Thursday, 28 June 2018

एक अनोखा पत्र ( संस्मरण )

जिंदगी कई बार ऐसे अनुभव दे जाती है कि इसे सलाम करने को दिल करता है । कहानियाँ लिखने का  सबसे बड़ा इनाम है पाठकों की प्रतिक्रिया ...जो कुछ बेहतर लिखने की प्रेरणा तो देती ही है... मन को एक नई ऊर्जा
व उत्साह से लबरेज कर देती है । आज से कई वर्षों पहले की बात है... तब  फोन का उतना प्रचलन नहीं था..पत्रों के द्वारा पाठकों की प्रतिक्रिया मिलती थी । मेरी रचनाएँ दैनिक भास्कर , नवभारत व नई  दुनिया आदि समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थी और उन्हें पढ़कर कई पाठक पत्र भी लिखते थे । एक बार मुझे एक पत्र मिला जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया ...पत्र के आड़े- टेढ़े शब्दों में उन्होंने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया था जो इस प्रकार था...दीक्षा जी , मैं अपने जीवन से त्रस्त था..मन में ख्याल आ रहे थे कि अपने जीवन का अंत कर लूँ.... किराना दुकान से गुड़ लेकर आ रहा था... उसी अखबार के टुकड़े में आपकी लघुकथा पढ़ी जिसने  मेरा नजरिया बदल दिया.. मेरे मन में  संघर्ष करने व जीवन  जीने  का उत्साह पैदा हुआ  और मैंने मरने का इरादा छोड़ दिया... आपका बहुत - बहुत धन्यवाद... यूँ ही लिखते रहें और लोगों के जीवन में उजाला फैलाते रहें ।
      इस पत्र ने मेरा लिखना सार्थक कर दिया...साथ ही मेरे मन को ढेर सारी खुशियों और  उत्साह से भर दिया
मेरी लेखनी का अपार उत्साहवर्धन किया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 26 June 2018

खामोश निगाहें ( लघुकथा )


    लोगों की भीड़ कौतूहल भरी नजरों से  उस  किशोर को देख रही थी जिसने अपने पिता को मार डाला था । माँ उसकी हथेली थामकर बैठी थी मानो उसकी पीड़ा  खींच रही हो अपने भीतर...एक बारह वर्ष के बच्चे के मन में इतना आक्रोश क्योंकर आया कि उसने अपने पिता को मार डाला  , हर व्यक्ति के मन में यही सवाल उठ रहा  था पर नदी की गहराई की तरह वह बिल्कुल शांत था मानो उसने कुछ भी गलत नहीं किया ...वह पुलिस के आने का इंतजार कर रहा था... बस खामोश निगाहों से कभी आँगन में पड़ी पिता की लाश को देखता कभी अपनी माँ की ओर...... माँ की कमाई पर पलने वाला नाली का कीड़ा...उसका मर जाना ही सही था...उसके न रहने पर माँ सुखी  तो रहेगी... झाड़ू - पोंछा करने वाली उसकी माँ की कमाई उसे कम पड़ रही थी और वह उसे देह - व्यवसाय के लिए मजबूर  कर रहा था..बेटे से यह सब देखा नहीं गया था ....जेल में रहकर भी वह निश्चिन्त तो रहेगा । अब उसके होठों पर मुस्कुराहट थी...और निगाहों में चमक...माँ ने उन खामोश निगाहों की भाषा पढ़ ली थी  ।

स्वरचित -- डॉ.  दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

आँचल ( लघुकथा )


पूरा मोहल्ला उसे बिलखते देख रहा था... राधा के पति एक लंबी बीमारी के बाद चल बसे थे....दो छोटे बच्चों की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई थी । न माँ - पिता  , न कोई रिश्तेदार.... असहाय महसूस कर रही थी वह अपने - आपको । कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह अब क्या करेगी , कैसे पालेगी बच्चों को... सोलह बरस में शादी हो गई थी , आठवीं पास को काम भी क्या मिलेगा... मजदूरी  या कहीं झाड़ू - पोंछा ही करना पड़ेगा । लोगों ने मिलकर उसके पति का क्रियाकर्म कर दिया  पर जीवितों का पेट भरने के लिए सब दुःख भूलकर उसे कर्म करना पड़ेगा ।वह निकल पड़ी थी दोनों बच्चों को लेकर ...आसमान में काले मेघ छाये थे...मुसीबतों की तरह बूंदें भी बरसने लगी थीं..बच्चों के सिर पर अपनी साड़ी  का  आँचल तान दिया था उसने....ममता की यह छाँव सभी बारिशों पर भारी थी ।
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 16 June 2018

कच्ची दीवार ( लघुकथा )

     आप मुझसे इस तरह कैसे बात कर सकती हैं.. मै  आपके घर की नौकर नहीं हूँ - सुधा सिंह ने उस दिन प्राचार्य को फटकार दिया था । वे थे भी ऐसे , बहुत  रूखे स्वभाव के..किसी तानाशाह से कम नहीं था उनका व्यवहार । उस दिन सुधा के तेवर देखकर  चुप हो गए थे... उस दिन के बाद जो थोड़े तेज स्वभाव के थे , उनसे कम काम  लेने लगे थे । पर जो सीधे , सरल थे उन्हें अधिक परेशान करते ...विशेषकर सीमा को क्योंकि वह वो सारे काम चुपचाप कर देती जो वे बोलते । सीमा कभी किसी काम के लिए मना नहीं कर पाती थी भले ही उसे घर में कितने भी  काम होते । अपने इस स्वभाव के कारण वह बहुत परेशान होती थी  पर क्या करे उन्हे नाराज करने पर वे  और पीछे पड़ जाते और उसके हर काम में कमी ढूँढते.. इस डर के कारण  वह कभी विरोध नहीं कर पाती थी । सच  ही तो है ईंट की आवश्यकता होने पर लोग कच्ची दीवार ही ढूँढते हैं... पक्की दीवार से ईंट खींचने की हिम्मत किसको होती है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

बूमरेंग ( लघुकथा )


अर्णव  को समझ नहीं आ रहा था पत्नी की इन शिकायतों पर वह क्या प्रतिक्रिया दे...ऊपर से कुछ कह नहीं पा रहा था पर अंदर से वह बहुत प्रसन्न था क्योंकि रजनी आज अपना बोया ही काट रही थी ।
       दरअसल रजनी  को अपनी भाभी का दिया हुआ तोहफा पसन्द नहीं आया था  जो उन्होंने अपने बेटे के जन्म  पर नेग के रूप में दिया था । यह वही  मंगलसूत्र था जो उसने अपनी ननद को दिया था और उसने उसे न पहनकर उसके भाई की शादी में भाभी को उपहार दे दिया था । जो चीज उसने  किसी को दिया था वही लेने में उसे आज कितनी तकलीफ हो रही थी...कई बार अपना किया ही बूमरेंग की तरह अपने पास आ जाता है ।
स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 12 June 2018

यादों की बारिश ( लघुकथा )

एक तो इतनी गर्मी...ऊपर से ढेर सारी रोटियाँ बनाते -बनाते  थक गई थी उमा...पसीने से पूरा शरीर भीग गया था..ऐसे ही समय संयुक्त परिवार में रहना अखरता था उसे...काम , काम और काम...दूसरे मौसम में यह सब नहीं अखरता था पर ये उमस भरी गर्मी..उफ़्फ़
      खाना बना कर निकली ही थी कि सासूमाँ ने आवाज लगा दी..बेटा खाना बन गया हो तो अपने पापा को बुलाकर दे दो..उन्हें जल्दी सोना होता है न..सुबह इतनी जल्दी क्यों उठ जाते हैं पता नहीं , अब तो कुछ काम  नहीं पर आदत का क्या करें । तब तक देवरानी भी आ गई मदद के लिए और उसने खाना परोसने में मदद की । दरअसल अभी उसकी परीक्षा चल रही है इसलिए दोनों वक्त का खाना उमा के जिम्मे आ गया था...नहीं तो दोनों मिलजुलकर काम निपटा लेते हैं । गर्मी से बेहाल उमा को नहाने की इच्छा हो रही थी..देवरानी ने उसकी हालत समझ ली थी..मैं रसोई समेट लूँगी , आप जाइये...देखिये भैया बाहर टहल रहे हैं.. लगता है इंतजार हो रहा है । हुँह.. तू सुधरेगी नहीं..बच्चे बड़े हो गए , अब क्या रोमांस । ऐसा नहीं है दीदी..मैं सब जानती हूँ.. अभी भी बहुत मस्ती होती है - देवरानी आज उसे छेड़ने पर तुली हुई थी । हे भगवान...तो मेरी जासूसी की जा रही है  ..तुझे तो मैं देख लूँगी... बनावटी गुस्से के साथ उमा ने देवरानी को झिड़का...कमरे तक आते - आते मौसम बदल चुका था..उसे पसीने से सराबोर देख पतिदेव बोले...बहुत गर्मी है चलो छत पर टहल आते हैं... सीढ़ी चढ़ते वक्त हाथ थाम लिया था उन्होंने...और शादी के इतने वर्षों बाद भी लजा गई थी उमा...आसमान में छाये काले मेघ भी शरारत के मूड में आ गए थे और अपनी बड़ी - बड़ी बूंदों से  उसके गालों का स्पर्श कर लिया था ...लजीली नायिका  मधुर स्मृतियों   की गलियारों में निकल पड़ी थी जहाँ अपने  प्रियतम का हाथ थामे वह कई खूबसूरत मोड़ पार कर रही थी... उनके प्यार के रंगों में सराबोर हो रही थी..अतीत के बादल उमड़ -घुमड़ रहे थे... और वह यादों की  बारिश की फुहार में भीग  गई थी ।
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स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 8 June 2018

कॉलेज के दिनों की यादें (संस्मरण )

कॉलेज के दिनों की यादें
    वाह... कितने मधुर पल...उत्साह ...उमंगों से लबरेज यौवन ..कल्पनाओं को वर्तमान में साकार करने की जिजीविषा लिये कॉलेज की दहलीज पर खड़ी थी मैं । इसी जीवन में सब कुछ पा लेने की कोशिश..खुशियों की तलाश में अरमानों के पर फैलाये उड़ती थी चाहतें..कितनी मजेदार होती हैं ये स्मृतियाँ.. जब भी स्मरण करो गुदगुदा जाती हैं मन को और चाहे कहीं भी रहें एक छोटी सी मुस्कान दे जाती हैं होठों को..
      बात उन दिनों की है जब मैं पी. जी. बी. टी. कॉलेज बिलासपुर में बी.एड. की पढ़ाई कर रही थी । मैं अपने मामाजी के घर पर रहकर पढ़ रही थी...मैं कॉलेज की छात्रा प्रतिनिधि थी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व की थी तो मुझे सभी शिक्षक ,  छात्र जानते थे । मैं लगभग सभी गतिविधियों में भाग लिया करती थी । उसी समय दिसम्बर में मेरे पापा ने दुर्ग में मेरा विवाह प्रस्ताव दिया था । संयोग से मेरी होने वाली जेठानी का मायका बिलासपुर था और वे वहाँ आई हुई थी और मेरे एक होने वाले ननदोई जो व्याख्याता थे विभाग की तरफ से बी. एड. कर रहे थे । वे मुझे देखने कॉलेज आये और मेरे ननदोई की सहायता से सीधे मेरे पास आये और विनीता गुप्ता के बारे में पूछा । वह दूसरे सेक्शन में थी तो मैंने कहा कि मैं देखकर आती हूँ... मैं उसे बुलाने गई तो उसकी कक्षा छूटी नहीं थी...मैंने वापस आकर उन्हें बताया कि अभी उसकी क्लास लगी हुई है । मुझे धन्यवाद देकर वे चले गए...शाम को हम सबकी अटेंडेंस एक साथ हाल में होती थी ..मैंने विनीता को देखते ही कहा- अरे ! तुझसे कोई मिलने आये थे । वह हँसते हुए बोली वे मुझसे नहीं  , तुझसे ही मिलने आये थे... वो मेरी फ्रेंड की दीदी हैं और दुर्ग में रहती हैं । ओह... मैं तो शॉक्ड थी...ऐसे भी कोई देखने आता है.. कॉलेज की यूनिफॉर्म सफेद  साड़ी में.. अगले दिन मुझे पापा का मैसेज मिला उन्होंने आने वाले रविवार को मुझे घर बुलाया था । उस दिन दुर्ग से सभी आये थे और मुझे अँगूठी पहनाकर चले गए जिनसे मेरी शादी होनेवाली थी उनको छोड़कर । मैंने तो उनकी तस्वीर भी नहीं देखी थी । जनवरी में मेरी शादी तय हो गई थी ...यह जो  अंतराल था इसमें मेरी इतनी खिंचाई हुई कि मत पूछो । कॉलेज की एक मेडम को मेरे ननदोई ने बता दिया था और उन्होंने बाकी सभी शिक्षकों को.. इधर मेरे सभी क्लासमेट्स को शादी के बारे में पता चल चुका था... मेरी हर गतिविधि में कमेंट्स आते ...मन नहीं लग रहा न पढ़ाई में.. मेरे दोस्त उल्टी गिनती गिनाते कि अब दस दिन बचे..अब नौ..एक दिन मैं अटेंडेंस के समय यस बोलना भूल गई तो सबसे अंत में खड़ी होकर सर से अटेंडेंस लगाने को कहा...वे पहले मुस्कुराने लगे फिर बोले..ध्यान दुर्ग में था क्या...बाप रे ! मैं तो शर्म के मारे लाल हो गई । मेरे भावी पति ने मुझे देखा नहीं था..जब वे
शादी का कार्ड बाँटने बिलासपुर आये तो मुझसे मिलने आये...कॉलेज में क्रीड़ा प्रतियोगिता हो रही थी... मैं लम्बी कूद का अभ्यास कर रही थी... कपड़ों में , हाथ - पैरों में धूल लगा हुआ था... किसी ने मुझसे कहा दीक्षा तुझसे कोई मिलने आया है...बाहर जाने पर उनके एक दोस्त जो साथ आये थे उन्होंने कहा..ये समीर है और मैं इसका दोस्त राजेंद्र । मुझे समझ में नहीं आ रहा था क्या कहूँ...पहली बार अपने भावी पति को देख रही थी और इस हाल में...अभी क्या कुछ क्लास है...नहीं लम्बी कूद की प्रैक्टिस कर रही थी... थोड़ा सकुचाते हुए मैंने कहा पता नहीं क्या सोच रहे होंगे । चलिये ...सामने से चाय पीकर आते हैं उनके दोस्त ने कहा था और जब मैं अपना बैग लेने गई तो मेरे बदमाश दोस्तों ने बिना बताए ही समझ लिया कि ये मुझसे मिलने आये हैं...बस फिर क्या था मैं और मेरे दस - पन्द्रह दोस्त उनके साथ चाय पीने गये ...मेरे पति देव ने उन सबको जो खाना चाहे ऑर्डर कर लीजिए कहकर खुश कर दिया और शायद उनकी इसी सरलता से प्रसन्न होकर उन्होंने चाय पीकर ही हमें छोड़ दिया...जाते- जाते कान में फुसफुसाते गये ...क्या बात हुई आकर बताना । दोस्त ऐसे ही होते हैं आपकी खुशी - गम सबमें बिना बुलाये शामिल हो जाते हैं और यादों का हिस्सा बन जाते हैं । अब सोचती हूँ तो महसूस करती हूँ उनकी छेड़छाड़ , हँसी - मजाक के बिना वे पल क्या इतने मधुर होते ? कॉलेज लाइफ की बहुत सारी यादें हैं पर ये मेरे लिए सबसे खूबसूरत हैं क्योंकि आज भी उन बातों को याद करके मेरी हँसी छूट जाती है ।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 6 June 2018

लम्हे वक्त के

लम्हे वक्त के सरकने लगे हैं ,
मद्धिम पड़ रही दीये की लौ...
साँसों के मोती चटखने लगे हैं ।
संकुचित हो  रहे अपनों के दायरे .
स्नेह के तार टूटते जा रहे...
रिश्तों के  बाने  दरकने लगे हैं ।
फासले आ गये लोगों के दरमियाँ...
दौलत ने बढ़ा दी दिलों की दूरियाँ ,
वो  वादों से अपने पलटने लगे हैं
फैलने लगे  हैं हसरतों के पर..
स्वहित हो गया सबसे ऊपर ,
सोच के दायरे सिमटने लगे हैं ।

स्वरचित  --
                   डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

किस्से सुखीराम के भाग 6

  सुखीराम जी  की मुलाकात  उनके एक पुराने मित्र आशीष से  हुई...सामान्य हालचाल पूछने के बाद मित्र महोदय ने उन्हें अपनी एक समस्या बताई ..कि उनका बेटा बहुत बदतमीजी  से बात करता है... वह  हमारी बात सुनता ही नहीं ..वह बिफर पड़े थे , माँ- बाप को तो कुछ समझते ही नहीं ये बच्चे.. मानो  हमें कुछ आता ही नहीं.. और ये जो इतनी सुख - सुविधाओं में पल रहे है ये इन्हें ऐसे ही मिल गया । माता - पिता अपनी इच्छाओं को मारकर अपने बच्चों की सारी माँगे पूरी करते हैं... उनके पालन - पोषण को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं... बदले में इनसे थोड़े आदर व स्नेह की उम्मीद नहीं रख सकते यार...।  मैं बहुत त्रस्त हूँ पता नहीं इन्हें पालने में कहाँ गलती हो गई.. बड़ों का आदर करने की संस्कृति हमारे खून में है पता नहीं उसमे इतनी कड़वाहट कहाँ से भर गई । सुखीराम को अपने घर की रात की घटना याद आ गई थी जब मोबाईल में दिन भर लगी रहने वाली बेटी और माँ के बीच खाना खाने को लेकर बहस हो गई थी और माँ - बेटी  दोनों ने खाना नहीं खाया था...थाली में परोसा खाना फेंकना पड़ गया था ।
     यह तो हर दूसरे घर की कहानी है... बच्चों के व्यवहार में  आक्रोश  बढ़ता जा रहा है , धैर्य की कमी होती जा रही है जो विवादों के रूप में सामने आता है ।दो पीढ़ी के सोच में अंतर तो रहता ही है । हम अपने पिता को अपने से कमतर समझते थे और हमारे बच्चे हमें समझते हैं.. कल उसके बच्चे उसे समझेंगे...वक्त के साथ बदलाव तो आते ही हैं... सोच में , व्यवहार में , जीवन - शैली में.... तकनीकी उन्नत होती जायेगी तो आने वाला समय बदलता ही जायेगा पर हम यह बात भूल जाते हैं कि हर काल की अपनी विशेषता होती है जो हमारे पूर्वजों ने पाया वो हमें खोना पड़ा... जो सुविधा हमारे पास है वह उन्हें नहीं मिली ..कुछ न कुछ तो छूटता ही जाता है.. सब कुछ लेकर आगे बढ़ा नहीं जा सकता । वातावरण के अनुसार अपने - आप को ढाल लेने में ही भलाई है । थोड़ा तुम चलो थोड़ा हम चलें की विचारधारा को लेकर सामंजस्य पैदा किया जाये शायद यही उपयुक्त होगा । युवा पीढ़ी भी गलत नहीं है , उनके सोचने का अंदाज भले ही जुदा हो पर वे भी उतने ही सेंसिटिव और समझदार हैं... फर्क समझ की है , उनके तौर - तरीकों की है  यदि हम भी उन्हें अपनी बात कहने का मौका दें...अपने - आप को उन पर न थोपें तो शायद विवाद की नौबत ही न आये ।
    आशीष ने सुखीराम की बात तो सुनी पर उन पर गौर किया या नहीं ..हम कुछ कह नहीं सकते ।क्या  हम अभिभावक कभी अपनी गलती स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं.... हम गलत हो ही नहीं सकते इस धारणा को छोड़ दीजिए क्योंकि सच में कई बातें हमें बच्चे सिखा जाते हैं... तो समय की धारा के साथ अपनी सोच की धारा को बदलने के लिए तैयार रहिये ....फिर मिलेंगे जीवन के एक नये अनुभव के साथ... एक नई बात के साथ तब तक के लिए नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 3 June 2018

किस्से सुखीराम के भाग 5

सुखीराम जी को बाजार से लौटते वक्त एक पुराने मित्र मिल गये... चलते - चलते बातें होने लगी...राजनीति की , समाज की , परिवार की । लगता है उनके मित्र को अपने बेटे - बहू  से बहुत  शिकायतें थीं ....दो - तीन घटनाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने उनकी बुराई की...कुछ बातें तो वे ध्यान से सुनते रहे.. फिर उन्हें लगा कि ये कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं तो उन्होंने मित्र से कहा-- यार तुमने पिछली मुलाकात में बताया था कि बेटे के ससुराल से खूब फल और मिठाईयां आई पिछले साल...हाँ.. कहा तो था थोड़ा हिचकिचाते हुए उन्होंने उत्तर दिया । तो... तो क्या ? मिठाइयां तो तूने एक न खिलाई ...जब मिठास नहीं बाँटी तो कड़वाहटें क्यों बाँट रहा है... उनके मित्र महोदय निरुत्तर हो गए थे ।
     समाज में ऐसे रोने , शिकायतें करने वालों की कमी नहीं है ...वे स्वयं तो दुखी रहते हैं , अपने सम्पर्क में आने वालों को भी गमगीन बना देते हैं । कई बार तो दुःखी होने के कारण भी उनके खुद के बनाये हुए होते हैं । आप किसी से  दो पल मिलते हैं तो अपनी परेशानियों का रोना लेकर मत बैठिये... हँसी - खुशी की बातें करिये ताकि आप भी अपने - आपको ताजा महसूस करें और सामने वाला भी आपसे मिलकर खुशी - खुशी घर जाए । कुछ लोग तो यह सोचकर हमेशा अपने - आपको पीड़ित बताते हैं कि उन्हें लोगों की सहानुभूति मिले.. भले ही उनके जीवन में सब कुछ अच्छा चल रहा हो ।
   कुछ लोगों की  आदत होती है कमियाँ ढूँढने की..लाख अच्छाइयों के बीच वे कोई न कोई बुराई ढूंढ ही लेते हैं । आपने वो चित्रकार वाली कहानी पढ़ी होगी न जिसने अपनी एक खूबसूरत पेंटिंग चौराहे पर टांग कर लोगों से उसमे कमी पूछी थी..उसे यह देखकर बहुत दुख हुआ कि शाम तक उसकी पेंटिंग लोगों द्वारा बताई गई कमियों से भर चुकी थी । दूसरे दिन जब वही पेंटिंग कमियों में सुधार करते हुए बनाने के लिए टांगी तो एक भी निशान नहीं था । लोगों के द्वारा की गई आलोचना
से यदि कोई सुधारात्मक सुझाव मिलता है तो उस पर गौर फरमाइए पर यदि यह आपको अपने मार्ग से विचलित करती है तो उन्हें भूल जाइये ।  कुछ तो लोग कहेंगे ..लोगों का काम है कहना..गुनगुनाते हुए जीवन में आगे बढिये...शुभकामनाएं । फिर मिलेंगे एक नये अनुभव के साथ तब तक के लिए नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार ।

स्वरचित। - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
     

Friday, 1 June 2018

डर ( लघुकथा )

यामिनी , विनीता , स्नेहा तीनों  ने एक ही कॉलेज में प्रवेश लिया था...साथ - साथ  रहना ,  खाना  , पढ़ना
खूब जमती थी उनकी ।  हॉस्टल से कॉलेज जाते वक्त कुछ  बदमाश लड़के  अक्सर लड़कियों को परेशान करते थे , उन पर छींटाकशी करते थे...एक्सरे की नजरों से उनका मुआयना करते थे...नश्तर की तरह चुभती थी वह नजर ....आहत हो जाती थीं वे सभी पर प्रिंसिपल से शिकायत करने पर भी उन पर कोई असर नहीं हुआ था । बड़े घरों के बिगड़े बच्चे थे वे...न पढ़ाई से मतलब था न भविष्य की चिंता । पता नहीं इन्हें घर में कैसी शिक्षा दी जाती है , आखिर इनके घर में भी तो कोई औरत होगी न...उनकी माँ , बहन  ? फिर दूसरी महिलाओं की इज्जत क्यों नहीं करते ये लोग...छी...कितनी गन्दी नजर है उनकी...स्नेहा ने कहा था । आखिर कब तक यार....कब तक डरेंगे हम उनसे...हम यहाँ अपने परिवार को छोड़कर पढ़ने आई हैं... वापस घर चले जायें... और क्या उपाय है ?
   उपाय है... उनके ग्रुप की सबसे साहसी विनीता ने कहा था... सब उसकी तरफ देखने लगे थे...हम लोग सभी एक हो जाएं और अपने डर पर काबू पा लें...जितना हम डर कर सिमटते जाएंगे वे हम पर हावी होते जायेंगे... एक बार हिम्मत करने की देर है.. फिर उनके हौसले पस्त हो जायेंगे । फिर पुलिस तो है ही मदद के लिए... लेकिन पहले हमें अपने डर से लड़ना होगा..क्या तैयार हो तुम लोग । हॉस्टल वार्डन भी इस समस्या से वाकिफ थी ...लड़कियों के रिक्वेस्ट पर उन्होंने हॉस्टल में सेल्फ डिफेंस के लिए कराटे की कक्षा लगाने की व्यवस्था करवा दी थी क्योंकि युद्ध से पूर्व तैयारी की आवश्यकता होती है ।
      एक निश्चित अवधि के पश्चात वे तैयार थे...विद्रोह का बिगुल बजाने को और शुरुआत  एक दिन उन्होंने कर ही दिया था । जैसे ही किसी ने उन पर फब्ती कसी..उसकी हो गई पिटाई...एक नहीं कई घटनाएं हुई
लोग लड़कियों की हिम्मत की प्रशंसा करने लगे थे और 
उनकी बदनामी फैलने लगी थी... चुपचाप छेडछाड सहने वाली लड़कियाँ विरोध करने लगी थी  और पूरा समुदाय उनके पक्ष में आ गया था । अब तो कॉलेज के लड़के भी उनके साथ हो गए थे । लिहाजा उन लड़कों ने  अब छेड़छाड़ करने से तौबा कर  लिया था...।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

सूखे पत्ते

कल तक थे...
आकर्षण के केंद्रबिंदु ,
सबके पोषक..
हरे -  भरे..छायादार ,
पंछियों के नीड़...
कीड़े - मकोड़े के आश्रय ,
हवा में सरसराते...
शीतलता बिखराते ,
पंछियों के कलरव...
बच्चों के खेल का हिस्सा ,
हरते पथिक की थकान...
लाते चेहरों पर मुस्कान ,
सूख गए वे पत्ते...
पेड़ की बाहों से ,
टूट गए वे पत्ते ...
ना दिलों में बची जगह ,
न दुनिया में ...
उपादेयता खत्म होने के बाद,
अस्तित्त्वहीन , बेघर , बेवजूद....
सूनी आँखों से खंगालते ,
अपना अतीत , अपना वजूद...
धुंधलाई नजर ,शरीर जर्जर ,
उन काँपते झुर्रीदार हाथों ने...
थाम लिया है उन्हें ,
क्योंकि वे महसूसते  हैं...
बेघर.... बेकदर होने का दर्द ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

किस्से सुखीराम के भाग 4

कुछ दिन बाद ऐसा अवसर आया कि उन्हीं पड़ोसी द्वारा अपने बेटे के जन्मदिन पर सुखीराम व उनके परिवार को आमंत्रण मिला । पहली मुलाकात में ही सुखीराम जी ने पड़ोसी से कहा...आपकी आवाज तो पहले भी सुनता रहा हूँ ...रूबरू मुलाकात पहली बार हो रही है । पड़ोसी के लिए ये शब्द अप्रत्याशित थे...शायद अवांछित भी । सुखीराम ने देखा उनकी पत्नी रेखा बहुत अच्छी चित्रकार थी...दीवारों पर लगी पेंटिंग्स में उसका नाम लिखा हुआ था..बेटा तुमने यह सब कब बनाया...चाचाजी यह तो मैंने शादी के पहले बनाया था... अब तो न समय मिलता और न ही इच्छा होती...यहाँ तो किसी को रुचि ही नहीं  , शिकायती लहजे में ऐसा कहते हुए उसने अपने पति की ओर देखा । सुखीराम और दो - चार अन्य लोगों के द्वारा मिली तारीफ से बहुत प्रसन्न हुई थी रेखा...उसके पति का ध्यान भी अब उन पेंटिंग्स की तरफ था...जिसे शायद उन्होंने पहले कभी ध्यान से देखा नहीं था । सुखीराम जी ने अपने लिए एक पेंटिंग की  फरमाइश कर दी थी..  और समय निकालकर बनाने का वादा किया था रेखा ने ।
        कुछ समय बाद सुखीराम जी के लिए रेखा ने एक बहुत ही सुंदर पेंटिंग बनाई...और वह उन्हें भेंट कर दिया यह कहते हुए कि आपने मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा दिया और अब मैं  आगे  भी पेंटिंग्स बनाती रहूँगी । उसकी कलाकारी देखकर मोहल्ले के कुछ बच्चे उससे ड्राइंग ,  पेंटिंग सीखने भी लगे थे...रुचि होने के कारण रेखा को मजा आने लगा था और वह इन सब कामों के लिए समय का उचित प्रबंधन करने लगी थी..उसके घर के अन्य सदस्य भी उसकी कला का सम्मान करने लगे थे  और हाँ... अब उस घर से लड़ने -झगड़ने की आवाजें  नहीं आतीं...आवाजें आती हैं तो सिर्फ  हँसने  और  खिलखिलाने की ।
   अक्सर ऐसा होता है कि स्त्रियाँ घर की जिम्मेदारियों में उलझ कर अपने दोस्त , अपनी रुचियाँ , अपने शौक सब भुला देती हैं... बच्चे जब तक छोटे रहते हैं तब तक तो वे व्यस्त रहती हैं.. उसके बाद एकाकीपन महसूस होने लगता है जो तनाव और चिड़चिड़ेपन को जन्म देता है... अपनी पहचान खो देना किसे अच्छा लगेगा..
उनके अंदर की कला , प्रतिभा का दम घुटते रहता है और वह अंदर से खुश नहीं रह पाती...मन के अवसादों को बाहर निकलने का माध्यम नहीं मिलता तो वह प्रस्फुटित होकर निकलता है कभी उच्च रक्तचाप , हृदयाघात या तनाव के रूप में , कभी  तीखे शब्द बाणों के रूप में । सारी जिमेदारियों के साथ अपने - आपको खुश रखना भी एक जिम्मेदारी है यदि महिलाएं ऐसा नहीं कर रही हैं तो घर के बाकी सदस्यों को इस ओर ध्यान देना चाहिये कि वे अपने शौक , रुचि को भी जीवित रखें और चंद पल खुशियों के साथ जरूर बितायें । मिलते हैं सुखीराम जी   के जीवन के कुछ और अनुभवों के साथ तब तक के लिए नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़