आज फिर समाचार - पत्र का मुख्य पृष्ठ खून व दर्द के छींटों से रंगा हुआ था । वर्षों से इतने शांत , सुखी छत्तीसगढ़ को न जाने किसकी नजर लग गई । पिछले कुछ वर्षों से नक्सली गतिविधियाँ बढ़ती ही जा रही हैं ।ग्रामीणों के अलावा पुलिस व सुरक्षा बल के जवानों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं तथा उन्हें नृशंसता पूर्वक मारा जा रहा है । न जाने कितने परिवार तबाह हो गये , कितनी
पत्नियाँ विधवा और बच्चे अनाथ हो गये । नक्सली हमलों में अनाथ हुए बच्चों की पीड़ा वे समझ पाते...काश वे समझ पाते कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । लोगों को मारकर वे दहशत फैलाना चाहते हैं... ताकि डरकर ग्रामीण उनके रास्ते में न आयें , किसी बात का विरोध न करें ।वे सड़क बनाने , कारखानों व विकास की अन्य योजनाओं का विरोध करते हैं , महंगी मशीनों , वाहनों को जला कर प्रशासन का नुकसान करते हैं । कर्मचारियों को प्रताड़ित करते हैं ।आये दिन वे सुरक्षा बलों पर हमले कर उन्हें मौत के घाट उतारते रहते हैं...समाचार - पत्रों में जवानों के हृदय विदारक क्षत - विक्षत शरीर देखकर कुछ पलों के लिए हमारी संवेदना जाग उठती है , उन पर चर्चा होती है , बहस होती है.... सहानुभूति दर्शाई जाती है.... उसके बाद सब निश्चिंतता की नींद सोने लगते हैं । उनकी सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए जाते हैं ? कुछ समय बाद फिर वही घटना सुनने और दोहराने के लिए समाज तैयार हो जाता है । कई वर्षों से हजारों निर्दोष मारे जा चुके हैं परंतु प्रशासन सुरक्षा संसाधन जुटाने में असफल रहा है।
न उनके पास उच्च कोटि के बुलेटप्रूफ जैकेट हैं न आधुनिक हथियार । समय पर उचित चिकित्सा भी उन्हें नहीं मिल पाती ..और वे बलि का बकरा बनते जा रहे हैं । अपनी जान हथेली में लेकर ड्यूटी कर रहे इन जवानों के परिवार डर के साये में अपनी जिंदगी बिताते हैं । कठिनाइयों भरी यह जिम्मेदारी तकलीफों एवं असुविधा से भरी है । दुर्ग - जगदलपुर रोड पर जाने वाली एक बस में मैं एक जवान की पत्नी से मिली थी जो अपने दो साल की बेटी के साथ अपने पति के पास जा रही थी । उनके पति नक्सल क्षेत्र में पदस्थ थे । वह अपने पति के साथ वहीं रहने जा रही थी । पर ...वहाँ का माहौल ठीक नहीं है , कैसे रहोगी ? मेरे पूछने पर उसने जवाब दिया-- " छुट्टी में घर आने पर मेरी बेटी ने अपने पापा को नहीं पहचाना तो मुझे अच्छा नहीं लगा इसलिये मैं ने उनके साथ रहने का निश्चय किया ।अब चाहे जो भी खतरा उठाना पड़े , मैं उनके साथ ही रहूँगी । जो होना है वो तो होकर रहेगा , डरने से क्या फायदा ? " सचमुच वह एक सिपाही की पत्नी की तरह बात कर रही थी ।
जब भी समाचार - पत्र में किसी जवान की मृत्यु का समाचार पढ़ती हूँ , वे दोनों माँ - बेटी मेरी आँखों में झूलने लगते हैं... आखिर यह खून - खराबा किसलिए ?
नक्सली भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक उन्हें बाहरी मदद मिल रही है , उनकी आजीविका चल रही है तब तक वे यह घिनौना कार्य करते जायेंगे ...न तो जवान खत्म होंगे न पुलिस व सुरक्षा बल...खाली पदों को भरने के लिए जनसंख्या का हुजूम बढ़ा चला आएगा ...कितनी गोलियाँ हैं उनके पास , कब तक वे हिंसा का खेल खेलते रहेंगे , अकारण निरपराध लोगों को मारकर उनके परिवारों को सजा क्यों दे रहे हैं । क्यों नहीं यह घिनौना कार्य छोड़कर वे एक नई जीवन - शैली अपनाते । शांति और सन्तोष का रास्ता अख्तियार कर अपने जीवन को एक नया मोड़ प्रदान करते ।अपना परिवार बसा कर उनके सुख - सुविधाओं के लिए प्रयास करते ।नक्सल क्षेत्रों में रहने वालों को तरक्की करने देते । उन्हें विकास की मुख्य धारा से जुड़ने देते । काश ! शांति , अमन और सुख , समृद्धि का वह वातावरण पुनः छत्तीसगढ़ में स्थापित हो और वहाँ के निवासी भय के घेरे से बाहर निकल पाएं । विकास की योजनाओं का लाभ ले सकें , सामान्य नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत कर सकें । सुरक्षाबलों के जवानों के परिवार भी भयमुक्त , निश्चिन्ततापूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें । काश ! ऐसा हो पाता ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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