछ दूरी पर थे ।इन्हीं छुट्टियों में मैंने तैरना सीखा । पानी में ही हम पकड़ा - पकड़ी , चैन बनाओ जैसे खेल खेलते ..
हम घण्टों पानी में डूबे रहते और हमें बाहर निकालने के लिए मम्मी - मौसी लोगों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती ।अंततः दूसरे दिन तालाब न लाने की धमकी कारगर होती और हम दूसरे दिन आकर अपना खेल पूरा करने की उम्मीद में बाहर निकल जाते । वापस जाते वक्त बेहद थकावट लगती और घर तक की दूरी और भी लम्बी लगती । गाँव से इतनी दूर तालाब बनवाने का क्या मतलब है ...यह तर्क हम एक बार जरूर करते । आते वक्त नहाने के आनन्द में जिस दूरी का एहसास भी नहीं होता... जाते वक्त उसे तय करना बड़ा मुश्किल हो जाता । घर  पहुँचकर  खाने पर टूट पड़ते थे हम ...थकान और भूख दोनों का एहसास  घर पहुँचने पर ही होता..कैसे लगभग डेढ़ - दो किलोमीटर की दूरी साथ - साथ लड़ते - झगड़ते , बतियाते बीत जाती थी ...पता ही नहीं चलता था ।
        खाना खाने के बाद फिर किसी एक घर में मिलकर हम सब खेलने लगते थे...मामा जी के घर के सामने  सरिता दीदी लोग रहते थे...उनके यहाँ हम अधिक रहते थे । फिर तो खेलों का दौर चलता था ...ताश , लूडो ,इमली के बीजों से खेला जाने वाला खेल जिसके लिए लकड़ी का एक साँचा बनवाया गया था । दोपहर में हमें घर पर रहने वाले खेल ही खेलना पड़ता था क्योंकि बाहर जाने की मनाही रहती थी ।हम चाहे जिस भी घर में जमा होते..बड़ों के दिशा - निर्देश वही रहते थे  और जहाँ भी  रहते , हमारे खाने - पीने की व्यवस्था होते रहती थी ।उस समय यह महसूस ही नहीं होता था कि हम सिर्फ एक घर के मेहमान हैं..क्योंकि हमारी हर घर में बराबर खातिर होती थी । साल में एक बार आने वाले विशेष मेहमान जो थे हम । अब प्रवासी पक्षियों के बारे में सुनकर कुछ वही  एहसास जागते हैं मन में । हमें सपरिवार सभी मामा लोगों के घरों में एक दिन खाने पर भी विशेष रूप से बुलाया जाता । उन छुट्टियों में ही पड़ता वट - सावित्री व्रत..जिसे लगभग सभी विवाहित औरतें रखती । इसकी पूजा हमारे लिये विशेष आकर्षण का केंद्र होती..यहाँ लगभग हर घर में पूजन के लिए एक बरगद और पीपल का पेड़ किसी बड़े गमले या बाल्टी में जरूर उगाया जाता..बोन्साई के बारे में बाद में जानकारी हुई पर इसे हमने बचपन में ही देख लिया था । इस गमले को  पीतल की बड़ी परात में रखकर उसकी पूजा की जाती । मामी , मौसी व मम्मी सभी इस व्रत को रखती थी...हमारी नजर तो उन सभी चीजों पर रहती जो वे फेरों को गिनने के लिए उपयोग करतीं...एक सौ आठ फेरे लगाने के लिये एक सौ आठ चीजें...पिपरमिंट , मूंगफली , चूड़ियाँ , नेल- पॉलिश , बिंदी इत्यादि छोटी -छोटी चीजें...जो पूजा के बाद हम सबको बांटी जातीं ।
हम बच्चों के लिए सभी घरों के दरवाजे खुले होते...रेस - टीप खेलने के लिए  पूरी छूट थी कोई किसी भी घर में छुप जाता..पर दाम देने वाले  की हालत खराब हो जाती  । रात को प्रायः सभी अपने घर की छत या आँगन में सोते थे ...यहाँ पर भी रात को कहानियो की महफ़िल जमती थी...कभी - कभी भूत- प्रेत , चटिया - मटिया की कहानियों का दौर चलता तो एक से एक किस्से  बाहर निकल कर आते..अधिकतर तो मनगढ़ंत ही  होती थी पर मन के किसी कोने में डर तो छुपा ही रहता है...भले ही ऊपर से सब बहादुर बनते । कहानियाँ खत्म होने के बाद अपने घर वापस जाने की हिम्मत नहीं होती थी , तो किसी न किसी को साथ  लेना पड़ता था । दोपहर की हमारी बैठक बड़ी मजेदार होती...ताश खेलने बैठते तो उठने का नाम ही नहीं लेते थे जब तक घर से बुलावा नहीं आ जाता..कभी - कभी खूब डाँट भी पड़ती जब कुछ काम  होता या कहीं जाना होता और हम समय पर तैयार नहीं होते  । अपनी मित्र - मंडली को छोड़कर  जाने का मन न करता पर मम्मी का निर्देश रहता था..आये हो तो सभी से मिलने चलो...चाची तुम्हें बहुत याद करती हैं, फलां मामा जी  तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे..यह सब बोल - बोल कर हमें अपने साथ ले ही जातीं ।  किताबों से भी हमें बहुत लगाव था , कहीं भी कोई कहानी की किताब मिल जाती तो सारे काम भूल मैं पढ़ने बैठ जाती । लोटपोट ,  नन्दन , मधु - मुस्कान , चंदामामा , कॉमिक बुक हमारी फ़ेवरिट होती थी । कभी - कभी उन किताबों को भी पढ़ने में विशेष रुचि जागती जिन्हें न पढ़ने के लिये मम्मी ने ताकीद की होती । जैसे उनकी कोई उपन्यास या मनोहर कहानियाँ ...यह किताबें बच्चों के लिए नहीं हैं , कहते ही उन्हें पढ़ने की इच्छा घर कर जाती । छुप कर उनके कई उपन्यास पढ़े मैंने ।
नानी  वैसे हमें डाँटती नहीं थीं...जानती थी उनकी बेटी ही काफी है हमारे लिए , पर वह एक से एक कहावतों का प्रयोग करती थीं हमें शिक्षा देने के लिए ।
मामा - मामी हमारे लिये कितना कुछ भी कर लें पर जब तक वह स्वयं कुछ चिल्हर पैसे हमारे हाथों में चुपके से रख नहीं देती , उन्हें चैन नहीं आता था । जाओ , जो खाना हो खरीद लो...नाती - नातिनों के लिए उनका प्यार उनकी आँखों से छलकता था । हमारे जाने के समय उनकी आँखें डबडबा जाती थीं.. मानों मनुहार कर रही हो पुनः मिलने के लिए... बीच में भी समय मिले तो आ जाया करो..अपनी आँखें पोछती वह कह उठती । छुट्टियों के उन निश्चिंत मस्ती भरे दिनों की याद आती है तो मैं सोचती हूँ , हमारे बच्चों को यह सब नहीं मिल पाया । अपनी व्यस्त दिनचर्या के चलते गाँव में जाकर इतने दिन रुकने को उनके पास समय नहीं है । अभी के बच्चे छुट्टी में भी खाली नहीं रहते..उन्हें डांस , कम्प्यूटर या कुछ और सीखना होता है । हमने ही उनके लिए ऐसी आवश्यकताएं गढ़ दी हैं ...उन्हें व्यक्तित्व विकास के चक्कर में डाल दिया है जिसने उनके बचपन को खत्म कर दिया । अभी इतनी गलाकाट प्रतियोगिता भी चलती है कि पढ़ाई शुरू होने से पहले ही ट्यूशन , कोचिंग शुरू हो जाती है.. वे छुट्टी कब मनायें और कैसे । मनोरंजन के दूसरे साधन भी आ गए हैं जिन्हें हम न देना  चाहकर भी मना नहीं कर सकते । स्मार्टफोन के बिना अब वे एक मिनट भी नहीं रह सकते । उनकी दुनिया में प्राकृतिक सौंदर्य के लिए स्थान नहीं है , यह सब उन्हें वो खुशी नहीं दे सकते जो एक वीडियो गेम या कोई अंग्रेजी सीरीज देते हैं । हाँ कभी  पिकनिक या कहीं घूमने जाने के बहाने प्रकृति को करीब से देखने का  उन्हें मौका मिल जाता है...पानी से बच्चों को गहरा लगाव होता है । समुद्र या नदी वाली जगह पर घूमने जाने पर उनका उत्साह देखते ही बनता है ।देश की स्थापत्य कला को देखने के लिए भी मैं उन्हें प्रेरित करती हूँ  ताकि उनमें भी सृजनशीलता पनप सके । सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पढ़ने की आदत का निर्माण..यदि बच्चे पढ़ना सीख जायें तो वे बाकी सभी बातें अपने - आप सीख लेंगे क्योंकि पुस्तकों से बढ़कर कोई अच्छा दोस्त नहीं है ।

डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️

Tuesday, 2 January 2018

गजल

खुशियों को यूँ सरेआम करना ,
नज़र लग जायेगी जमाने की ।
जज्बातों का तुम न इजहार करना ,
साँसे थम जायेगी दीवाने की ।
मुलाकातों को न यूँ बदनाम करना ,
नज़र पड़ जायेगी निगहबानों की ।
किसी से नजरें न चार करना ,
राह मिल जाएगी मयखाने की ।
लबों को खामोशी से सी लेना ,
बात खुल जायेगी अफ़साने की ।
हथेलियों से शमा को बचाये रखना ,
उम्र बढ़ जायेगी परवाने की ।
*****
डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

प्रेम में जीना सीखें

प्रेम में जान देना नहीं ,
वेदना सहकर जीना सीखें ।
समस्याओं से डरना नहीं ,
जूझकर  निकलना सीखें ।।

प्रेम न हो मछली की तरह,
मर जाती  पानी के बिना ।
सीखो चकोर से प्रेम - मन्त्र ,
प्रिय को देखकर जीना ।
अमृत बन जायेंगे अश्रु ,
जाम विरह के पीना सीखें ।

अवसादों के बन्द घेरे ,
हताशा के गहन अंधेरे ।
दिल के जख्म गहरे ,
आँसू पलकों में ठहरे ।
सूरज की तरह अंधेरों से ,
लड़कर निकलना सीखें ।।

धोखे भरे ये मंजर ,
प्रियतम बने सितमगर ।
विश्वास के सीने में ,
बेवफाई के ख़ंजर ।
दर्दों के समंदर से ,
तैरकर निकलना सीखें ।।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

यादों की पोटली

साल का अंतिम दिन...
गुजरते हुए जोड़ जाता है ,
कुछ और अनुभव , बीते पल
यादों की पोटली में ...
पथ में मिले कई साथी ...
किसी ने हाथ थामा ,
किसी ने पीछा छुड़ाया ..
बिसरे कुछ , कोई याद रहा..
हुआ बर्बाद  ,कोई आबाद रहा ,
कभी हुए सम्मानित ...
कहीं हुए उपेक्षित ,
स्नेह मिला कहीं...
कहीं मिला आशीष ...
लोग मिले बुरे - भले ,
कुछ दिलजले ,कहीं दिल मिले..
खोया -पाया , क्या मिला ,
सन्तुष्ट कोई ,किसी को गिला...
समय की धार प्रबल ,
जीवन को देता सम्बल..
सुख - दुख बहा ले जाता ,
भाव समदृष्टि दे जाता....
दिन बीत गए , कुछ रीत गये ,
हुए पुराने , कुछ दोस्त नये...
खट्टी - मीठी यादें ,
भूली - बिसरी बातें ....
सुहाने दिन बचपन के,
यौवन की मीठी रातें...
चेहरों की झुर्रियां या ,
अनुभव की खिड़कियां....
माँ की लोरियाँ ,
पिता की झिड़कियाँ .....
किसी बच्चे की जेबों की तरह,
अनगिनत उपयोगी ...
अनुपयोगी चीजों  से भरी ,
यह  यादों की पोटली...
भरती जाती निरन्तर ,
बीतती जाती उम्र...
पर रीता  मन का गागर ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़