अक्सर गहरी नींद में ,
मुझे आते हैं मीठे सपने ...
खूबसूरत वादियों में ,
अपने हाथों को पसारे ...
बटोर रही हूँ मैं ,
रुई से हल्के बर्फ के फाहे ..
भिगो रहे हैं मेरे गालों को ,
बादलों के अनजान साये...
देखती हूँ एक भव्य महल ,
जिसकी नक्काशीदार खिड़कियों से...
झाँकती हूँ मैं सजी - धजी ,
गोटेदार लहंगे में....
मेरे आँगन में उतरे हैं ,
चाँद और सितारे...
रवि की रश्मियाँ ,
दौड़कर घर मेरा बुहारे...
तितलियों ने सजाये हैं ,
दालान और दीवारें...
उपवन ने बिछा दी है ,
फूलों की रंगीन चादरें....
इठलाती बलखाती नदी ,
चली आती है किनारे....
साथ - साथ चलने को ,
बाहें खोल पुकारे ...
आसमान तकते हरसिंगार ,
मुझ पर फूल बरसाते...
सौरभ ये भीने से ,
फिजां में घोल मुस्कुराते....
आलिंगन को आतुर धरा ,
मेघ को बाहें खोल बुलाये ....
मिट्टी की सोंधी गन्ध ,
नस - नस में बस जाये ....
सपने नहीं ख्वाहिशें मन की ,
नींदों में जो सताये ..
दिल ने वो महसूस किया ,
जो देख न पाती निगाहें....
स्वरचित --डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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