Wednesday, 3 January 2018

जाने कहाँ गये वो दिन

गर्मी की छुट्टियाँ आते ही मन उन्हीं बचपन की गलियों में दौड़ जाता है...जब इनका बेसब्री से , दिन गिन - गिन कर इंतजार करते थे । परीक्षा खत्म होते ही  दादा जी के घर पहले जाना होता था...वहाँ के घर के पीछे एक बड़ा सा तालाब था जिसके घाट हमारे घरों की बाड़ी से लगे हुए थे । अपने घर पर तालाब है..यह सोच हमें  गर्व महसूस कराती थी । बड़े पापा के बच्चे और हम भाई - बहन मिलकर खूब नहाते थे  ...फिर दिन भर खेलते । बड़े पापा हमारे बीच दौड़ प्रतियोगिता भी कराते । शाम को घर का बड़ा सा आँगन बच्चों से गुलजार रहता था । गाँव में रहने वाले चाचा के बच्चे भी हमारी टीम में शामिल हो जाते । शहरों से आये हम बच्चों की बहुत सी गतिविधियाँ उनके लिये आकर्षण का केंद्र हुआ करती थीं । तब गाँव कितने समृद्ध थे  , हर घर  में लोग रहते थे...बीस - पच्चीस वर्ष बाद जब मैं गाँव गई थी तो कैसा उजाड़ सा लग रहा था मानो वहाँ कोई रहता ही नहीं ।
            कर्पूरताल की शोभा देखते ही बनती थी...गहरे तालाब में लबालब भरा  स्वच्छ , शीतल जल...चारों तरफ  पेड़ों की घनी छाया , एक छोटा सा मन्दिर  तालाब के  सौंदर्य  में अनुपम  वृद्धि करता  था । तालाब
के चारों तरफ  हरे - भरे खेत मन को मोह लेते थे ..घर आकर भी मेरे  मन  का एक हिस्सा वहीं छूट  जाता था । तब गाँव  उतने घने भी नहीं थे ..घर - घर में तरह - तरह के पेड़ लगे थे , फल - फूल इत्यादि । हमारे घर के
आँगन में जामुन का एक विशाल पेड़ था...गर्मी में उस पर खूब फल लगते थे । सुबह उठकर  पके जामुनों को बटोरने की होड़ लगती थी बच्चों में । अनार और अमरूद के पेड़ भी लगे हुए थे । समूह में खाना  , एक साथ जमीन में गद्दा बिछा कर सोना बहुत ही अच्छा लगता था । रात होने का भी हमें बहुत इंतजार रहता था क्योंकि बिस्तर में लेटने के बाद कहानियों का दौर चलता था ।  कभी दादी , कभी बड़े पापा तो कभी पापा को  कहानी सुनाने के लिए हम घेर लेते थे । कई तरह की कहानियाँ... परियों , राक्षस और भगवान की धार्मिक कहानियाँ  ...नैतिक मूल्यों की कहानियाँ  हमें बाँध कर रखती थीं । कहानी सुनते - सुनते ही कब हम मीठी नींद के आगोश में  खो जाते थे , पता ही नहीं चलता था ।
          पन्द्रह दिन दादी के यहाँ गुजारकर बाकी की छुट्टियाँ हम नानी के घर मनाते थे । शायद सभी बच्चों के लिए नाना - नानी का घर आकर्षण का केंद्र होता है ।
हमारे लिए भी था...विशेष आकर्षण का केंद्र  । वह ऐसी जगह थी जहाँ  हमे हाथों - हाथ लिया जाता था...
हमारी हर फरमाईश पूरी की जाती थी  । मामा जी शाम को ड्यूटी से वापस आते वक्त  समोसे  जलेबी लेकर  आते थे....उन समोसों का स्वाद आज भी भुलाये नहीं भूलता । मामा जी का  गाँव घने जंगलों के बीच बसा था
...यह थोड़ा कस्बा नुमा था जहाँ  कुछ अधिक सुविधायें थीं..यहाँ के बाजार थोड़े बड़े थे , यहाँ  व्यवसायी अधिक रहते थे तो अच्छी बड़ी- बड़ी दुकानें थीं...और हाँ सिनेमा देखने के लिए एक छोटा सा टॉकीज भी था ।पहले के टॉकीज में उतनी सुविधाएं कहाँ होती थीं पर जैसी भी थी यह आकर्षण का केंद्रबिंदु हुआ करती थीं ।
छुट्टियों में देखी हुई फिल्में साल भर  हमारे मन में एक मीठी याद बनकर रहती थीं । यहाँ भी दिन का प्रमुख कार्यक्रम  तालाब में नहाना होता था ...कमल , सिंघाड़े से भरा ताल मन को मोह लेता था । बहुत विशाल था यह तालाब । जाने वाले भी हम पन्द्रह - बीस लोग होते थे । हम खूब देर तक तालाब में तैरना सीखते रहते ...मम्मी , मौसी और मामियों के समझाइशों व निर्देशों के बीच हमारी मस्ती चलती रहती । गहराई में नहीं जाने के सख्त आदेश थे हमें...वहाँ तालाब में स्त्री -पुरुषों के अलग - अलग घाट थे जो एक - दूसरे से कुछ दूरी पर थे ।इन्हीं छुट्टियों में मैंने तैरना सीखा । पानी में ही हम पकड़ा - पकड़ी , चैन बनाओ जैसे खेल खेलते ..
हम घण्टों पानी में डूबे रहते और हमें बाहर निकालने के लिए मम्मी - मौसी लोगों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती ।अंततः दूसरे दिन तालाब न लाने की धमकी कारगर होती और हम दूसरे दिन आकर अपना खेल पूरा करने की उम्मीद में बाहर निकल जाते । वापस जाते वक्त बेहद थकावट लगती और घर तक की दूरी और भी लम्बी लगती । गाँव से इतनी दूर तालाब बनवाने का क्या मतलब है ...यह तर्क हम एक बार जरूर करते । आते वक्त नहाने के आनन्द में जिस दूरी का एहसास भी नहीं होता... जाते वक्त उसे तय करना बड़ा मुश्किल हो जाता । घर  पहुँचकर  खाने पर टूट पड़ते थे हम ...थकान और भूख दोनों का एहसास  घर पहुँचने पर ही होता..कैसे लगभग डेढ़ - दो किलोमीटर की दूरी साथ - साथ लड़ते - झगड़ते , बतियाते बीत जाती थी ...पता ही नहीं चलता था ।
        खाना खाने के बाद फिर किसी एक घर में मिलकर हम सब खेलने लगते थे...मामा जी के घर के सामने  सरिता दीदी लोग रहते थे...उनके यहाँ हम अधिक रहते थे । फिर तो खेलों का दौर चलता था ...ताश , लूडो ,इमली के बीजों से खेला जाने वाला खेल जिसके लिए लकड़ी का एक साँचा बनवाया गया था । दोपहर में हमें घर पर रहने वाले खेल ही खेलना पड़ता था क्योंकि बाहर जाने की मनाही रहती थी ।हम चाहे जिस भी घर में जमा होते..बड़ों के दिशा - निर्देश वही रहते थे  और जहाँ भी  रहते , हमारे खाने - पीने की व्यवस्था होते रहती थी ।उस समय यह महसूस ही नहीं होता था कि हम सिर्फ एक घर के मेहमान हैं..क्योंकि हमारी हर घर में बराबर खातिर होती थी । साल में एक बार आने वाले विशेष मेहमान जो थे हम । अब प्रवासी पक्षियों के बारे में सुनकर कुछ वही  एहसास जागते हैं मन में । हमें सपरिवार सभी मामा लोगों के घरों में एक दिन खाने पर भी विशेष रूप से बुलाया जाता । उन छुट्टियों में ही पड़ता वट - सावित्री व्रत..जिसे लगभग सभी विवाहित औरतें रखती । इसकी पूजा हमारे लिये विशेष आकर्षण का केंद्र होती..यहाँ लगभग हर घर में पूजन के लिए एक बरगद और पीपल का पेड़ किसी बड़े गमले या बाल्टी में जरूर उगाया जाता..बोन्साई के बारे में बाद में जानकारी हुई पर इसे हमने बचपन में ही देख लिया था । इस गमले को  पीतल की बड़ी परात में रखकर उसकी पूजा की जाती । मामी , मौसी व मम्मी सभी इस व्रत को रखती थी...हमारी नजर तो उन सभी चीजों पर रहती जो वे फेरों को गिनने के लिए उपयोग करतीं...एक सौ आठ फेरे लगाने के लिये एक सौ आठ चीजें...पिपरमिंट , मूंगफली , चूड़ियाँ , नेल- पॉलिश , बिंदी इत्यादि छोटी -छोटी चीजें...जो पूजा के बाद हम सबको बांटी जातीं ।
हम बच्चों के लिए सभी घरों के दरवाजे खुले होते...रेस - टीप खेलने के लिए  पूरी छूट थी कोई किसी भी घर में छुप जाता..पर दाम देने वाले  की हालत खराब हो जाती  । रात को प्रायः सभी अपने घर की छत या आँगन में सोते थे ...यहाँ पर भी रात को कहानियो की महफ़िल जमती थी...कभी - कभी भूत- प्रेत , चटिया - मटिया की कहानियों का दौर चलता तो एक से एक किस्से  बाहर निकल कर आते..अधिकतर तो मनगढ़ंत ही  होती थी पर मन के किसी कोने में डर तो छुपा ही रहता है...भले ही ऊपर से सब बहादुर बनते । कहानियाँ खत्म होने के बाद अपने घर वापस जाने की हिम्मत नहीं होती थी , तो किसी न किसी को साथ  लेना पड़ता था । दोपहर की हमारी बैठक बड़ी मजेदार होती...ताश खेलने बैठते तो उठने का नाम ही नहीं लेते थे जब तक घर से बुलावा नहीं आ जाता..कभी - कभी खूब डाँट भी पड़ती जब कुछ काम  होता या कहीं जाना होता और हम समय पर तैयार नहीं होते  । अपनी मित्र - मंडली को छोड़कर  जाने का मन न करता पर मम्मी का निर्देश रहता था..आये हो तो सभी से मिलने चलो...चाची तुम्हें बहुत याद करती हैं, फलां मामा जी  तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे..यह सब बोल - बोल कर हमें अपने साथ ले ही जातीं ।  किताबों से भी हमें बहुत लगाव था , कहीं भी कोई कहानी की किताब मिल जाती तो सारे काम भूल मैं पढ़ने बैठ जाती । लोटपोट ,  नन्दन , मधु - मुस्कान , चंदामामा , कॉमिक बुक हमारी फ़ेवरिट होती थी । कभी - कभी उन किताबों को भी पढ़ने में विशेष रुचि जागती जिन्हें न पढ़ने के लिये मम्मी ने ताकीद की होती । जैसे उनकी कोई उपन्यास या मनोहर कहानियाँ ...यह किताबें बच्चों के लिए नहीं हैं , कहते ही उन्हें पढ़ने की इच्छा घर कर जाती । छुप कर उनके कई उपन्यास पढ़े मैंने ।
नानी  वैसे हमें डाँटती नहीं थीं...जानती थी उनकी बेटी ही काफी है हमारे लिए , पर वह एक से एक कहावतों का प्रयोग करती थीं हमें शिक्षा देने के लिए ।
मामा - मामी हमारे लिये कितना कुछ भी कर लें पर जब तक वह स्वयं कुछ चिल्हर पैसे हमारे हाथों में चुपके से रख नहीं देती , उन्हें चैन नहीं आता था । जाओ , जो खाना हो खरीद लो...नाती - नातिनों के लिए उनका प्यार उनकी आँखों से छलकता था । हमारे जाने के समय उनकी आँखें डबडबा जाती थीं.. मानों मनुहार कर रही हो पुनः मिलने के लिए... बीच में भी समय मिले तो आ जाया करो..अपनी आँखें पोछती वह कह उठती । छुट्टियों के उन निश्चिंत मस्ती भरे दिनों की याद आती है तो मैं सोचती हूँ , हमारे बच्चों को यह सब नहीं मिल पाया । अपनी व्यस्त दिनचर्या के चलते गाँव में जाकर इतने दिन रुकने को उनके पास समय नहीं है । अभी के बच्चे छुट्टी में भी खाली नहीं रहते..उन्हें डांस , कम्प्यूटर या कुछ और सीखना होता है । हमने ही उनके लिए ऐसी आवश्यकताएं गढ़ दी हैं ...उन्हें व्यक्तित्व विकास के चक्कर में डाल दिया है जिसने उनके बचपन को खत्म कर दिया । अभी इतनी गलाकाट प्रतियोगिता भी चलती है कि पढ़ाई शुरू होने से पहले ही ट्यूशन , कोचिंग शुरू हो जाती है.. वे छुट्टी कब मनायें और कैसे । मनोरंजन के दूसरे साधन भी आ गए हैं जिन्हें हम न देना  चाहकर भी मना नहीं कर सकते । स्मार्टफोन के बिना अब वे एक मिनट भी नहीं रह सकते । उनकी दुनिया में प्राकृतिक सौंदर्य के लिए स्थान नहीं है , यह सब उन्हें वो खुशी नहीं दे सकते जो एक वीडियो गेम या कोई अंग्रेजी सीरीज देते हैं । हाँ कभी  पिकनिक या कहीं घूमने जाने के बहाने प्रकृति को करीब से देखने का  उन्हें मौका मिल जाता है...पानी से बच्चों को गहरा लगाव होता है । समुद्र या नदी वाली जगह पर घूमने जाने पर उनका उत्साह देखते ही बनता है ।देश की स्थापत्य कला को देखने के लिए भी मैं उन्हें प्रेरित करती हूँ  ताकि उनमें भी सृजनशीलता पनप सके । सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पढ़ने की आदत का निर्माण..यदि बच्चे पढ़ना सीख जायें तो वे बाकी सभी बातें अपने - आप सीख लेंगे क्योंकि पुस्तकों से बढ़कर कोई अच्छा दोस्त नहीं है ।

डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️

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