Friday, 30 March 2018

दहेज - उत्पीड़न कब तक?

आज फिर अखबार की सुर्खियों में दहेज की प्रताड़ना से दुखी  पीड़िता द्वारा खुदकुशी की खबर पढ़कर  मन खिन्न हो गया..कभी दहेज के लिए दुल्हन को जला देने की खबर , कभी शादी टूटने की खबर मन को उद्वेलित कर देती है.. आखिर कब तक यह दानव मासूमों की जान लेते रहेगा ..कितने घरों को बर्बाद करता रहेगा , कब रुकेगा यह सिलसिला मौत के तांडव का ?
      कहते हैं ना कि बेटी घर की रौनक होती है.. कितने अरमानों के साथ पिता अपनी बेटी का पालन पोषण करता है.. उसके नखरे उठाता है.. अपने दिल के टुकड़े
को डोली में बिठाकर विदा करता है ..तलाश करता है उसके लिए एक ऐसे घर की , जहाँ उसे प्यार , मान -
सम्मान मिले...अपनापन मिले , वह सदा खुश रहे ।  ढूँढता है ऐसा हमसफ़र जो जीवन के हर मोड़ में , सुख में  ,दुख में उसका साथ दे ...
   जहाँ बचपन गुजारा उस आँगन को छोड़कर किसी और के घर - आँगन  सँवारने चल पड़ती हैं बेटियाँ...एक अनजान शख्स का हाथ पकड़ किसी अनजान सफर पर चल पड़ती है सिर्फ यह विश्वास मन में लेकर कि वह जीवन भर उसका साथ निभायेगा  , जी भर प्यार लुटाने वाले भाई बहन , माता पिता को छोड़कर   वह एक अनजान परिवार को दिल से अपना लेती है । पति से जुड़े सारे रिश्तों को अपना मान लेती है  , उन की देखभाल सेवा करती है । पर वही पति जब उस विश्वास को तोड़ देता है..रिश्तों को धन के तराजू में तौलने लगता है ...पत्नी को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी समझने लगता है...दहेज के लिए उसे प्रताड़ित करने लगता है..दिन रात ताना मारकर उसका जीना मुश्किल कर देता है तो क्या बीतती होगी उस पर
विश्वास के बदले मिलता है धोखा , प्यार के बदले मिलता है शिकायतों  , गालियों भरे ताने , नफ़रतें  । हिंसा , मारपीट  करके , डरा धमका कर उसे पिता से रुपये माँगने के लिए मजबूर करते हैं । शादी खत्म करने की धमकी देते हैं  , जला कर मार डालते हैं.. आखिर क्या दोष है उसका ..लड़की का जन्म लेना ?
  क्यों टूट जाती है स्नेह के मनकों से बनी विश्वास की माला .. रिश्तों की नाजुक डोर ...सात जन्मों के रिश्ते सात माह भी नहीं टिकते । आखिर क्यों लालच की बलि चढ़ जाता है इतना पावन रिश्ता ..क्या ऐसे लोग समाज में रहने के योग्य हैं... ऐसे लोगों को चिन्हित कर समाज से अलग नहीं कर देना चाहिए । कानून द्वारा इनके लिए कड़ी सजा के प्रावधान हैं पर  यह काफी नहीं है । ये एक नहीं कई लोगों की जिंदगी बर्बाद करते हैं , इसलिए इन्हें पहचान कर इनका बहिष्कार किया जाना चाहिए ।
   सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि कुछ लड़की वाले अच्छे रिश्ते पाने के लिए  अच्छा दहेज देने की पेशकश करते हैं । घर , कार और न जाने क्या...ऐसे लोगों की शह पाकर इनका भाव और बढ़ जाता है ।  दहेज के लालची लोगों को यदि कोई अपनी बेटी न दे तभी उनको सबक मिलेगा । चेहरे से तो लोगों के विचारों का पता लगाना मुश्किल होता है पर समाज में इतनी जागरूकता होनी चाहिए कि  सम्बन्धी , पड़ोसी ,दोस्त ऐसे लोगों से लड़की वालो को सावधान करें । उन्हें हतोत्साहित किया जाना चाहिए कि यदि आपने दहेज की बात भी की तो आपको विवाह के लिए कोई लड़की देने को तैयार नहीं होगा ।  यहाँ तो एक दहेज देने से मना करे तो दूसरा अधिक दहेज  देने की पेशकश कर शादी के लिए तैयार हो जाता है । याद रखिये लालच का घड़ा कभी नहीं भरता । कोई भी उपाय सोचकर हमें अपनी लाड़लियों को बचाना होगा ऐसे दानवों के हाथों में पड़ने से  ।
इस दहेज ने फैलाया भारी अत्याचार है ।
इस दानव को मार भगाओ यह समाज का भार है ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

छत्तीसगढी दोहे

सिधवा मइनखे पाय के , जम्मो झन गुर्राथे ।
पीयर परे पातर ल , रुख तको झर्राथे ।।
अपन उपर भरोसा राख , अडिग रहि अपन सोच मा ।
पहार  ह अडिग रइथे , ढेला पथरा नन्दी म बोहाथे ।।
धीर ल धरे रहा ,जम्मो  बात ह बनही ।
मौसम के आएच ले , रुख ह फुलही फरही ।।
अपन करम ल करत रहा , जिनगी ह बदलही ।
मेहनत के तलाव मा , खुसी के कंवल ह फुलही ।।
ठूँठवा असन झन अड़े रहा ,फरे रुख सही झुक ।
लबरा मन ला जान दे , साधुजन बर रुक ।।
रूप रंग म झन मोहा , मन भीतरी ल छू ।
मीठ मीठ गप अउ करू करू थू ।।
अपनेच ऊपर भरोसा राख , कोनो काम नइ आवे ।
धन -  दौलत के भंडार ह मौत ल रोक नइ पावे ।।
झन कर गरब रूप -धन के ,कुछु संग नई जावे ।
कतको बड़हर मनखे जुच्छा  हाथ हलावे ।।

Tuesday, 27 March 2018

छत्तीसगढी बयनगय रचना

काम के बात कहत  हंव , तेहर कान देके सुन ।
आजकल के जमाना म खुशामद करई हे बड़े गुन ।।

कामधाम  ला करे नहि आघु आघु करथें ।
साहब ल जान देथे तहां खर्राटा  ल भरथे ।
तेहर बुता करइया ह मुड़ी ला अपन धुन ।।
आजकल...
एती के बात ल ओती करथे अब्बड़ फायदा उठाथे ।
देर सबेर ड्यूटी आथे , आधा जुवार भाग जाथे ।
तें सिधवा हावस त सबके गारी ला सुन ।।
आजकल...
अब्बड़ बुता करथन कइके  डींग अब्बड़  मारथे।
चुप्पे चुप बुता करइया अडहा मूरख कहाथे ।
तरी तरी ले खा डारथे एमन ए लकड़ी के घुन ।।
आजकल ...
साहब मन के गोड़ छू छू के जिनगी इंखर तरगे ।
कहां ले कहां पहुंचगे तेहर एकेच जगहा सरबे ।
खुसामद अउ चमचागिरी सीख ले थोरकुन ।।
आजकल  के जमाना म खुसामद करई हे बड़े गुन ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 21 March 2018

जल है तो कल है (विश्व जल दिवस पर विशेष )

जल है तो कल है  ( विश्व जल दिवस पर विशेष )
🌧️🌧️🌧️🌧️🌧️🌧️🌧️🌧️

प्रकृति के अनमोल उपहारों में ,
सबसे ऊपर जल है...
बचत करें , संचय करें ,
क्योंकि जल है तो कल है ।
कटते जा रहे हैं पेड़ ,
वन - क्षेत्र में हो रही कमी ....
प्रभाकर की प्रखर किरणें ,
सोख रही धरा की नमी ...
जलधार नदियों की ,
क्यों दिख रही दुर्बल है ।
जल है तो कल है ।।
भौतिकता की राह में ,
वसुंधरा को भुला दिया...
कांक्रीट की छत बनाने ,
हरीतिमा  मिटा दिया...
अब भी सम्भल जाओ ,
लालच की आँधी बड़ी प्रबल है ।
जल है तो कल है ।।
सूख गये ताल - तलैया ,
कृशकाय हुआ निर्झर है..
सूखे कुँए बाँह पसारे ,
ताकते ऊपर हैं ...
नलकूपों की बढ़ती आबादी ,
घटता भूमिगत जल है ।
जल है तो कल है ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ,🌧️

Monday, 19 March 2018

बदलनी होगी रिश्तों की परिभाषा

रिश्ते सामाजिक संरचना की रीढ़ हैं.. कुछ रिश्ते हमें जन्म से प्राप्त होते हैं और कुछ हम अपने व्यवहार से निर्मित करते हैं।इनका हमारे जीवन में कितना महत्व है यह सभी जानते हैं ।समय के साथ रिश्तों के अर्थ बदल रहे हैं.. आधुनिक सुविधाओं से भरे हमारे जीवन में बदलाव आ गया है...तकनीकी के विकास ने हमारे रहन - सहन , विचार  , जीवन शैली को प्रभावित किया है । हम कितनी भी तरक्की कर जायें रिश्ते हमारे लिये सदैव महत्वपूर्ण रहेंगे । पर अब परम्परा गत सोच से इतर रिश्तों की परिभाषा बदलनी होगी ..बदल रही है..सास - बहू के रिश्तों में अब संकोच की जगह खुलेपन ने ले लिया है क्योंकि नौकरी करती बहुओं को सास के सहयोग की आवश्यकता है बिना उनके सहयोग के वह परिवार और नौकरी को नहीं सम्भाल सकती । वह सास को माँ के समान आदर तो देती ही है पर उनमें एक दोस्त भी ढूँढती है । आज आपको ऐसी सासें भी देखने को मिल जाएंगी और ऐसा होना भी चाहिये.. समस्त रुढियों को भुलाकर जब आपने उन्हें नौकरी करने की अनुमति दे दी तो उनकी समस्याओं के प्रति भी संवेदनशील होना होगा । कितना अच्छा लगता है जब कोई बहू कहती है कि मेरी सास ने बच्चे सम्भाले तब मैं यह काम कर पाई । ननद और भाभी का रिश्ता भी सामंजस्य की माँग करता है ..ननद यदि भाभी को सम्मान दे तो निश्चय ही भाभी का भरपूर दुलार उसे मिलेगा...ननदों की रुढिगत छबि जो अपने माता - पिता को भाभी के खिलाफ भड़काती रहती है , वह भी बदलनी चाहिये क्योंकि कल उसे भी यही परिस्थिति देखने को मिल सकती है। ननद , भाभी का रिश्ता यदि मधुर हो तो परिवार में शांति बनी रहती है क्योंकि भाई - बहन का रिश्ता अटूट है और जीवन भर आपको साथ रहना है तो कड़वाहट कैसी ।ननदें ही हैं जो भाभी को घर में उचित स्थान दिला सकती हैं  , उनके साथ होने वाले भेदभाव या अन्याय का विरोध कर सकती हैं ।  देवरानी और जेठानी के रिश्ते में भी बदलाव दिख रहे हैं.. कई देवरानी - जेठानी की जोड़ी मैने देखी जो परस्पर प्रेम व समझदारी के साथ रह रहे हैं । इस रिश्ते में यदि मिठास आ जाये तो क्या कहने । उम्र व अनुभव में बड़ी जेठानी कई समस्याओं को चुटकी बजाते ही  सुलझा देती है , टूटे दिलों के तार जोड़ देती है और देवरानी की खूबियों का पूरा लाभ लेती है ।ससुराल में एक छोटी बहन भी उसे मिल जाती है जो कई परिस्थितियों में बड़ी बहन का साथ निभाती है । दोस्ती  का रिश्ता भी बहुत प्यारा होता है पर सीमाओं का ध्यान भी रखना आवश्यक होता है । एक - दूसरे की उम्मीदों पर खरा उतरना आवश्यक होता है इस रिश्ते को निभाने के लिए ।एक दूसरे पर विश्वास बनाये रखना , एक दूसरे की तकलीफों को समझना जरूरी है तभी दोस्ती स्थायी बन सकती है । सारे रिश्तों को निभाने की पहली शर्त है दूसरों से अपेक्षा कम रखना और अपना काम निःस्वार्थ रूप से करते जाना । समय बदल रहा है तो रिश्तों की परिभाषा भी तो बदलनी चाहिए और स्वरूप भी । ये सारे रिश्ते आपसी प्रेम , सहयोग  व विश्वास की माँग करते हैं  ।क्यों आप क्या कहते हैं ?

स्वरचित --

डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़


Sunday, 18 March 2018

चंद बातें...खुद से

देह को उम्र की मर्यादाएँ निभाने दो...
दिल को बचपन की गलियों में खो जाने दो ।
दौड़ - भाग  तो रोज करते ही हो...
किसी दिन नींद की आगोश में सो जाने दो ।
जिम्मेदारियाँ  सदा निभानी तो हैं...
एकाध दिन बेलौस ,बेपरवाह हो जाने दो ।
छतरी लेकर तो रोज निकलते हो...
किसी दिन बारिशों में खुद को भीग जाने दो ।
दूसरों को सदा खुश करते आये...
किसी दिन स्वयं  को भी मुस्कुराने दो ।
तमन्नाएं पूरी करने में बिता दी उम्र...
कुछ शिकायतें करने के  भी बहाने दो ।
हरदम  निगाहें  बन्द कर मत रखो...
उन्हें भी खुशियों के कुछ पल चुराने दो ।
सुनते रहे सदा दूसरों के मन की...
चलो  जरा  मन को अपनी सुनाने दो ।
बन्दिशों में बाँधकर रखो न  खुद को...
खुलकर होठों को गीत गुनगुनाने दो  ।
कब से आकर ठहरी  है मुस्कान...
चलो आज उसे  फिर खिलखिलाने दो ।
भूल भी जाओ दुनिया के रस्मो- रिवाज..
एक दिन तो खुद को खुद में समाने दो ।
वक्त की शाख से टूट गये जो लम्हें ...
कभी  उन्हें  मुट्ठी में भर लाने दो ।
कई जख्म पुराने जो खुले छोड़ रखे...
चलो , भूलकर उन्हें प्यार से भर जाने दो ।
परखना सीख लिया तुमने लोगों को...
अब खुद की खुद से पहचान कराने दो ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ 😝

त्वरित न्याय ( कहानी )

न्याय पाने के लिए इंसान  अदालत के दरवाजे  खटखटाते हुए मर जाता है पर उसे न्याय नहीं मिलता
पर एक अदालत ऐसी है जहाँ  न्याय मिलता ही है वह है ईश्वर की अदालत....पर ऐसा त्वरित न्याय ..सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । घटना आज से कई वर्ष
पहले की है ...बड़े ही अरमानों के साथ  शिवनारायण सिंह ने अपनी एकलौती लाडली बिटिया  सुमन की शादी की थी ...रामपुर  के  रंजीत सिंह के बेटे राजीव से । उच्च शिक्षित  राजीव  शासन  में अच्छे पद पर था  ..एकलौता लड़का घर से सम्पन्न । पिता भी अच्छे पद पर थे किसी बात की कमी नहीं थी लेकिन कहा गया है ना लालच का घड़ा कभी नहीं भरता । जिसके पास जितना अधिक धन रहता है वह उसे और बढाने के फेर  में रहता है ।  सब कुछ होते हुए भी राजीव की शादी के लिए लड़की के साथ सम्पत्ति की चाह रखने वाले रंजीत सिंह  न जाने कितनी लड़कियों को रिजेक्ट कर चुके थे ।  शिवनारायण सिंह ने अपनी बेटी की शादी का प्रस्ताव दिया  तो  सुमन की शिक्षा व सुंदरता ने तुरंत  प्रभावित कर दिया था राजीव को , परन्तु उसके पिता जी ने  तिलक में  दस लाख की माँग कर दी ...ऊपर से शादी का खर्च , सुमन तैयार नहीं थी पर पिता की जिद और खुशी के लिए वह मान गई । शादी का खर्च , ऊपर से दस लाख नगद , जैसे - तैसे पिता ने व्यवस्था की ।
      शादी के बाद एक वर्ष वे खुशी - खुशी रहे जब तक किसी न किसी रस्म के बहाने कुछ न कुछ उपहार आते रहे ... उसके बाद  शिकायतों , माँगों का दौर  शुरू हो गया । सब कुछ होते हुए भी लोग इतने लोभी कैसे हो जाते है पता नहीं । थोड़ी सी बारिश जैसे धरती की प्यास को और बढ़ा देती है वैसे ही  सुमन के ससुराल वालों का लालच बढ़ रहा था । माता - पिता तो लोभी थे ही पर सुमन को पति  का साथ भी नहीं मिला । वह भी अपने मम्मी पापा के सुर में सुर मिलाता । ससुराल में कितनी भी तकलीफ मिले पर यदि पति का प्यार मिले तो स्त्री  हर तकलीफ  सह लेती है , पति साथ न दे तो वह कहाँ जाये , किसके सहारे जीवन व्यतीत करे ।बेचारी सुमन चुपचाप सब कुछ सहती रही ..उसकी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि असहाय पिता को उनकी माँगों  के बारे में बताये ...उनकी स्थिति से वह भली - भांति वाकिफ थी और यह भी जानती थी कि वे अपनी बेटी की खुशी के लिए अपना घर - बार भी बेच देंगे । तनाव बढ़ता जा रहा था ..अंत में उसने यह फैसला लिया ..उसके द्वारा पिता के घर से रुपये लाने से साफ इंकार करने पर तिलमिला गये थे वे...उसे छोड़ देने  और दूसरी शादी करने की धमकी तो वे कई बार दे चुके थे ...पर इतना बड़ा कदम उठा लेंगे , उसने यह नहीं सोचा था ।
     उस दिन सुमन तैयार होकर रसोई में खाना बना रही थी.. किसी काम से स्टोर रूम में गई थी कि  राजीव ने पीछे से आकर उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और उसे पीटने लगे ..उसकी माँ भी उसका साथ देने लगी ..अचानक उसके ससुर ने कनस्तर में रखा मिट्टी का तेल उसके  ऊपर उड़ेल दिया और राजीव ..अग्नि के समक्ष जिसने उसके साथ सात फेरे लिए थे , जिसका हाथ थाम वह अपने बाबुल का आँगन
छोड़ कर  आई थी , उसका पति परमेश्वर ....उसने माचिस की तीली जला कर उस पर उछाल दी...सुमन जो तेल की दो बूँद छिटकने से कई दिन तक कराहती थी , आज उस भीषण अग्नि की ज्वाला में घिरी हुई तड़प रही थी और  वे हँस रहे थे । उस दर्दनाक स्थिति में अपने माता - पिता को  याद करने के बाद उसने ईश्वर से यही प्रार्थना  की ...हे भगवान ...इन  पिशाचों को कड़ा दण्ड देना , इससे पहले कि फिर मेरे बाद कोई और लड़की इनके लालच की शिकार हो जाये ।
      सुमन के बेदम होकर गिर जाने के बाद उसके ससुराल वाले सभी घर  के बाहर आकर चिल्लाने लगे , रोने लगे कि हाय ...बेटी ये तूने क्या किया , तेरे मन में क्या था हमें कुछ तो बताती । पड़ोसी जमा हो गये , फायर ब्रिगेड को फोन किया गया । तुरंत फायर ब्रिगेड वाले आये ...अभी एक ही कमरे में आग लगी थी जो धीरे - धीरे फैल रही थी । फायर ब्रिगेड के दो व्यक्ति घर के अंदर जाकर वस्तुस्थिति  देखकर आये  और बाहर आकर पाइप फैलाने लगे तभी पिता - पुत्र को न जाने क्या सूझी कि वे अंदर घुसे शायद वे अपनी तसल्ली करना चाहते थे कि सच में सुमन मर गई है या नहीं ...उनके भीतर घुसते ही जोर का धमाका हुआ और दोनों के चिथड़े उड़ गए थे ...लोगों को कुछ समझ नहीं आया क्या हुआ क्योंकि पलक झपकते ही यह घटना घट चुकी थी...बाद में कारण मालूम हुआ कि जिस कमरे में आग लगी थी वहाँ गैस का सिलेंडर रखा हुआ था जो धीरे - धीरे गर्म हो रहा होगा और तभी फटा जब वे दोनों पिता - पुत्र अंदर घुसे ..उनके अलावा और किसी को भी कोई चोट नहीं आई ...हाँ , बाहर खड़ी राजीव की माँ  पागल हो गई थी  और अपनी शेष जिंदगी उसने पागलखाने में बिताई । उस ईश्वर ने सुमन की प्रार्थना सुन ली थी और अपना फैसला तुरंत सुना दिया था ।

स्वरचित -- डॉ . दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

बड़ी माँ ( कहानी )

       बड़ी माँ (कहानी )

             आयुष की बारात निकलने को थी और उसे बड़ी माँ कहीं नज़र नहीं आ रही थी । आज काफी देर से उसे बड़ी माँ की कमी महसूस हो रही थी । बड़ी माँ...जो हर वक्त उसके आस - पास ही रहती है.. उसकी जरूरत की सभी चीजें उसके बोलने से पहले ही उस तक पहुँच जाती थी.. कई बार आश्चर्य होता पता नहीं कैसे माँ उसके मन की बात समझ जाती है । एक निश्चिंतता सी मन में रहती थी कि कुछ भी हो बड़ी माँ सम्भाल लेगी और आज जब उसके जीवन का इतना महत्वपूर्ण क्षण है...उसे कई चीजें समय पर मिल नहीं रही थीं और बारात निकलने के पहले की जाने वाली रस्मों के लिये आरती की थाल लिये छोटी माँ खड़ी थी । शायद मुझसे कुछ छिपाया जा रहा है ..कुछ तो गड़बड़ है । उसने प्रश्नवाचक   नजरों  से छोटी माँ और वहाँ उपस्थित अन्य भाई - बहनों से पूछा था ...बड़ी माँ  कहाँ है ? ....न चाहते हुए भी उसे बड़ी माँ  के बेहोश होकर गिर जाने और बीमार पड़ जाने की बात बताई गई ।

     आयुष अपनी शेरवानी , सेहरा सम्भालते हुए लगभग दौड़ते हुए बड़ी माँ के कमरे की ओर भागा और बच्चे की तरह माँ से लिपट गया । बिस्तर पर लेटी बड़ी माँ  बहुत कमजोर लग रही थी मानों बरसों से बीमार हो । आयुष को सम्भालते हुए उसका हाथ थाम बड़े प्यार से बोली...क्यों घबराता है , मुझे कुछ नहीं हुआ है । वो तो तेरी शादी की तैयारियों में मैंने अपने खान - पान पर थोड़ा ध्यान नहीं दिया...बस इसीलिए बेहोश हो गई । बस थकान है , आराम करने से ठीक हो जाऊँगी । तू निश्चिन्ततापूर्वक , खुशी - खुशी जा और अपनी चाँद सी दुल्हन लेकर घर आ। आ...तेरा माथा चूम लूँ । बड़ी माँ के उस प्यार भरे स्पर्श ने उसे सदैव ही एक नई ऊष्मा प्रदान की है... हर परीक्षा के लिए जाते वक्त वह उनका आशीर्वाद लेना नहीं भूलता था...फिर आज उन्हें देखे बिना , उनके आशीर्वाद के बिना कैसे निकल जाता । रुँधे गले से बस इतना ही कह पाया...सारी रस्में तो आपको ही करनी होगी चाहे बिस्तर पर लेटकर ही सही ...और अपने बेटे के इस शिकवे पर निहाल हो माँ उसकी बलैया ले रही थी... अपने लाडले को काजल का दिठौना लगाया ...तिलक लगाकर आरती उतारी...उसके माथे पर आँचल फेरा और आशीषों की झड़ी लगा दी ।
          सारा समुदाय माँ - बेटे के इस अनोखे प्रेम को देखकर विस्मित था..क्या कोई कह सकता था कि इस माँ ने अपने पुत्र को नौ माह अपनी  कोख में नहीं रखा..
उसे जन्म नहीं दिया...माँ - बेटे के बीच गर्भनाल का सम्बंध न होने पर भी वात्सल्य भाव में कोई कमी नहीं आ सकती । कृष्ण और यशोदा का प्रेम शाश्वत है , माता यशोदा ने कृष्ण को जन्म नहीं दिया पर जब भी माँ - बेटे के प्रेम की बात होती है उन्हीं की मिसाल दी जाती है । बच्चे को जन्म देने से बढ़कर है अपने स्नेह व वात्सल्य से सींच कर उसका पालन - पोषण करना  । सच्चे प्रेम को अंकुरित होने के लिए निश्छल ,विशाल हृदय की धरा होनी चाहिए ...त्याग व समर्पण की भावना का सिंचन होना चाहिए... आज आयुष ने माँ को सम्मान देकर अपना फर्ज निभा दिया था.. पुत्र-प्रेम की गर्वीली मुस्कान ने उस बीमार माँ के चेहरे पर एक अनोखी आभा ला दी थी ।
     छोटी माँ  अर्थात अनुभा ...जिसने आयुष को जन्म दिया था... नम आँखों से माँ - बेटे के वात्सल्य को देख रही थी... मन का कोई कोना उपेक्षित भी महसूस कर रहा था पर इन सब के लिए वह स्वयं जिम्मेदार थी ।
        बड़ी माँ यानी कि राधा चौधरी परिवार की बड़ी बहू बनकर आई थी...आते ही  उसने सास - ससुर , तीन भाई और दो बहनों युक्त इस भरे - पूरे परिवार की सारी जिम्मेदारी संभाल ली । सास - ससुर की जी जान से सेवा की... देवर - ननदों की हर जरूरत का ख्याल रखा। देवर - ननद का विवाह किया...उनकी सारी रस्में बहुत मन लगाकर निभाया...लेन देन , स्वागत - सत्कार किसी भी चीज में कमी नहीं रखी । इतना अधिक दिया कि वे गदगद हो गए । ईश्वर की कृपा से चौधरी परिवार में सम्पत्ति की कमी नहीं थी परन्तु बाँटने के लिए सम्पत्ति के साथ - साथ उदारमना हृदय की आवश्यकता होती है और राधा की उदार प्रवृत्ति ने सारे रिश्तों को स्नेह के धागों में कसकर बाँध दिया था..इतना अधिक कि आत्मनिर्भर होने के बाद भी कभी देवरों ने अलग रहने के बारे में सोचा ही नहीं ।देवरानियों को शुरुआत में जेठानी की सर्वाधिक पूछ - परख खली..परन्तु उनकी बीमारी हो या बच्चों का जन्म ,  उनकी देखभाल ..हर जगह बड़ी माँ समर्पित भाव से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही ...समय के साथ उन्होंने भी अपनी जेठानी के सोने से खरे हृदय की पहचान कर ली और उन्हीं की होकर रह गई ।
               राधा के जीवन में बस एक ही कमी थी
उन्हें सन्तान सुख न मिल पाया..जिसके दिल में वात्सल्य का समन्दर लहरा रहा था ...उसकी गोद अभी तक सूनी थी । अपनी सारी ममता अडोस - पड़ोस , देवर के बच्चों पर लुटाती राधा कई बार बहुत ही अकेलापन महसूस करती । अपने पति व सास - ससुर की उदासी उनसे देखी नहीं गई और वह अपने पति योगराज चौधरी से दूसरा विवाह कर लेने की जिद करने लगी । पति के जीवन की यह कमी दूर करने के लिए वह सारी तकलीफें झेलने को तैयार थीं..यहाँ तक कि अपने पति का प्यार बाँटने को भी..परन्तु योगराज चौधरी इसके लिए तैयार नहीं थे । वह राधा के जीवन में कोई तूफान नहीं लाना चाहते थे न ही घर की सुख - शांति भंग करना चाहते थे । अब इस उम्र में क्या विवाह करना..फिर घर में भाइयों के बच्चे तो हैं ना ..पर सेवाभावी राधा की उत्कट इच्छा ने उन्हें मजबूर कर दिया और अनुभा दूसरी पत्नी के रूप में उनके जीवन में आ गई । स्त्री का हृदय इतना गहरा , इतना विशाल होता है कि दर्द के छोटे - मोटे पत्थर उसके जल को मटमैला नहीं कर सकते । पति के सुख के लिए राधा ने अपने प्यार का बंटवारा किया , अधिकारों का समर्पण किया और सामंजस्य का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए खुले दिल से अपनी गृहस्थी में अनुभा का स्वागत किया । उसने अकेलेपन का दंश झेलते हुए भी दर्द की एक लकीर अपने चेहरे पर नहीं आने दिया और वैसे ही हँसती हुई अपने दायित्वों का निर्वहन करती रही । जहाँ निःस्वार्थ सेवा , आत्मसमर्पण होता है वहाँ असन्तोष के लिए कोई स्थान नहीं रहता है । उनके बीच कोई तनाव नहीं , कोई उलझन नहीं..किसी बाहरी व्यक्ति को तो पता ही नहीं चलता कि योगराज की दो पत्नियाँ हैं।
       शीघ्र ही अनुभा दो बेटों की माँ बन गई..वह एक छोटे परिवार से आई थी जहाँ उसने सुख - वैभव देखा ही नहीं था...इस वैभवशाली , सम्पन्न परिवार को उत्तराधिकारी प्रदान कर वह अपने आपको श्रेष्ठ मानने लगी थी  और  इस अहंकार में राधा की उपेक्षा करने लगी थी ...परन्तु वह यह भूल गई कि उसे यहाँ लाने वाली राधा ही थी । हाँ , उसकी जिम्मेदारी को कभी उसने बाँटने का प्रयास भी नहीं किया.. वह जीवन के सुखों का उपभोग करना चाहती थी..अपने विश्राम में उसके अपने बच्चे बाधा बन जाते तो उनकी देखभाल में भी लापरवाही बरतने लगी...राधा ने उसकी यह जिम्मेदारी भी खुशी से अपना लिया...उसने देवर के बच्चों को खूब प्यार दिया फिर ये तो उसके अपने पति के बच्चे थे ...बच्चों की परवरिश के लिए उसने अपने आपको समर्पित कर दिया.. बच्चे दिन भर उसी के साथ रहते.. दिन भर बड़ी माँ की ही पुकार लगती रहती..,पढ़ने की , खाने की..उनकी कोई भी जरूरत होती तो उसका इंतजाम बड़ी माँ ही करती
बड़ी माँ के प्यार ने बच्चों को यह भुला दिया कि उन्होंने उनकी कोख से जन्म नहीं लिया है । राधा ने बच्चों को अच्छे संस्कार , अच्छी शिक्षा प्रदान की थी..उनके व्यवहार में राधा का संस्कार झलकता था...जब कोई बच्चों के व्यवहार की तारीफ करता कि ये तो अपनी बड़ी माँ पर गए हैं.. राधा को लगता ..उसकी परवरिश सार्थक हो गई । अनुभा के बेटों वाली होने के अहंकार को पूरे परिवार , रिश्तेदारों ने नकार दिया और उसकी महत्ता पाने के हर तर्क को खारिज कर दिया... जिस स्थान को राधा ने अपने मधुर व्यवहार , अपनी सेवा ,त्याग , समर्पण से प्राप्त किया था..उसे महज बेटों को जन्म देने के कारण अनुभा कैसे प्राप्त कर सकती थी पर हाँ.. राधा का भरपूर स्नेह उसे अवश्य मिला ।क्योंकि उसकी वजह से राधा  को बच्चों का निश्छल प्रेम मिला था और वह सचमुच में माँ बन गई थी , उन्हें  बिना  जन्म दिए...वह  सन्तानहीन नहीं  थी ...वह थी ममता से भरी...प्यारी माँ और निर्विरोध सबने इसे स्वीकार कर लिया था । 

         खुशी-खुशी बेटे की बारात को विदा करने के लिए ही मानो राधा के प्राण अटके हुए थे। मांगलिक कार्य में विघ्न न हो यह सोचकर एक दृढ़प्रतिज्ञ माँ यम से रार ठाने बैठी थी । अपनी झोली में जीवन भर अर्जित किया मान-सम्मान, बड़ों का स्नेह, बच्चों का लाड़-दुलार, पति का प्यार भरकर राधा अंतिम सफर पर चल पड़ी थी.. पीछे छोड़ गई रोता-बिलखता परिवार और अपनी कर्मनिष्ठ व अच्छाई का उजाला।
*****

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे 

दुर्ग  , छत्तीसगढ़

Saturday, 17 March 2018

नवा बिहान होगे

जम्मो झन सहर भगागे ,
गांव  ह सुनसान होगे  ,
इहचो नवा बिहान होगे  ।।
गाय गरू  ह नन्दागे ,
खेत - खार बेचागे  ,
बिपत म किसान होगे ।।
इहचो नवा बिहान होगे ।।
धुर्रा अउ धुनगिया  ह ,
जम्मो डहर पोतागे  ,
मनखे ह  हलाकान होगे ।।
इहचो नवा बिहान होगे ।।
गाड़ी के भरर भरर ,
डीजे बजइ हर सान होगे  ,
जम्मो झन  के कान बोजागे  ।।
इहचो नवा बिहान होगे ।।
अपने अपन हाँसथ हे ,
संगी साथी ला भुलागे  ,
मोबाईल हर भगवान होगे ।
इहचो नवा बिहान होगे ।।
मिठलबरा बन के ,
अपने  सगा  ल ठगे
काबर तैं बइमान होगे ।।
इहचो नवा बिहान होगे ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

थोथा चना बाजे घना ( लघु कथा )

        अरुणिमा की कॉलोनी में दो  नये परिवार  शिफ्ट हुए थे । नये वर्ष की पार्टी में परिचय हुआ था उनसे ..
निमिषा बहुत ही चंचल और बातूनी थी , जल्दी ही सबसे घुलमिल गई ...एक दो मुलाकात में ही सबको अपने रुतबे , ऊँचे खानदान के किस्से  , धन - सम्पत्ति के ब्यौरे दे डाली । उसकी साड़ियों , आभूषणों  का कलेक्शन  चर्चा का विषय बन गया था ...परन्तु दूसरी
रीमा शांत स्वभाव की  पर आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी । उसने कभी अपने बारे में कुछ विशेष नहीं
कहा..कभी - कभार मिलने पर सामान्य बातें ही होती
वह अपने घर और नौकरी में व्यस्त रहती । उसमें 
कॉलोनी की औरतों को प्रभावित करने वाली कोई बात नहीं थी ।
     कुछ  समय बाद अरुणिमा की सास को दिल का दौरा पड़ा तो रीमा ने उसकी बहुत मदद की ..अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उसका साथ दिया तथा जब वह अस्पताल में रही तो बच्चों के खाने की व्यवस्था भी
की ....जबकि बड़े बोल बोलने वाली निमिषा कहीं नहीं थी ।  विपरीत परिस्थितियाँ ही हमें व्यक्ति की सही पहचान कराती हैं .. अच्छे लोग अपने बारे में नहीं बोलते ,उनके काम बोलते हैं... अरुणिमा सोच रही थी...इसीलिए कहा गया है थोथा चना बाजे घना ।

  स्वरचित  -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
       

Tuesday, 6 March 2018

जवाब दो ना

क्यों मार देते हो मुझे ,
कोख के भीतर ही...
दुनिया में क्या नहीं है ,
मेरे लिए एक कोना...
जवाब दो ना...।

क्या है अपराध मेरा ,
कुचल देते हो मेरा बचपन...
कुछ पाने से पहले ही ,
पड़ता है मुझको  खोना....
जवाब दो ना....।

अल्हड़ सा मेरा यौवन ,
अभी ही देखा था एक सपना...
पा न सका पागल प्रेमी ,
रूप - रंग मेरा क्यों छीना.....
जवाब दो ना....।

अग्नि के समक्ष लिए थे फेरे ,
किया था तुमने वादा...
क्यों भूल गये उन्हें तुम ,
घूँट जुदाई का पड़ा पीना....
जवाब दो ना....।

सींचा था अपने लहू से ,
ममता  से तुझको पाला...
माता को क्यों तू भूला ,
बातों से छलनी किया मेरा सीना...
जवाब दो ना...।

उंगली थामकर  तेरी ,
चलना मैंने सिखाया...
आज कदम मेरे लड़खड़ाये ,
पर साथ खड़ा तू कहीं ना...
जवाब दो ना....।।

स्वरचित  -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

मया दया ( लघुकथा )

थोरकिन घुचबे का बेटा..बस म चढ़ के एक झिन डोकरी दाई ह सीट म बइठे टुरा ल किहिस । ओ हा मुंह ल इति ओती करे लागिस फेर ओला जगहा नइ दिस..बपुरी दाई हर  ..सियान  सरीर , तेमा जर ले उठे राहय खड़े नई होय सकिस ..सीट के बीच म भुइया म बइठ गे । दुसर गांव म बस ह रुकिस त अब्बड़ खबसूरत मोटियारी टूरी हर चढिस... ए ददा , दु तीन झन टुरा मन खड़े होगे.. तै एमेर बइठ जा किहि के । डोकरी दाई ल अब्बड़ रिस लागिस..बखानहु कहिते रिहिस के ..ओ नोनी हर ओखर हाथ ल धर के ओला उठाइस अउ एक ठन सीट म बइठार दिस । जुग - जुग जी नोनी ...कइके अब्बड़ असीस दिस ओला अउ  ओ
टुरा  कती निहार के किहिस  , एखरे आय के अगोरा म
बइठे रहे का बाबू .. डोकरी  बर तोर मन म मया दया न इ आइस ...मया दया ह तको आदमी देख देख के आथे ...छोकरी ल देखके आइस ..ले कहिं नइ होय , कोनो ल होय  अपन सीट ल त देय ...तहूं जियत रही बेटा ...ओ टुरा हर  लाज के मारे   अपन  आँखि ल नई उठाय सकिस ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

प्राइस टैग ( लघुकथा )

शर्मा आंटी आज जमीन पर लेटी हुई थी ...लाखों की सम्पत्ति होते हुए भी...महंगे कारपेट्स , नक्काशीदार पलंग ...वास्तुकला की  बेजोड़ कलाकृतियाँ ...जिन पर
वह अभिमान करती रहीं जिंदगी भर ... मृत्यु के बाद इनका क्या मोल  ? इंसान का मोल समझा नहीं कभी उन्होंने ।
   उनसे किसी भी चीज के बारे में बात करने पर उसका अंत उस वस्तु की कीमत पर ही होता था । सस्ती चीजें लेने वालों को बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखती थी वो ...और अपनी हर चीज का प्राइस बताना नहीं भूलती थी ।
    अधिकांश लोग कन्नी काटने लगे थे उनसे ...सामने पड़ने से बचते थे ताकि उनके सामने  न पड़कर अपने - आपको अपमानित होने से बचा लें । सब चीजों के प्राइस टैग देखती रहीं ...काश जिंदगी का प्राइस टैग भी देख लेतीं ...। जब कुछ यहीं छोड़कर जाना है तो अहंकार किस बात का । बहुमूल्य जीवन के आगे भौतिक वस्तुओं की क्या कीमत ?

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 5 March 2018

आगे हे मड़ई तिहार

आगे  हे मड़ई तिहार

माघी पुन्नी ह आगे ,
दुरिहा होगे मुंधियार ।
सगा मन  जम्मो जुरियागे ,
आगे हे मड़ई तिहार ।
किसिम किसिम के खाई खाबो ,
रहिचुली , झूला के मन्जा उडाबो ।
ओनहा पहिरबो आनी बानी ,
बरा सोंहारी सब्बो ल खवाबो ।
नाचा के घलो परे हे गोहार ।।
आगे हे मड़ई तिहार ।।
घरों घर आहि पहुना ,
फूफू , बहिनी , भाटो हि ,
लीपाय पोताय अंगना  ,
दवारि म चउक पुराही  ।
करहु सबला जोहार ।।
आगे हे मड़ई तिहार ।।
हमन्  हन चिक्कन खवइया ,
जिमीकांदा , इडहर ममहाही ।
ठेठरी खुरमी  खाजा पीडिया ,
बबरा अनरसा दाई बनाही ।
लाई बरी पापड़ अउ अचार ।।
आगे हे मड़ई तिहार ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 4 March 2018

सपने ....ख्वाहिशें

अक्सर गहरी नींद में  ,
मुझे आते हैं मीठे सपने ...
खूबसूरत वादियों में ,
अपने हाथों को पसारे ...
बटोर रही हूँ मैं ,
रुई से हल्के बर्फ के फाहे ..
भिगो रहे हैं मेरे गालों को ,
बादलों के  अनजान साये...
देखती हूँ एक भव्य महल ,
जिसकी नक्काशीदार खिड़कियों से...
झाँकती हूँ मैं सजी - धजी ,
गोटेदार लहंगे में....
मेरे आँगन में उतरे हैं ,
चाँद और सितारे...
रवि की रश्मियाँ ,
दौड़कर घर मेरा बुहारे...
तितलियों ने सजाये हैं ,
दालान और दीवारें...
उपवन ने बिछा दी है ,
फूलों की रंगीन चादरें....
इठलाती  बलखाती नदी ,
चली आती है  किनारे....
साथ - साथ चलने को ,
बाहें खोल पुकारे ...
आसमान तकते हरसिंगार ,
मुझ पर फूल बरसाते...
सौरभ ये भीने से ,
फिजां में घोल मुस्कुराते....
आलिंगन को आतुर धरा ,
मेघ को बाहें खोल बुलाये ....
मिट्टी की सोंधी गन्ध ,
नस - नस में बस जाये ....
सपने नहीं ख्वाहिशें मन की ,
नींदों में जो सताये ..
दिल ने वो महसूस किया ,
जो देख न पाती निगाहें....

स्वरचित --डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

प्रकृति के उपहार

प्रकृति ने दिये कई अनमोल उपहार ,
ताकि जीवन का मूल्य समझ सकें हम ।
खूबसूरत हरी - भरी  वादियों को देख ,
अनुपम  आभा रुचिर बटोर लें हम ।
उषाकाल में पंछियों की कलरव सुन ,
खुशियों  को महसूस करना सीख लें हम ।
खिलखिलाते फूलों  की क्यारियों  से ,
होठों पे मुस्कुराहट संजो लें हम ।
स्वच्छंद  , विस्तृत व्योम को निहार के ,
मन के परिंदे को उड़ान दे सकें हम ।
नदियों के कल कल प्रवाह को छूकर ,
जीवन की तरलता को महसूस करें हम ।
भानु की उष्णता को अंगीकार कर ,
व्यक्तित्व की प्रखरता को बढ़ाएं हम ।
अनिल की बहाव  के संग - संग चल ,
जीवन के उतार - चढ़ाव को पार करें हम ।
शशि की  शीतलता  को अंजुरी में भर ,
तन की अतृप्त प्यास दूर करें हम ।
वसुंधरा के गर्भ में छिपे रत्नों की तरह ,
सद्गुणों को आत्मसात कर लें हम ।
ईश्वर प्रदत्त इन अमूल्य उपहारों को ,
भविष्य के लिए सहेजते चले हम ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग  , छत्तीसगढ़🌲🌲