तेरा यूँ चुप - चुप रहना ,
अच्छा नहीं लगता ।
खामोशी से दर्द को सहना ,
अच्छा नहीं लगता ।
मन में उजास भर जाता है ,
जब मुस्कुराते हो ।
तुम्हारा उदास रहना ,
अच्छा नहीं लगता ।
भूल जाती हूँ मैं ,
जिस पीड़ा से हूँ व्यथित ।
तुम भी पीडित हो पर,
अपने दर्द को साझा न करना ,
अच्छा नहीं लगता ।
परेशान हो जाती हूँ ,
अपने घर की फिक्र में ।
तुमसे ही जुड़ी हैं वो बातें ,
करती जिनका जिक्र मैं ।
पर वो तुमसे बढ़कर नहीं ,
मेरे शिकवों पर कुछ न कहना ,
अच्छा नहीं लगता ।।
रहते हो दिल में मेरे ,
भावनाओं को पढ़ लिये ।
तुमसे बढ़कर दुनिया में ,
कुछ भी नहीं मेरे लिये ।
जान बूझ कर अनजान बनना ,
अच्छा नहीं लगता ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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