देह को उम्र की मर्यादाएँ निभाने दो...
दिल को बचपन की गलियों में खो जाने दो ।
दौड़ - भाग तो रोज करते ही हो...
किसी दिन नींद की आगोश में सो जाने दो ।
जिम्मेदारियाँ सदा निभानी तो हैं...
एकाध दिन बेलौस ,बेपरवाह हो जाने दो ।
छतरी लेकर तो रोज निकलते हो...
किसी दिन बारिशों में खुद को भीग जाने दो ।
दूसरों को सदा खुश करते आये...
किसी दिन स्वयं को भी मुस्कुराने दो ।
तमन्नाएं पूरी करने में बिता दी उम्र...
कुछ शिकायतें करने के भी बहाने दो ।
हरदम निगाहें बन्द कर मत रखो...
उन्हें भी खुशियों के कुछ पल चुराने दो ।
सुनते रहे सदा दूसरों के मन की...
चलो जरा मन को अपनी सुनाने दो ।
बन्दिशों में बाँधकर रखो न खुद को...
खुलकर होठों को गीत गुनगुनाने दो ।
कब से आकर ठहरी है मुस्कान...
चलो आज उसे फिर खिलखिलाने दो ।
भूल भी जाओ दुनिया के रस्मो- रिवाज..
एक दिन तो खुद को खुद में समाने दो ।
वक्त की शाख से टूट गये जो लम्हें ...
कभी उन्हें मुट्ठी में भर लाने दो ।
कई जख्म पुराने जो खुले छोड़ रखे...
चलो , भूलकर उन्हें प्यार से भर जाने दो ।
परखना सीख लिया तुमने लोगों को...
अब खुद की खुद से पहचान कराने दो ।
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ 😝
No comments:
Post a Comment